‘नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली’

punjabkesari.in Sunday, Apr 26, 2015 - 01:16 AM (IST)

(वीरेन्द्र कपूर): हमारे किसान लोग इस लोकोक्ति का अर्थ भली-भांति जानते हैं। वास्तव में इस लोकोक्ति में व्यक्त किए गए ताने के बारे में उन राजनीतिज्ञों को सचेत होने की जरूरत है, जो किसानों को अपनी राजनीति की बिसात पर केवल एक मोहरा ही समझते हैं। 
 
अपना ‘चलीहा’ काट कर लौटे राहुल गांधी बेशक इस लोकोक्ति के अर्थों से अवगत हों या न हों, लेकिन जो ‘नई रोशनी’ लेकर वह लौटे हैं, उसके परिप्रेक्ष्य में हम आशा करते हैं कि वह अब सच को झूठ से और तथ्य को मिथ्या से अलग करने की पर्याप्त क्षमता हासिल कर चुके हैं। 
 
फिर भी लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक में प्रस्तावित बदलावों के विरुद्ध उन्होंने तोता रटंत ढंग से जो भड़ास निकाली, उससे पूर्व उन्हें स्वतंत्रता के समय से लेकर अब तक के अपनी पार्टी के इतिहास पर भी दृष्टिपात करना चाहिए था। 
 
एक बात तो पक्की है कि अपने दिवंगत पिता की तरह वह भी किसी मुद्दे पर अधिक समय तक अपना ध्यान एकाग्र नहीं कर सकते, इसलिए हम  कुछ मुख्य बिन्दु प्रस्तुत करते हैं ताकि  वह इनकी गहरी समझदारी हासिल कर लें और भूमि अधिग्रहण कानून के प्रस्तावित बदलावों का विरोध करते समय पाखंडी होने का प्रभाव पैदा करने से बच सकें। आखिर किसानों को मगरमच्छ के आंसू बहाकर प्रभावित नहीं किया जा सकता। 
 
एक के बाद एक कांग्रेसी सरकारों ने  जिस प्रकार दोनों हाथों से इस धरती के लोगों की नृशंस लूट की है, उसके मद्देनजर नेहरू-गांधी परिवार को लोगों के घावों पर नमक छिड़कने से परहेज करना चाहिए। 
 
खुद को प्रगतिवादी और समाजवादी कहने वाली जवाहर लाल नेहरू की सरकार न केवल 1894 के अंग्रेजों के बनाए पूर्णतया: एकपक्षीय भूमि अधिग्रहण कानून से चिपकी रही, बल्कि इससे भी बदतर काम उसने यह किया कि इसमें भूस्वामियों के हितों के विरुद्ध संशोधन किया। इसके अलावा नेहरू ने राष्ट्र निर्माण के नाम पर अदालतों को भूमि अधिग्रहण की समीक्षा करने से बाधित कर दिया। 
 
इंदिरा गांधी ने इससे भी एक कदम  आगे बढ़ते हुए भू-स्वामियों को नि:शक्त कर दिया। दुर्भावना के अन्तर्गत किए गए भूमि अधिग्रहण को कानून की नजरों में पाक-पवित्र सिद्ध करने के लिए उचित मुआवजे के आधार पर किसी प्रकार की चुनौती देने को प्रतिबंधित कर दिया। आप को याद होगा कि उनके लाडले पुत्र संजय गांधी की मारुति परियोजना उस भूमि पर साकार हुई थी जो किसानों से ऐन कौडिय़ों के भाव खरीदी गई थी। अर्थात किसानों की सैंकड़ों एकड़ उपजाऊ जमीन का अधिग्रहण करके उनको यदि मामूली-सा दाम भी दे दिया जाता था, तो वे किसी भी न्यायालय का दरवाजा नहीं खटखटा सकते थे। 
 
सांसद के रूप में राहुल गांधी के प्रथम काल के दौरान यू.पी.ए. सरकार ने अपने उन जुंडलीदार (क्रोनी) पूंजीपतियों को हजारों हैक्टेयर भूमि हस्तांतरित करने का एक हथकंडा विकसित कर लिया था, जिन्होंने कांग्रेस पार्टी की तिजोरियों में सिक्कों की खनखनाहट कभी थमने नहीं दी थी और टनों के हिसाब से काला धन उपलब्ध करवाया था। कथित विशेष आॢथक जोन योजना इस देश के साथ बहुत बड़ा छल था, जिसके माध्यम से औद्योगिक घराने और रीयल एस्टेट डिवैल्पर ‘सेज’ के नाम पर कृषि भूमि के विशाल भूखंड औने-पौने दामों पर लेने में सफल हो गए। 
 
इस ‘सेज’ स्कीम के सबसे बड़े लाभाॢथयों में कार्पोरेट जगत का एक ऐसा दिग्गज शामिल था, जिसको ‘राडिया टेप्स’ में यह दावा करते हुए सुना गया, ‘‘कांग्रेस तो अपनी घर की दुकान है। पैसे दो और जो भी माल चाहिए, खरीदो।’’ उसे हुड्डा सरकार ने गुडग़ांव-मानेसर पट्टी में हजारों एकड़ अधिगृहित भूमि का आबंटन किया था। इसके अलावा नवी मुम्बई के प्रस्तावित सेज में भी उसने सैंकड़ों एकड़ जमीन हासिल कर ली थी।
 
यदि राहुल गांधी इतने से भी संतुष्ट न हों तो हम उन्हें सेज घोटाले के एक अन्य लाभार्थी के बारे में बता सकते हैं, जो एक रीयल एस्टेट ग्रुप है, जिसने राबर्ट वाड्रा पर करोड़ों रुपए लाभ की बारिश केवल इसलिए की कि उसके पास ऐसा जादू था कि वह कांग्रेस सरकार से उनके काम सुपरसोनिक गति से करवा देता था। हरियाणा  सरकार ने सैंकड़ों एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया और इस कम्पनी को इसका हस्तांतरण सेज के नाम पर कर दिया। लेकिन इस कृपा के लिए गुडग़ांव के साढ़े सात एकड़ भूखंड के लिए वाड्रा को रीयल एस्टेट कम्पनी से जितना पैसा हासिल हुआ, किसानों को तो उसकी तुलना  में अत्यंत ही छोटी राशि हासिल हुई। 
 
किसानों के लिए कांग्रेस पार्टी को इतनी अधिक चिन्ता रही है कि इसकी राज्य सरकारों ने नया भूमि अधिग्रहण कानून 1 जनवरी 2014 को कार्यशील होने से पूर्व ही फटाफट 1894 के कानून के अन्तर्गत हजारों एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया। केवल महाराष्ट्र सरकार ने ही 2000 एकड़ से अधिक भूमि का अधिग्रहण किया जबकि इसके पास भूमि परियोजना की कोई ठोस योजना नहीं थी। और कुछ ही दिनों बाद हुए मतदान में इस सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया गया था।
 
हम अपनी इस दलील के पक्ष में अनेक तथ्यों की लंबी सूची प्रस्तुत कर सकते हैं कि कांग्रेस सरकार का रिकार्ड निश्चय ही किसान के पक्ष में नहीं रहा। फिर भी नेहरू-गांधी परिवार के युवराज को यह अवश्य समझ लेना चाहिए कि वे सभी लोग जो कृषि पर किसी न किसी रूप में खुद को जिन्दा रख रहे हैं, वास्तव में भू-स्वामी नहीं हैं। खेती की जुताई करने वाले भूमिहीनों, मौसमी कृषि मजदूरों इत्यादि की संख्या वास्तविक भू-स्वामियों से कई गुणा अधिक है। 
 
कृषि कार्यों में लगे 54 प्रतिशत भारतीयों में से केवल 10 प्रतिशत ही कृषि कार्य जारी रखना चाहते हैं। शेष सभी शहरों की ओर पलायन करने और सेवा क्षेत्र में भाग्य आजमाने की इच्छा रखते हैं। इन क्षेत्रों में रोजगार तभी मिल सकेगा यदि कारखाना क्षेत्र (इससे भी अधिक सही रूप में कहा जाए तो कार्पोरेट क्षेत्र)करोड़ों नए रोजगारों का सृजन करे। यदि भूमि उपलब्ध नहीं होगी तो नया आधारभूत ढांचा सृजित नहीं हो सकता और न ही कार्पोरेट सैक्टर का विस्तार हो सकता है। 

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