जाट आरक्षण रद्द : योग्यता पर जोर देने की जरूरत

punjabkesari.in Tuesday, Mar 24, 2015 - 12:28 AM (IST)

(पूनम आई. कौशिश): भारत में आरक्षण और कतारें हमेशा से अभिशाप बने रहे हैं और इस मामले में हमारे नेताओं में एक-दूसरे से आगे बढऩे की होड़ लगी है। वे आरक्षण को अपने-अपने वोट बैंक में मूंगफली की तरह बांटते रहते हैं किन्तु अब ऐसा नहीं होगा। उच्चतम न्यायालय ने उनके इस कदम पर अंकुश लगा दिया है। 

एक उल्लेखनीय निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने पिछले वर्ष मार्च में अन्य पिछड़े वर्ग की सूची में जाटों को शामिल करने की अधिसूचना को रद्द कर दिया है। इस अधिसूचना से पिछड़े वर्गों की केन्द्रीय सूची में जाटों को शामिल किया गया था और 9 राज्यों ने भी ऐसा किया था। न्यायालय ने कहा कि जाति और ऐतिहासिक अन्याय किसी समुदाय को पिछड़ेपन का दर्जा देने का आधार नहीं हो सकता है। न्यायालय ने कहा कि ट्रांसजैंडर और सामाजिक रूप से अन्य पिछड़े वर्गों की पहचान कर  उन्हें आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए और यह एक सतत् प्रक्रिया होनी चाहिए। 
 
न्यायालय ने यह भी कहा कि पिछड़ेपन की स्वघोषित पद्धति अब काम नहीं करेगी और आरक्षण के लिए पिछड़े वर्गों की पहचान हेतु नए मानदंड निर्धारित किए हैं और कहा है कि संविधान के अंतर्गत आरक्षण सबसे पात्र लोगों को मिलना चाहिए। 
 
मोदी सरकार के पास 2 विकल्प हैं या तो वह उच्चतम न्यायालय में पुर्नविचार याचिका डाले या फिर से अधिसूचना जारी करे। फिर से अधिसूचना जारी करने के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को नए सिरे से सर्वेक्षण करना होगा क्योंकि पहले इसने जाटों के आरक्षण के विरुद्ध रिपोर्ट दी थी। दुखद तथ्य यह भी है कि हमारे नेता अन्य पिछड़े वर्गों के वोट प्राप्त करने की चाह में अपने कर्मों के परिणामों की ओर नहीं देख पाते हैं। उनके ऐसे कदम से न केवल आम आदमी जाति और पंथ के आधार पर विभाजित होता है अपितु इससे अमीर-गरीब के बीच की खाई भी बढ़ती जाती है। वस्तुत: जमीनी हकीकत और आभासी सामाजिक व्यवस्था में कोई मेल नहीं होता है। आरक्षण देने से गांव के समाज में बदलाव नहीं आएगा क्योंकि वहां आज भी अशिक्षा और अज्ञानता व्याप्त है तथा जिसके कारण जाति प्रथा जारी है। 
 
यह सच है कि पिछड़ी जातियों के कई परिवार अत्यन्त गरीबी में रह रहे हैं किन्तु हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह गरीबी परिवारों के स्तर पर है, न कि जाति के स्तर पर। यदि गरीबी का उन्मूलन करना है तो गरीब परिवारों को इसका लाभ मिलना चाहिए। किन्तु सभी गरीब परिवार अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति वर्गों की सूची में शामिल नहीं हैं। साथ ही गरीबी उन्मूलन का एकमात्र उपाय आरक्षण नहीं है। न ही आरक्षण से यह गारंटी मिलती है कि उस जाति के सभी लोगों को सरकारी नौकरी मिल जाएगी या संसद और राज्य विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व मिल जाएगा। उस स्थिति में सरकार क्या करेगी जब प्रत्येक जाति यह शिकायत करने लगेगी कि उसका राजनीतिक दलों या सरकारी विभागों में प्रतिनिधित्व नहीं है। वस्तुत: आज योग्यता का स्थान जाति और मूल निवास ने ले लिया है। सरकारी नौकरियां तो दूर, अब तो प्राइवेट नौकरियों में भी आरक्षण की मांग की जाने लगी है। 
 
प्रश्न यह भी उठता है कि क्या आरक्षण अपने आप में एक साध्य है। बिल्कुल नहीं। क्या कभी किसी ने इस बात का मूल्यांकन किया है कि जिन वर्गों को आरक्षण दिया गया है, उन्हें इससे लाभ मिला है या नुक्सान हुआ है? क्या आरक्षण के परिणामों का पता करने के लिए कोई तटस्थ अध्ययन कराया गया है? राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के एक पूर्व अध्यक्ष के अनुसार राजनेताओं ने आरक्षण को एक सर्कस बना दिया है। 
 
यदि अन्य पिछड़े वर्गों, पिछड़ी जाति या उपजातियों के कुछ लोगों को सरकारी नौकरी मिल जाए तो उससे सारे पिछड़े वर्ग का कैसे भला होता है? क्या यह उचित है कि एक योग्य व्यक्ति को केवल इसलिए पदोन्नति न दी जाए कि उसकी पदोन्नति का कोटा पूरा हो गया है? उस आरक्षण का क्या फायदा यदि कोई अधिकारी निर्णय लेने की प्रक्रिया का सामना न कर सके। सरकार आरक्षण के आधार पर भेदभाव को किस प्रकार दूर करने जा रही है? 
 
आरक्षण देने के बाद इस बात के कोई प्रयास नहीं किए जाते हैं कि पिछड़े वर्गों को मुख्य धारा में लाया जाए। उनके लिए कोई कल्याण कार्यक्रम नहीं हैं या गुणवत्ता की शिक्षा नहीं है। बस एकमात्र उपाय यह है कि नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। 
 
हमारे राजनेता सामाजिक न्याय दिलाने के नाम पर तदर्थ नीतियां बनाते हैं और आरक्षण की घोषणा करते हैं। किन्तु यह केवल राजनेताओं का एकाधिकार नहीं है। यह 1993 में इंदिरा साहनी बनाम भारतीय संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देशों पर स्थापित राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का विशेषाधिकार है। इस आयोग को यह कार्य सौंपा गया है कि वह अन्य पिछड़े वर्गों की सूची में सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों को शामिल करने के लिए मानदंड बनाए ताकि केन्द्र सरकार  के अंतर्गत उन्हें नौकरियों में आरक्षण मिले। किन्तु आज हम एक दुष्चक्र में फंसे हैं तथा इसे हमारी अस्थिर और खंडित राजनीति ने और उलझा दिया है। आज देश में वर्ग संघर्ष का खतरा नहीं अपितु जातीय संघर्ष का खतरा है। आज राजनीति में वामपंथ और दक्षिणपंथ की बजाय अगड़े और पिछड़े अधिक सार्थक बन गए हैं। 
 
आज देश में हर कोई सांप्रदायिक सौहार्द की अपनी परिभाषा दे रहा है और सभी नेता अलगाववादी नीतियों के माध्यम से राजनीतिक निर्वाण प्राप्त करने में इतने व्यस्त हैं कि वे स्वयं को, मतदाताओं को और इतिहास को भी भ्रमित कर देते हैं। इसके चलते आज भारत वह भारत नहीं रह गया जिसे कभी एमरसन ने मानव विचारों का शीर्ष कहा था। यदि राजनीतिक जागरूकता जातीय स्तर तक पहुंच जाती है तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय राजनीति में विभाजनकारी जातीय समीकरण उभरने लगेंगे। साथ ही जातीय प्रतिस्पर्धा के आधार पर राजनीतिक सत्ता का खेल भी खतरनाक है और यदि ऐसा होता है तो सामाजिक सुधार आंदोलन निरर्थक बन जाएंगे। हमारे नेताओं को यह समझना होगा कि आरक्षण का सार्वभौमिकरण का मतलब है उत्कृष्टता और योग्यता को नजरअंदाज करना और यदि कोई राष्ट्र आगे बढऩा चाहता है तो उसे उत्कृष्टता और योग्यता को महत्व देना ही होगा। 
 
इन तथ्यों को देखते हुए इसका एकमात्र उपाय यह है कि नेताओं और उनके वोट बैंक के बीच सुलह हो। वे आत्मावलोकन करें। उन्हें यह भी ध्यान में रखना हेागा कि सामाजिक न्याय और समान अवसर केवल कुछ लोगों का विशेषाधिकार नहीं है क्योंकि अब जाति आधारित आरक्षण विभाजनकारी बनता जा रहा है। क्या न्यायालय का यह आदेश वोट बैंक की राजनीति को रोकेगा? यह तो समय ही बता पाएगा और समय की आवश्यकता है कि सभी लोगों को अच्छी शिक्षा दी जाए क्योंकि आरक्षण अब लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने का साधन नहीं रह गया है। नौकरी में आरक्षण की मांग वैसी है जैसे घोड़े के आगे गाड़ी रख दो। 
 
सामाजिक न्याय एक वांछनीय और प्रशंसनीय लक्ष्य है किन्तु यह औसत योग्यता को पोषित करने की कीमत पर नहीं किया जाना चाहिए। लोकतंत्र में दोहरे मानदंडों और ओरवैल की इस धारणा के लिए कोई स्थान नहीं है कि कुछ लोग अन्य लोगों से अधिक समान हैं। मूल अधिकारों में जाति, पंथ और लिंग को ध्यान में रखे बिना सबको समान अवसरों का अधिकार दिया गया है और हमें उसके साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। समय आ गया है कि किसी भी कीमत पर सत्ता प्राप्त करने वाले हमारे राजनेता वोट बैंक की राजनीति से परे देखें और इसके दीर्घकालिक प्रभावों पर विचार करें। युवा भारत कभी भी इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि विशेषाधिकारों की शक्ति चुनावी प्रतिस्पर्धा के माध्यम से संख्या बल में बदली जाए।  
 

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