क्या भारत में ''जेन-जैड'' प्रोटैस्ट की तैयारी की जा रही है?

punjabkesari.in Monday, Dec 29, 2025 - 08:08 PM (IST)

पिछले दोदशकों में, सोशल मीडिया ने दुनिया भर में राजनीतिक गतिविधियों की प्रकृति ही बदल दी है। अरव स्प्रिंग के दौरान, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने प्रोटैस्ट्स को मोबिलाइज, ऑर्गेनाइज करने और बढ़ाने में केंद्रीय भूमिका निभाई। हमारे पड़ोसी देशों में प्रोटेस्ट्स, जो शुरू में जनता के गुस्से की एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति लगते थे, जल्द ही यह दिखाने लगे कि कैसे डिजिटल टूल्स का इस्तेमाल नैरेटिव बनाने, भीड़ जुटाने और यहां तक कि सरकारों को गिराने में भी किया जा सकता है।

हाल की क्षेत्रीय घटनाएं इस बारे में गंभीर सवाल उठाती हैं। श्रीलंका में, आर्थिक गिरावट की वजह से बड़ी राजनीतिक उथल-पुथल हुई, जिसमें युवा प्रदर्शनकारियों की भूमिका साफ तौर पर दिखाई दी। बंगलादेश में, स्टूडेंट्स के नेतृत्व वाले आंदोलनों का असर ऐतिहासिक तौर पर सरकारों को गिराने में रहा है। नेपाल में भी, जेन-जी (साल 2000 के बाद पैदा हुई यंग जैनरेशन) के नेतृत्व वाले आंदोलनों ने राजनीतिक बदलाव के साथ-साथ अस्थिरता में भी काफी योगदान दिया है। ये सभी उदाहरण दिखाते हैं कि जब युवाओं को सही तरीके से इकट्ठा किया जाता है तो वे एक बड़ी राजनीतिक ताकत बन सकते हैं-चाहे नतीजे अच्छे हों या बुरे।

इस पृष्ठभूमि में, भारत की स्थिति कुछ अलग दिखती है। आज, मोदी सरकार के तहत भारत राजनीरिक स्थिरता का मजा ले रहा है और दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती इकॉनोमी में से एक है। बड़ेइंफ्रास्ट्रक्कर प्रोजैक्ट्स, डिजिटल चैनलों के जरिए कल्याण योजनाओं और लगातार चुनावी जनादेश ने गवर्नेस में स्थिरता पैदा की है। यह भी देखा गया है कि ऐतिहासिक रूप से मिली-जुली सरकारें बाहरी दबाव और अंदरूनी टूट-फूट के प्रति ज्यादा संवेदनशील होती हैं, जिससे उन्हें अस्थिर करना आसान हो जाता है। इसके उलट, एक मजबूत केंद्र सरकार को अंदरूनी या बाहरी दवाव से हिलाना मुश्किल होता है।

इसीलिए, यह चिता बढ़ रही है कि भारत में युवाओं को जानबूझकर गुमराह करने और अस्थिरता पैदा करने की कोशिश की जा रही है। भारत में एक बड़ी 'जेन-जी' आबादी है, जो डिजिटली जुड़ी हुई है, सामाजिक रूप से जागरूक है और पर्यावरण, प्रदूषण, सामाजिक न्याय और रोजगार जैसे मुद्दों गहराई से जुड़ी हुई है। ये चिताएं निक्षित रूप में सही हैं, लेकिन डर यह है कि इन्हें सोच-समझकर बढ़ा-चढ़ाकर बताया जा सकता है या जानकारी वाली चचां की बजाय गुस्सा पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि नेपाल में हिंसक उथल-पुथल के बाद भारत में विपक्ष के नेता ने भी 'जेन-जी' का जिक्र किया था। ऐसे समय में, जब पड़ोसी देश में युवाओं के आंदोलन उथल-पुथल में थे, ऐसे बयानों से सवाल उठता है कि क्या टकराव को बढ़ाने के लिए राजनीतिक सदेश तैयार किए जा रहे हैं?

कुछ मीडिया हस्तियों के बदलते रुख से यह सोच और पक्की हो जाती है। कुछ टी.वी. एंकर, जो पिछले एक दशक से सरकार के समर्थक रहे हैं, अचानक युवाओं को भड़का रहे हैं। वे वायु प्रदूषण और अरावली रेंज में खनन जैसे संवेदनशील मुद्दे उठा रहे हैं-जो' जेन-जी' के लिए बहुत संवेदनशील हैं। ये मुद्दे गंभीर और जायज हैं लेकिन आलोचकों का कहना है कि इन्हें अक्सर पॉलिसी की समझ की बजाय गुस्से और उत्तेजना के तौर पर पेश किया जाता है।

असली सवाल यह नहीं है कि 'जेन-जी' को विरोध करना चाहिए या नहीं, शांतिपूर्ण विरोध एक लोकतांत्रिक अधिकार है, बल्कि यह है कि क्या इन विरोधों को समाधान की बजाय अस्थिरता पैदा करने के लिए बनावटी तौर पर बढ़ावा दिया जा रहा है? भास्त वायु प्रदूषण, क्लाईमेट चेंज, असमानता, शहरी भीड़‌भाड़ और ग्रामीण विकास जैसी बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है। इन समस्याओं को हल करने के लिए लंबे समय की पॉलिसी, टैक्नोलॉजी, व्यवहार में बदलाव और समय की जरूरत है।

वायु प्रदूषण जैसे मुश्किल मुद्दे रातों-रात हल नहीं हो सकते, न ही उन्हें गुस्से या हिंसा से हल किया जा सकता है। अराजकता और अस्थिरता आखिरकार नागरिकों, खासकर युवाओं को नुकसान पहुंचाती है, जो बेहतर भविष्य की उम्मीद करते हैं। भारत के' जेन-जी' के लिए असली चुनौती सोशल मीडिया और टैलीविजन पर चल रही बातों की गहराई से जांच करना, सोच-समझकर फैसले लेना और अपनी एनर्जी को अच्छे नागरिक रोल में लगाना है। भारत की ताकत हमेशा से यह रही कि वह असहमति को बर्दाश्त करते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखता है। देश के युवाओं को यह पका करना होगा कि वे बनावटी बातों का जरिया बनने की बजाय देश को लंबे समय की तरकी में जानकारी रखने वाले, जिम्मेदार और समझदार सांझीदार बनें। -मनिंदर सिंह गिल


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