‘मंगल-यान मिशन’ की वैश्विक सफलता के बाद भारत की ‘एस्ट्रोसैट’ की सफल छलांग

punjabkesari.in Tuesday, Sep 29, 2015 - 01:51 AM (IST)

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के जन्मदाता डा. विक्रम साराभाई थे। गत 25 सितम्बर को जब मैं चेन्नई में ‘आल इंडिया फैडरेशन आफ मास्टर पिंटर्स’ द्वारा आयोजित समारोह में ‘नैशनल अवार्ड फार एक्सीलैंस इन पिंटिंग’ ग्रहण करने गया तो ‘इसरो’ के डायरैक्टर डा. के. सीवान ने अपने भाषण में अंतरिक्ष अनुसंधान में भारत की उपलब्धियों के बारे में विस्तार से बताया।

1962 में परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा अंतरिक्ष में अनुसंधान के लिए भारतीय राष्ट्रीय समिति का गठन किए जाने के बाद से भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम ने 21 नवम्बर 1963 को थुम्बा के ‘इक्वेटोरियल रॉकेट लांचिग स्टेशन’ से भारत का ‘पहला साऊंडिग रॉकेट’ छोड़ा तथा 1972 में अंतरिक्ष विभाग के गठन और अंतरिक्ष कार्यक्रम की बागडोर ‘इसरो’ को सौंपने के बाद इस कार्यक्रम ने अनेक सफलताएं अर्जित कीं। 
 
श्री के. सीवान के उक्त कथन के तीन दिन बाद ही 28 सितम्बर  को श्रीहरिकोटा में ‘एस्ट्रोसैट सैटेलाइट पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल सी-30’ (पी.एस.एल.वी.सी.-30) के सबसे शक्तिशाली संस्करण का प्रयोग करते हुए ‘इसरो’ के वैज्ञानिकों ने उपग्रह ‘एस्ट्रोसैट’ लांच करके अपनी सफलताओं की एक और मिसाल पेश कर दी है।
 
पहले ही प्रयास में प्रक्षेपित एस्ट्रोसैट में एक्स-रे का इस्तेमाल करने वाला एक दूरदर्शी यंत्र लगाया गया है। इसे अमेरिका के नासा द्वारा वर्ष 1990 में प्रक्षेपित हबल दूरदर्शी यंत्र का लघु संस्करण और खगोलीय स्रोतों का अध्ययन करने का एक समग्र साधन माना जा रहा है।
 
‘इसरो’ को अपने पहले ही प्रयास में लाल ग्रह पर पहुंंचने हेतु ‘मंगलयान मिशन’ को मिली सफलता के लगभग एक वर्ष बाद ‘एस्ट्रोसैट’ आया है। मार्स आर्बिटर मिशन की तरह यह भी कम लागत की परियोजना है। इस पर 178 करोड़ रुपए की लागत आई है और दस वर्ष का समय लगा। 
 
ब्रह्माड विज्ञान के अध्ययन के लिए पूर्णत: समर्पित भारत का पहला बहु तरंगदैध्र्य (वेवबैंड) वाला अंतरिक्ष निगरानी उपग्रह महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान करेगा। पृथ्वी की निचली कक्षा में 650 कि.मी. ऊंचाई पर स्थापित इस ‘दूरबीन’ का उपयोग ब्लैक होल के अध्ययन के लिए भी किया जाएगा। तारों व आकाशगंगाओं के जन्म और उनके खत्म होने काविश्लेषण करने के लिए भी यह प्रयुक्त होगा। 
 
यह ‘एस्ट्रोसैट’ मिशन पांच वर्षों का होगा। इसकी मदद से ब्रह्मड को समझने में मदद मिलेगी। अमेरिका, यूरोपियन यूनियन व जापान के बाद ऐसा करने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बन गया है।
 
यह पहला मौका है जब भारत ने 4 अमेरिकी ‘रिमोट सैंसिंग उपग्रह’ प्रक्षेपित किए हैं। ये उपग्रह सान फ्रांसिस्को की एक कम्पनी के हैं। ये भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स कार्पोरेशन  लिमिटेड के साथ हुए समझौते के तहत प्रक्षेपित किए गए हैं। इनका प्रमुख उद्देश्य जलयानों पर नजर रखते हुए ए.आई.एस. के माध्यम से समुद्री खुफिया जानकारी भी जुटाना है।
 
‘इसरो’ के अध्यक्ष डा. ए.एस. किरण कुमार के अनुसार  किसी भी वैश्विक अंतरिक्ष आधारित ‘दूरबीन’ में इस तरह की खूबियां नहीं हैं। यह एक ही समय में अल्ट्रावायलेट, आप्टिकल, लो एंड हाई एनर्जी, एक्स-रे वेवबैंड में ब्रह्माड की निगरानी में सक्षम है। 
 
यह कई तरंगदैध्र्यों (वेव बैंड्स) में देख सकता है। ‘एस्ट्रोसैट’ दुनिया की पहली ऐसी वैज्ञानिक ‘दूरबीन’ है जिसमें चार विशेष कैमरे लगे हैं। ये एक साथ अलग-अलग तरंगदैध्र्य पर नजर रख सकते हैं। यह क्षमता इसे पहले वाली दूरबीनों से अलग करती है। 
 
‘इसरो’ का ‘मिशन आप्रेशंस काम्प्लैक्स’ (मॉक्स) इस मिशन का संचालन कर रहा है। ‘एस्ट्रोसैट’ पर पांच उपकरण ‘अल्ट्रावायलेट इमेजिंग टैलीस्कोप’, ‘लार्ज एरिया एक्स-रे प्रपोर्शनल काऊंटर’, ‘साफ्ट एक्स-रे टैलीस्कोप’, ‘कैडमियम जिंक टेल्यूराइड इमेजर’ और ‘स्कैनिग स्काई मॉनीटर’ लगाए गए हैं।
 
हालांकि भारतीय खगोलविद् दशकों से जमीनी दूरबीनों से आकाशीय हलचलों पर नजर रखते आए हैं लेकिन अंतरिक्ष में वेधशाला होने से उनका काम और आसान हो जाएगा। कम लागत से मिली सफलता ने ‘इसरो’ के प्रति विदेशी वैज्ञानिकों को अपनी धारणा बदलने पर मजबूर कर दिया है और इसरो की ये उपलब्धियां सस्ते निर्माण तथा ‘मेक इन इंडिया’ का बेहतरीन उदाहरण हैं।
 
एक संयोग ही है कि 6 इन विदेशी उपग्रहों के सफल प्रक्षेपण के साथ ही ‘इसरो’ ने अंतरिक्ष अनुसंधान की दिशा में 50 वर्ष पूरे कर लिए हैं। इन सफलताओं के साथ-साथ ‘इसरो’ के वैज्ञानिक अपने ‘सन मिशन’ की तैयारी कर रहे हैं। आशा करनी चाहिए कि भारत इसमें भी सफल होकर निकलेगा।
 

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