क्या ओबामा की ‘नसीहत’ पर अमल करेंगे मोदी

punjabkesari.in Sunday, Feb 01, 2015 - 04:46 AM (IST)

(बी.के. चम) मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद अत्यधिक सक्रिय हो चुकीं मजहबी और विघटनकारी शक्तियां क्या बराक ओबामा द्वारा दी गई समझदारी भरी सलाह को सुनेंगी? बेशक ऐसी शक्तियों का पूर्व इतिहास आशाजनक नहीं, फिर भी अमरीकी राष्ट्रपति के कहे शब्दों का संक्षेप में स्मरण करते हुए उत्तर तलाश करने का प्रयास किया जा सकता है।

कभी-कभार ही ऐसा होता है कि कोई विदेशी महानुभाव अपनी मेहमाननवाजी करने वाले देश को उन प्रचंड संवेदनशील आंतरिक मुद्दों के परिणामों के बारे में आगाह करता है जो उसकी एकता और एकजुटता के लिए चुनौती बने होते हैं। फिर भी विश्व के सबसे शक्तिशाली देश के राष्ट्रपति ने यह काम किया और किया भी अपनी 3 दिवसीय भारत यात्रा के अंतिम दिन चुनिंदा लोगों के एक विशाल समारोह को संबोधित करते हुए, जिसमें मोदी उपस्थित नहीं थे। (मोदी की अनुपस्थिति का आधिकारिक तौर पर कोई कारण नहीं बताया गया।)

ओबामा ने कहा, ‘‘सफलता तब तक भारत के कदम चूमेगी जब तक यह मजहबी आधार पर नहीं बंटता एवं एक राष्ट्र के रूप में एकजुट रहता है... हमारे दोनों देशों (अमरीका और भारत) में हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, यहूदी एवं बौद्ध मजहबों के साथ-साथ अन्य भी कई मतों-पंथों के लोग रहते हैं... मजहब की स्वतंत्रता हमारी स्थापना से संबंधित दस्तावेजों में दर्ज है जो कि प्रत्येक नागरिक को बिना किसी अभियोजन या भेदभाव के डर के अपनी पसन्द के धार्मिक विश्वास पर निष्ठा रखने, इसका प्रचार करने तथा यहां तक कि किसी भी मजहब पर निष्ठा न रखने तक का अधिकार देती है... हमारी अनेकता ही हमारी शक्ति है और हमें उन प्रयासों के विरुद्ध चौकस रहना होगा जो हमें विभिन्न मतों-पंथों या अन्य किसी आधार को बांटना चाहते हैं।’’

‘‘भारत के मजहबी आधार पर बंटाधार होने’’ की आशंकाओं को प्रतिबिंबित करती उनकी टिप्पणियों ने भारत के स्वयंभू धर्म रक्षकों को व्यथित किया होगा। दिलचस्प बात यह है कि ओबामा की यह टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब दिल्ली हाईकोर्ट ने कुछ दिन पूर्व ही 18 जनवरी को जारी आदेश में कहा कि ‘‘मजहबी असहिष्णुता की बढ़ती घटनाओं पर समय रहते ही अंकुश लगाना होगा।’’ हाईकोर्ट ने आमिर खान की धमाकेदार फिल्म ‘पीके’ के विरुद्ध जनहित याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि ‘‘यह याचिका असहिष्णुता की बढ़ती प्रवृत्ति का उदाहरण है।’’

ओबामा ने उन शक्तियों का नाम नहीं लिया जिनके विरुद्ध उन्होंने आगाह किया है। फिर भी यह बताने की जरूरत नहीं कि इन शक्तियों में, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों ही स्तरों पर, सबसे बड़ी शक्ति हिन्दुत्ववादी संगठनों के प्रतिनिधित्व में है और छोटी-छोटी कई शक्तियां मुस्लिम संगठनों की छत्रछाया में। प्रादेशिक स्तर पर अस्तित्व रखने वाली ऐसी शक्तियों में शिवसेना शामिल है। सांत्वना की बात केवल इतनी है कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों ही स्तरों पर ये संगठन अपने-अपने समुदायों के एकमात्र प्रतिनिधि नहीं हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा सबसे बड़ा संगठन भाजपा और इसकी वैचारिक जननी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) है। आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत ने यह घोषणा करके विवाद छेड़ दिया था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है। उनकी इस घोषणा के बाद संघ परिवार के अनेक संगठनों द्वारा घृणा फैलाने वाले भाषणों एवं धर्म परिवर्तन, पुनर्धर्मांतरण, ‘घर वापसी’ अभियानों की सिलसिला शुरू हो गया। शिक्षा का भगवाकरण करने और वैज्ञानिक आधार की बजाय मिथिहास को इतिहास बताकर इतिहास के पुनर्लेखन के प्रयास हो रहे हैं।

इन घटनाक्रमों के पीछे-पीछे सैकुलर भारत को धर्म आधारित राज्य में बदलने का प्रयास शुरू हो गया। इसका पहला संकेत था सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा गणतंत्र दिवस विज्ञापन में भारतीय संविधान की प्रस्तावना में से ‘‘सैकुलर और सोशलिस्ट’’ शब्द गायब कर दिए गए। सरकार ने दलील दी कि ये शब्द 1976 में संविधान संशोधन के माध्यम से तब प्रस्तावना में घुसेड़े गए थे जब इंदिरा गांधी सत्ता में थीं। ‘‘हो सकता है यह चूक अनजाने में हो गई हो।’’ फिर भी यह दावा या तो सरकारी मशीनरी की नालायकी को प्रतिबिंबित करता है या आर.एस.एस. की इस वैचारिक अवधारणा को सही सिद्ध करने का सोचा-समझा प्रयास था कि ‘‘भारत एक हिन्दू राष्ट्र है।’’

बेशक गैर-हिन्दुत्व शक्तियों ने अपनी नाराजगी व्यक्त की, फिर भी अतिवादी हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों ने सरकारी विज्ञापन में हुई ‘चूक’ का जोर-शोर से लाभ लेना शुरू कर दिया। महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ भाजपा की गठबंधन सहयोगी शिवसेना ने मांग की कि संविधान की प्रस्तावना में से ‘सैकुलर’ और ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को स्थायी तौर पर हटाया जाए।

ऐसी मांगों की वकालत करने वाले  यह भूल जाते हैं कि धर्म आधारित राष्ट्र बन कर इस्लामी पाकिस्तान को कैसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन देखने पड़ रहे हैं। इस देश के एक के बाद एक शासकों ने धार्मिक उग्रपंथी शक्तियों को बढ़ावा दिया जिन्होंने बाद में चुनी हुई संसद के बनाए कानूनों को हटा कर शरिया (मुस्लिम कानून) लागू करने की मांग शुरू कर दी। आई.एस.आई. और सी.आई.ए. ने बाद में इन्हीं लोगों को अफगानिस्तान में सोवियत सेनाओं के विरुद्ध लडऩे के लिए जेहादियों के रूप में प्रशिक्षित किया। वहां से सोवियत सेनाओं के निकल जाने के बाद तालिबान का रूप धारण कर चुके जेहादियों ने अपनी सरकार बनाई।

बाद में पाकिस्तान ने जेहादियों को न केवल कश्मीर को हथियाने बल्कि भारत भर में आतंकी गतिविधियां चलाने के लिए प्रयुक्त करना शुरू कर दिया। बेशक भारत के अंदर वे आतंकी गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं लेकिन कश्मीर को हासिल करने का अपना लक्ष्य साधने में असफल रहे हैं। उलटा उन्हें भारी जानी और वित्तीय कीमत चुकानी पड़ रही है।

तालिबानी भी बाद में एक अनियंत्रित दैत्य का रूप धारण कर गए और पाकिस्तान के अंदर ही मुस्लिमों की हत्याएं करनी शुरू कर दीं। पेशावर के सैन्य स्कूल में 150 लोगों (जिनमें से अधिकतर बच्चे थे) की हत्या उनकी सबसे ताजा जघन्य करतूत है।

पाकिस्तानी शासकों ने अमरीकी व्यवसायी टैक्सास गुईनान सैंचुरी के इस कथन को सत्य सिद्ध कर दिया है कि ‘‘राजनीतिज्ञ ऐसा व्यक्ति होता है जो अपने देश के लिए आपकी जिन्दगी न्यौछावर कर देगा।’’

अब हम लौटते हैं संविधान की प्रस्तावना में से ‘‘सैकुलर एवं सोशलिस्ट’’ शब्दों को हटाने से संबंधित विवाद पर मोदी के स्टैंड की ओर। प्रधानमंत्री ने अब तक विवादित मुद्दों पर मौन साधे रखा है। उन्होंने केवल लोकसभा के चुनावी अभियान दौरान ही टिप्पणियां की थीं जिनका उद्देश्य अल्पसंख्यकों की चिंताओं को दूर करने के लिए यह घोषणा करना था कि सरकार का एकमात्र धर्म ‘इंडिया फस्र्ट’ होना चाहिए और संविधान इसका  ‘एकमात्र पवित्र ग्रंथ’। लेकिन उन्होंने  सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के गणतंत्र दिवस विज्ञापन में संविधान की प्रस्तावना में से ‘सैकुलर’ एवं ‘सोशलिस्ट’ शब्दों को हटाए जाने पर उठे विवाद के संबंध में मौन साधे रखा है।

उक्त परिदृश्य की पृष्ठभूमि में इस बात की कोई संभावना नहीं है कि कट्टर हिन्दुत्ववादी शक्तियां भारत को हिन्दू राष्ट्र के रूप में देखना बंद कर देंगी और सबसे अधिक संभावना यही है कि वे विघटनकारी भूमिका अदा करना जारी रखेंगी। उनमें से कुछ एक ने कहा है कि 800 वर्षों के बाद हिन्दू सरकार सत्ता में आई है।

अपनी आपसी ‘व्यक्तिगत कैमिस्ट्री’ के आधार पर मोदी ने दावा किया है कि ओबामा उनके मित्र हैं। क्या प्रधानमंत्री अपने इस मित्र द्वारा भारत यात्रा के दौरान दी गई नसीहत पर अमल करने की हिम्मत जुटा जाएंगे और विघटनकारी शक्तियों द्वारा भारत के अनेकतावादी चरित्र को लगाए गए घावों को भरने के लिए कदम उठाएंगे?


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