न्यायालय की जनसेवकों को चेतावनी, अब रियायत नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Mar 06, 2024 - 04:17 AM (IST)

जनसेवक या स्वयंसेवक? हमारे माननीय कहते हैं कि हम जनसेवक हैं। किंतु यह केवल जनता को लुभाने के लिए है। जहां सोना बोलता है, वहां जुबान बंद हो जाती है। राजनीति एक बहुत ही लाभप्रद व्यवसाय है, जिसमें कोई व्यक्तिगत पूंजी की आवश्यकता नहीं होती। केवल जनता को बहलाने की क्षमता होनी चाहिए कि आप उनके मसीहा हो। यह एक व्यक्ति की कंपनी है, जिसका कैश काऊंटर खनखनाता रहता है और यह अपने मालिक को कितना बड़ा लाभांश देता है यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसके स्टॉक के मूल्य में कितना उतार-चढ़ाव होता है। 

किंतु अब ऐसा नहीं होगा। यदि उच्चतम न्यायालय की चली तो ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। उच्चतम न्यायालय की 7 सदस्यीय संविधान पीठ ने एक दूरगामी सर्वसम्मत निर्णय दिया है, जिसके द्वारा 1998 में 5 न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय को पलट दिया गया है, जिसके अंतर्गत विधायिका के सदस्यों को संसद या राज्य विधानमंडलों में भाषण देने या मतदान करने के लिए रिश्वत स्वीकार करने पर अभियोजन चलाने से छूट दी गई थी। मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने कहा, ‘‘हम नरसिम्हा राव मामले में बहुमत के निर्णय से असहमत हैं, जिसके अंतर्गत विधायकों को उन्मुक्ति दी गई थी क्योंकि इसके व्यापक परिणाम और गंभीर खतरे हैं, इसलिए हम इसको पलटते हैं।’’ 

मुख्य न्यायाधीश का मानना है कि रिश्वत लेना एक स्वतंत्र अपराध है और इसका संसदीय विशेषाधिकारों से कोई संबंध नहीं। इसलिए विधि निर्माता संसद या विधानसभा के अंदर जो कहता है या करता है, उसे इस मामले में अभियोजन से छूट नहीं मिल सकती। मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि भ्रष्टाचार और रिश्वत संविधान की आकांक्षाओं और आदर्शों के लिए विनाशकारी है और यह एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था का निर्माण करती है, जो नागरिकों को जवाबदेह, उत्तरदायी और प्रातिनिधिक लोकतंत्र से वंचित करता है। इस तरह न्यायालय ने अनुच्छेद 105 और 194 को नकार दिया है, जो सांसदों और विधायकों को भाषण की वाक् स्वतंत्रता के लिए संरक्षित करते हैं और उन्हें विधायिका में कुछ भी कहने जाने या मतदान करने के संबंध में न्यायालय में कार्रवाई से बचाते हैं। 

न्यायालय ने चेतावनी दी कि ऐसा करने से एक ऐसे वर्ग का निर्माण होगा जो कानून से विनियमित रियायत प्राप्त करेगा और हमारे संसदीय लोकतंत्र के कार्यकरण को नष्ट करेगा। इसके अलावा 1998 के निर्णय ने एक विरोधाभासी स्थिति पैदा कर दी थी, जिसके अंतर्गत कोई विधायक, जो रिश्वत स्वीकार करता है या मतदान करता है, उसे संरक्षण मिलेगा और जो कानून निर्माता रिश्वत लेकर स्वतंत्र रूप से मतदान करता है, अब उस पर अभियोजन चलेगा। इस निर्णय का मूल 20 जुलाई, 1993 से होता है। माकपा के एक सांसद ने नरसिम्हा राव सरकार की अल्पमत कांग्रेस सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। 528 सदस्यीय तत्कालीन लोकसभा में कांग्रेस के 251 सदस्य थे, किंतु कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को 265 मत से हरा दिया और इस तरह से 14 वोट जुटाए। 

28 फरवरी, 1996 को राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा ने सी.बी.आई. में एक शिकायत दर्ज कराई और आरोप लगाया कि इन 14 सांसदों को कांग्रेस के लिए मत देने की एवज में 3 करोड़ रुपए से अधिक की राशि दी गई। 1 मार्च, 1996 को झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसद सूरज मंडल, जिसे कांग्रेस द्वारा रिश्वत दी गई थी, उन्होंने लोकसभा में कहा कि कौन सांसद पैसा नहीं लेता? मैं उन लोगों को जानता हूं जिन्होंने कोयला और लौह के खनन से पैसा बनाया, चंदा लिया। थाली और गठरियों में पैसा लिया। माकपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा लोगों से कर वसूलती हैं। पैट्रोल पंप के बारे में क्या कहना है। इस मामले में भाजपा भी संलिप्त है। दो सांडों के बीच बेचारे को क्यों ला रहे हो? 

उनके भाषण का किसी ने विरोध नहीं किया। ऐसा वे कर भी कैसे सकते थे। वह केवल सच्चाई का बखान कर रहे थे। पुन: 22 जुलाई, 2008 को वामपंथी दलों द्वारा भारत-अमरीका परमाणु समझौते के मुद्दे पर सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद लोकसभा में विश्वासमत पेश किया गया और इस विश्वासमत को 19 मतों से जीत लिया। सत्ता पक्ष को 275 तो विपक्ष को 256 मत मिले। मतदान से पूर्व 3 सांसदों द्वारा भारी मात्रा में नकदी प्रदर्शित की गई और इस पर खूब हंगामा हुआ। 

लोकसभा में कैश फॉर वोट स्कैम के लिए एक संसदीय समिति का गठन किया गया। 11 सांसदों को निष्कासित किया गया और बरामद नकदी जनवरी 2009 में पुलिस को सौंपी गई। सितंबर 2011 में उच्चतम न्यायालय ने ढुलमुल जांच के लिए पुलिस की ङ्क्षखचाई की। दो माह बाद समाजवादी पार्टी के सांसद स्व. अमर सिंह और भाजपा के दो सांसद, जिन्होंने इस घोटाले को उजागर किया था और दो बिचौलियों को जेल हुई। लोकसभा कार्रवाई के अंतिम दिन राजग के कार्यकारी अध्यक्ष अडवानी ने भाजपा के पूर्व सांसदों को व्हिसल ब्लोअर कहा और घोषणा की कि यदि वे दोषी हैं तो उन्हें भी जेल होनी चाहिए। मैंने सिं्टग नहीं किया, मुझे भी गिरफ्तार करो। उन्होंने यह चेतावनी दी। 

मई 2015 में तेलंगाना में टी.डी.पी. के नेता को एक नामनिर्दिष्ट विधायक को वीेडियो में रिश्वत देते हुए पकड़ा गया और इसके बदले विधान परिषद चुनाव में उनका वोट मांगा गया। टी.डी.पी. के एक विधायक को जेल भेजा गया किंतु उच्चतम न्यायालय ने उसे रिहा कर दिया क्योंकि उसके विरुद्ध पर्याप्त साक्ष्य नहीं थे। वस्तुत: हमारी राजनीति और निर्लज्ज, विकृत और गंदी हो गई है और यह गटर के स्तर तक पहुंच गई है। हर कीमत पर जीत हासिल करना लक्ष्य हो गया है, संवैधानिक नैतिकता जाए भाड़ में। हमारे माननीय आज अलग-अलग बयान देते हैं, ङ्क्षचतित दिखाई देते हैं, एक-दूसरे से स्वयं को अधिक स्वच्छ दिखाने का प्रयास करते हैं और संसदीय लोकतंत्र के सर्वोत्तम सिद्धांतों का पालन करने की बातें करते हैं, किंतु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हमारे सांसदों ने कभी आत्मावलोकन किया है, समय पर कार्रवाई की है? क्या 1996 और 2011-15 के बीच इस विकृति को रोकने के लिए कदम उठाए गए हैं? ऐसा नहीं हुआ क्योंकि राजनीति पैसे का खेल है। 

एक आरोपी सांसद का कहना है कि हम केवल राजनीतिक बदला चुका रहे हैं। इसका भ्रष्ट या स्वच्छ होने से कोई लेना-देना नहीं है। हमारे बारे में निर्णय देश के कानून के अनुसार होगा, किंतु मुख्य निर्णय देश की जनता करती है। वे यह भूल जाते हैं कि चुनावी जीत कानूनी भूल को नहीं मिटा सकती। ऐसे वातावरण में, जहां पर बड़े-बड़े सूटकेस छोटे साबित हो रहे हों और लोकतंत्र के व्यवसाय में राजनेताओं सहित सब कुछ पैसे से खरीदा जा सकता हो, इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है कि क्या हमारे कानून निर्माता अपनी गरिमा और सम्मान को पैसे के लिए बेच सकते हैं? इस विषय पर किसी में कोई पश्चाताप नहीं है कि इससे संसद का सार, गरिमा और विश्वसनीयता प्रभावित होती है। 

कुल मिलाकर आगामी दिन महत्वपूर्ण हैं। उच्चतम न्यायालय ने आईना दिखा दिया है। समय आ गया है कि हमारे राजनेता इस बात को समझें कि वे आम आदमी से अलग व्यवहार करें। हमारे नेतागणों को सत्ता के प्रलोभन से बचना चाहिए। यह एक स्वस्थ लोकतंत्र के हित में है कि अस्वस्थकर पूर्वोद्दाहरण स्थापित न किए जाएं। संसदीय लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब खेल के नियमों का ईमानदारीपूर्वक पालन किया जाए। हमारे राजनेताओं को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता के साथ जवाबदेही जुड़ी हुई है। समय आ गया है कि हमारे राजनेता अपनी आत्मवंचना और ‘मनी है तो पावर है’ के धोखे की गहरी नींद से जागें।-पूनम आई. कौशिश
 


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