सी.ए.ए. के विरोध से आखिर हासिल क्या होगा

punjabkesari.in Wednesday, Mar 13, 2024 - 05:48 AM (IST)

आखिरकार भारतीय संसद के दोनों सदनों से पारित नागरिकता संशोधन कानून लागू हो गया। इस नए कानून के मुताबिक हिंदू, सिख, पारसी, ईसाई, जैन और बौद्ध धर्म के शरणार्थियों को भारत में प्रवेश के दिन से ही नागरिक माना जाएगा, जिन्हें पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान में धर्म के आधार पर प्रताडि़त किया जा रहा है। जो पहले आ चुके हैं, उनके खिलाफ दर्ज केस वापस ले लिए जाएंगे। पहले 14 वर्षों में कम से कम 11 साल स्थाई रूप से भारत में रहना और पिछले 11 महीने से लगातार निवास करने वाले व्यक्ति को भारत में नागरिकता प्राप्त करने का अवसर मिलता था। अब इस अवधि को भी घटाकर 5 और 6 वर्ष कर दिया गया है।

एक ओर सत्ता पक्ष इस कानून को ऐतिहासिक बता रहा है, तो विपक्ष इसे ऐतिहासिक भूल करार देने पर आमादा है। ये उन लोगों के लिए है जिहोंने अपने धर्म की रक्षा के लिए देश छोड़ दिया है। लेकिन तीनों देशों के मुसलमानों के लिए नागरिकता और शरणार्थी बनने का कोई प्रावधान नहीं है। यही वजह है कि विपक्ष इस कानून का इतना टूट कर विरोध कर रहा है।

अवैध घुसपैठिया कौन: अवैध घुसपैठिया वह है, जो:

  •  देश में बिना वैध यात्रा कागजात जैसे पासपोर्ट, वीजा के आया हो।
  • वैध कागजात के साथ आया हो लेकिन निर्धारित अनुमति से ज्यादा समय तक यहां रह रहा हो।


विदेशी नागरिक अधिनियम 1946 के तहत अवैध घुसपैठियों को सरकार विदेशी नागरिक मान कर गिरफ्तार अथवा प्रत्यर्पित कर सकती है। इसी के साथ पासपोर्ट एक्ट 1920 (भारत में प्रवेश) कानून भी है, जो विदेशियों के भारत में प्रवेश, निवास और यात्रा को नियंत्रित करने की शक्ति केंद्र सरकार को देता है।

नागरिकता कानून में नया क्या : अभी तक सब कुछ सामान्य था। लेकिन 2015 और 2016 में भारत सरकार ने नियमों में छूट देते हुए नोटिफिकेशन के माध्यम से हिन्दू, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म के धर्म पीड़ित अवैध शरणार्थी, जो पाकिस्तान, बंगलादेश, अफगानिस्तान से 31 दिसंबर, 2014 के पहले भारत आए, उन्हें यहां रहने की अनुमति दे दी। उसमें कहा गया कि इन्हें न तो वापस भेजा जाएगा, न ही कैद में रखा जाएगा।

विवाद की पौधशाला यहीं से लगी। क्योंकि इसमें मुस्लिमों को छूट नहीं मिली। 2016 में आप्रवासी भारतीय नागरिकता कानून (ओ.सी.आई.) में बदलाव भी किया गया था। साथ ही इस प्रस्ताव को संसद की संयुक्त समिति के पास भेज दिया गया, जिसने 7 जनवरी, 2019 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसी क्रम में लोकसभा और राज्यसभा में संशोधन विधेयक पास हुआ।

जनजातियों पर लागू नहीं होगा : इस नए कानून में संविधान की छठी अनुसूची में शामिल उत्तर पूर्व के राज्यों नागालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय और असम के कुछ हिस्सों को बाहर रखा गया है। इस नए कानून के मुताबिक पूर्वोत्तर के आदिवासी क्षेत्र कर्बी आंगलोंग (असम), गारो हिल्स (मेघालय), चकमा जिला (मिजोरम) और त्रिपुरा के आदिवासी जिलों को इस कानून के प्रभाव से बाहर रखा गया है।

क्या आंतरिक सीमा अनुमति (इनर लाइन परमिट या आई.एल.पी.) पूर्वोत्तर में नया जम्मू और कश्मीर बना रहा है? आई.एल.पी. व्यवस्था वाले राज्यों में देश के दूसरे राज्यों के लोगों सहित बाहर के लोगों को अनुमति लेनी पड़ती है। भूमि, रोजगार के संबंध में स्थानीय लोगों को संरक्षण दिया जाता है। अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और मिजोरम के बाद मणिपुर चौथा राज्य है, जहां आई.एल.पी. को लागू किया गया है। बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर नियमन 1873 के अंतर्गत आई.एल.पी. व्यवस्था लागू की गई थी।

आई.एल.पी. व्यवस्था का मुख्य मकसद मूल आबादी के हितों की रक्षा के लिए तीनों राज्यों में अन्य भारतीय नागरिकों को बसने से रोक लगाना है। हाल ही में नागालैंड सरकार ने आई.एल.पी. व्यवस्था को दीमापुर तक बढ़ा दिया है। दीमापुर राज्य में एकमात्र व्यावसायिक केंद्र है, जहां राज्य के अन्य क्षेत्रों की तरह आई.एल.पी. लागू नहीं था। 9 दिसंबर, 2019 को जारी अधिसूचना में कहा गया है कि बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर नियमन 1873 की धारा 2 के तहत प्रदत्त शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए और लोगों के हितों का ध्यान रखते हुए नागालैंड के राज्यपाल तत्काल प्रभाव से पूरे दीमापुर जिले को आई.एल.पी. में लाने के लिए सहमत हो गए हैं। 

नागरिकता के बहाने राजनीति : पहले तीन तलाक प्रतिबंध का विरोध, फिर अनुच्छेद 370, असम में नागरिक रजिस्टर, अब नागरिकता कानून लाकर भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने स्पष्ट संकेत दे दिए हैं। इसके बारे में भाजपा ने अपने चुनाव घोषणापत्र में भी वायदा किया था। अब जनमत पाने के बाद उसे लागू कर रही है। तो इसमें इतनी हाय तौबा क्यों? कांग्रेस सहित सारे विपक्षी दल सत्ता बचाने और तुष्टीकरण की राजनीति से बाहर आकर भाजपा के खिलाफ संसद और सड़क पर विरोध करने में फिर असफल दिख रहे हैं।

निश्चित रूप से इस कानून में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश के मुस्लिम नागरिकता के पात्र नहीं हैं। लेकिन सच यह भी है कि जिन धर्मों के लोगों को यह अनुमति मिली है, उनकी हालत वाकई में खराब है। इन तीन देशों में गैर-मुस्लिम समाज के साथ बर्बरता, शोषण और भेदभाव आम बात है। आजादी के बाद से इन देशों में गैर मुस्लिम जनसंख्या लगातार घट रही है। पाकिस्तान का ही उदाहरण लें।

ह्यूमन राइट सर्वे रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान (जो अब है) में हिंदुओं की आबादी 1931 की जनगणना में 15 फीसदी थी। 1941 में ये 14 फीसदी हुई। 1951 में यह बंटवारे के बाद बुरी तरह से गिरकर केवल 1.3 फीसदी रह गई है। 1961 में यह आंकड़ा 1.4 प्रतिशत का था, जो 1981 और फिर 1998 में क्रमश: 1.6 और 1.8 फीसदी रहा। बंगलादेश की जनसंख्या में ङ्क्षहदुओं की संख्या 1951 में 22 प्रतिशत से घटकर 8 प्रतिशत रह गई है।

अफगानिस्तान में 1970 के दशक में लगभग 7,00,000 हिंदू और सिख थे और अब अनुमान है कि उनकी संख्या 7,000 से भी कम है। इस लिहाज से भारत, जो हर धर्म का स्थान है, में पीड़ितों को स्थान देना ही चाहिए। रही बात मुस्लिम पीड़ितों की, तो अभी तक न ही कोई ऐसा डाटा है, न ही किसी ने खुलकर इन तीनों देशों में मुस्लिम उत्पीडऩ का विषय उठाया है। 

अंतत: एक बात और समझ लें, कि इस कानून से भारत के किसी भी नागरिक के अधिकार नहीं प्रभावित होंगे। नागरिकता का सम्बन्ध किसी देश के भूभाग और संस्कृति दोनों से होता है। मुस्लिम समाज को अनायास डराने और भड़काने वाली राजनीति से देश का नुकसान ही होगा। अत: सर्वधर्म समभाव की भावना को प्रबल करते हुए, अनाथों के नाथ धारणा से इस कानून को स्वीकार करें। साथ ही देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को तोडऩे वाली राजनीति से सभी को बचना होगा। -डा. रवि रमेशचन्द्र


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