भाजपा ने महाराष्ट्र में पोखरण जैसी ‘गोपनीयता’ रखी

punjabkesari.in Sunday, Nov 24, 2019 - 03:26 AM (IST)

महाराष्ट्र में जैसे तख्ता पलट गया हो। इसकी किसी को भी भनक नहीं लगी। इस घटनाक्रम ने कांग्रेस के धर्मनिरपेक्ष अभिमान को भी छीन लिया। महाराष्ट्र में जो जीता वही सिकंदर वाली बात साबित हुई। सिर्फ एक ही विजेता घोषित हुआ और बाकी के सभी राजनीतिक खेल में मात खा गए। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने केवल चतुर शरद पवार को ही सकते में नहीं डाल दिया बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के धर्मनिरपेक्ष अभिमान को भी चूर कर दिया। सत्ता हथियाने के लिए प्रत्येक दल एक-दूसरे के साथ मिल बैठने को तैयार था। आखिरकार एक माह तक चले लम्बे नाटक का अंत हुआ। 

भाजपा ने चुनावों से पूर्व के सहयोगी दल को नकारा। शनिवार की प्रात: को महाराष्ट्र में तख्त पलट जैसा ही घटनाक्रम देखा गया। भाजपा ने अजीत पवार के नेतृत्व वाली राकांपा को सहयोगी बनाया, जबकि धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस को हिंदूवादी शिवसेना का सहयोग मिला है। भाजपा ने इस बात की किसी को कानों कान खबर नहीं लगने दी। भाजपा ने शरद पवार, सोनिया गांधी तथा उद्धव ठाकरे के पांव के नीचे से जमीन ही खिसका ली। इस दौरान अंतिम क्षणों तक पोखरण जैसी गोपनीयता रखी गई। महाराष्ट्र के राज्यपाल बी.एस. कोशियारी ने देवेन्द्र फडऩवीस को एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की तथा उनके नए सहयोगी अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। सोनिया-शरद-उद्धव के पास अब आंसू बहाने के अलावा कोई काम नहीं रहा। शरद पवार ने सोचा भी न होगा कि उनके भतीजे अजीत शनिवार की प्रात: मुम्बई राज भवन में कौन-सी राह पकडऩे वाले हैं, वहीं उद्धव ठाकरे तो अपने बिस्तर पर लेटकर अपने मंत्रालय के गठन का सपना ले रहे थे। 

पूर्व न्यूज पेपर क्लर्क संजय राऊत ने राज्य की राजनीति में उथल-पुथल मचाने के लिए एक ऐसा मशहूर खेल खेला जिससे उनके बॉस उद्धव ठाकरे बाजार में स्वयं को असहाय महसूस कर रहे होंगे। 50-50 की मांग बोगस दिखाई दी क्योंकि अपने सीनियर सहयोगी दल भाजपा से शिवसेना ने आधी ही सीटें जीतीं। दिलचस्प बात यह रही कि शरद पवार की बेटी तथा सांसद सुप्रिया सुले ने ट्वीट किया कि परिवार तथा पार्टी में दरार थी। यह सच है कि भतीजे ने चाचा को मात दी।

पार्टी को वास्तव में अजीत ने अपने नियंत्रण में रखा। अजीत के पास अब अतिरिक्त फायदा होना चाहिए कि 54 सदस्यीय राकांपा में फिर फूट पड़ेगी। बतौर उपमुख्यमंत्री मंत्री पद वह अपने विधायकों को दिलवा सकेंगे। शरद पवार की आयु तथा उनका गिरता स्वास्थ्य भी उनके खिलाफ था। आखिरकार राकांपा में उत्तराधिकारी अब तय हो चुका है और यह सुप्रिया से ज्यादा अजीत को समझा जाएगा जिनका शरद पवार ने एक दशक पहले राजनीति में प्रवेश करवाया था। अजीत पवार ने हाल ही के लोकसभा चुनावों में अपने बेटे को भी खड़ा किया था हालांकि वह जीतने में नाकाम रहे। 

इस दौरान मुम्बई में शनिवार की प्रात: ने सभी अटकलों पर विराम लगा दिया। यहां यह कहना भी काफी होगा कि विपक्षी पार्टियां हरियाणा तथा महाराष्ट्र में सरकार के गठन को लेकर भाजपा की परेशानियों से उत्साहित नजर आ रही थीं। उनकी तैयारी धरी की धरी रह गई। अब वे पार्लियामैंट में और ज्यादा आक्रामक दिखाई देंगी। असफल लोग रैफरी को ही दोष देंगे और री-मैच करवाने की मांग करेंगे। 

वहीं मीडिया को भी कोई भनक न लगी। पिछले एक माह से राजनीतिक पार्टियां इकट्ठे बैठकर सरकार के गठन के लिए कोई हल तलाश रही थीं। कांग्रेस तथा शिवसेना महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में भाजपा को सत्ता से बाहर करने के सम्भावी सपने संजो रही थीं। पाठकों की याद्दाशत के लिए बताना जरूरी है कि शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे एक न्यूज पेपर कार्टूनिस्ट थे। उस समय उनको तथा दिवंगत रजनी पटेल को टैक्सटाइल मिलों में सशक्त ट्रेड यूनियनों के गढ़ को तोडऩे के लिए महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री वी.पी. नायक ने उत्साहित किया था। 60 के दशक में नवगठित शिवसेना ने बाहरी लोगों के खिलाफ मुहिम छेड़ी।

दक्षिण भारतीयों अथवा ‘लुंगी वाले’, जैसा कि ठाकरे उनको बुलाते थे, को निशाना बनाया गया। ठाकरे का मानना था कि ये लोग महाराष्ट्र वासियों से नौकरियां छीन रहे हैं। उन्होंने मराठी मानुष की बात की। इसी के चलते ठाकरे को स्थानीय लोगों में महत्ता मिली। इस दौरान मिल मालिकों ने शिवसेना को उत्साहित किया कि उसे अपना निजी प्रतिद्वंद्वी ट्रेड यूनियन विंग स्थापित करना चाहिए। 

इस दौरान इंदिरा गांधी की कांग्रेस में नायक और पटेल ने अपना प्रभाव खो दिया, वहीं मुम्बई में शिवसेना ने स्वयं को स्थापित कर लिया। वहीं तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल ने शिवसेना को सुझाया कि वह बाम्बे को केन्द्रीय शासित प्रदेश बनाने के प्रस्ताव को लेकर आगे आए। शिवसेना ने मराठी संवेदनाओं को समझते हुए बी.एम.सी. चुनाव लड़ा तथा जीत हासिल की। देश की सबसे अमीर म्यूनिसिपल बाडी शिवसेना के हाथों में आ गई, इसके बाद इसने कभी मुड़ कर नहीं देखा। 

कुछ सालों के बाद शिवसेना तथा भाजपा ने हाथ से हाथ मिलाया ताकि कांग्रेस को चुनौती दी जा सके। मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा एक प्रभावशाली सहयोगी के तौर पर उभर कर आई। एक-दूसरे को नीचा दिखाने वाली कांग्रेस तथा शिवसेना अब निकट आने की सोचेंगी। हालांकि राजनीति के दोनों ब्रांडों को अब पहचान पाना मुश्किल होगा। अपनी विचारधारा को बचाने के लिए दोनों पार्टियां ही असफल हुई हैं।-अंदर की बातें वीरेन्द्र कपूर
 


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