आखिर कांग्रेस की राजनीति क्या है!

punjabkesari.in Saturday, Feb 03, 2024 - 05:58 AM (IST)

28 विपक्षी दलों के गठबंधन के सूत्रधार रहे नीतीश कुमार पाला बदल कर भाजपा के एन.डी.ए. में लौट गए, तो जमीन घोटाले में ई.डी. द्वारा हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद चंपई सोरेन को झारखंड का नया मुख्यमंत्री बनाया गया है। दिल्ली में भी ऐसी स्थिति कभी भी आ सकती है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तो पंजाब और हरियाणा में ‘आप’ राज्य की सभी लोकसभा सीटों पर अकेले चुनाव लडऩे का ऐलान कर चुकी हैं। 

वार्ता का इंतजार कर थक चुके अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 11 सीटें देने का एकतरफा ऐलान कर दिया है, लेकिन ‘इंडिया’ में सीट शेयरिंग के मामले में सबसे बड़े घटक दल कांग्रेस की उदासीनता चौंकाने वाली है। कांग्रेस के खेमे से आने वाली खबरें राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा की सफलता अथवा नीतीश को अविश्वसनीय बताते हुए अन्य नेताओं को नसीहत देने तक सीमित हैं। लोकसभा चुनाव से पहले  विपक्ष पर मंडराए संकट से निपटने की कोई पहल कांग्रेस की ओर से नहीं दिखती। सबसे बड़ा घटक होने के अलावा ‘इंडिया’ का नेतृत्व भी कांग्रेस अघोषित रूप से हथिया चुकी है। इसके बावजूद बमुश्किल 3 महीने दूर लोकसभा चुनाव में विपक्षी रणनीति पर उसकी ऐसी निष्क्रियता कई सवाल खड़े करती है। क्या कांग्रेस अभी भी कुछ घटक दलों के प्रति दुविधा की शिकार है या खुद को केंद्र में रख कर किसी चुनावी रणनीति पर काम कर रही है? 

दरअसल 20 साल बीत जाने के बावजूद कांग्रेस 2004 की अपनी चुनावी सफलता को ही ध्यान में रख कर 2024 की रणनीति पर काम करती दिख रही है। तब अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे कद्दावर नेता प्रधानमंत्री थे और ‘शाइनिंग इंडिया’ के नारे के बावजूद, बिना बड़ा विपक्षी गठबंधन बनाए सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया था। चुनाव बाद ही यू.पी.ए. बना था, जिसने केंद्र में सरकार बनाई।

कुछ रणनीतिकारों से बातचीत से भी यह धारणा पुष्ट होती है कि उच्च सत्ता महत्वाकांक्षा वाले क्षेत्रीय दलों के वर्चस्व से निर्देशित गठबंधन राजनीति पर पूरी तरह निर्भर होने के बजाय कांग्रेस आगामी लोकसभा चुनावों के लिए मिश्रित चुनावी रणनीति को न सिर्फ अपने लिए, बल्कि विपक्ष के लिए भी बेहतर मान रही है। बेशक पिछले 2 लोकसभा चुनावों में शर्मनाक प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस समझती है कि इस बार के चुनाव उसके लिए निर्णायक भी साबित हो सकते हैं, लेकिन लंबे राजनीतिक अनुभव के आधार पर उसे लगता है कि सिर्फ गठबंधन के सहारे नरेंद्र मोदी-अमित शाह की चुनाव रणनीति में माहिर जोड़ी और भाजपा के विशाल सक्रिय संगठन को मात नहीं दी जा सकती। 

उसके लिए राज्यवार अलग-अलग रणनीति बनाना बेहतर परिणाम दे सकता है। निश्चय ही नीतीश के पाला बदल से बिहार में ‘इंडिया’ का गणित गड़बड़ा गया है। अब सारी उम्मीदें राजद-कांग्रेस-वाम महागठबंधन को मिल सकने वाली सहानुभूति पर टिकी हैं। जद-(यू) के अलगाव का झारखंड में असर नहीं पड़ेगा, और झामुमो-कांग्रेस-राजद मिल कर चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल का परिदृश्य बिल्कुल अलग है। वहां तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होता रहा है। पिछली बार भी कांग्रेस 2 लोकसभा सीटें ही जीत पाई थी। ऐसे में सत्तारूढ़ तृणमूल का अकेले चुनाव लडऩा ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए झटका भले रहा हो, पर रणनीतिक रूप से फायदेमंद हो सकता है। नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस और वाममोर्चा के कमजोर होते जाने से भाजपा वहां मजबूत हुई है। 

अगर पूरा विपक्ष ममता के साथ एक ही पाले में होगा तो सत्ता विरोधी  वोट भाजपा के साथ गोलबंद हो जाएंगे। फिर तृणमूल कांग्रेस और वाम मोर्चा के मतदाताओं में परस्पर विरोध इतना तीव्र है कि एक-दूसरे की बजाय भाजपा के  लिए मतदान करना बेहतर समझते। अगर कांग्रेस और वाम मोर्चा मिल कर लड़ेंगे तो ममता राज से नाराज मतदाताओं के समक्ष भाजपा के अलावा भी मतदान के लिए एक विकल्प रहेगा। 

केरल का समीकरण और भी जटिल है। वहां की राजनीति 2 ध्रुवीय है। वाम मोर्चा का एल.डी.एफ. सत्ता में है तो कांग्रेस की अगुवाई वाला यू.डी.एफ. पिछली बार लोकसभा चुनाव में परचम लहराने में सफल रहा। अगर ये दोनों गठबंधन मिल कर चुनाव लड़ें तो भाजपा को विपक्ष का मैदान खुला मिल जाएगा, जिसका अभी तक वहां खाता भी नहीं खुल पाया है। ऐसा ही परिदृश्य पंजाब का है, जहां आप सत्तारूढ़ दल है और कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल। इन दोनों में गठबंधन हुआ तो सत्ता विरोधी भावना का सीधा लाभ तीसरे-चौथे नंबर के दल शिरोमणि अकाली दल और भाजपा को मिल जाएगा। इसलिए केरल की तरह पंजाब में भी ‘इंडिया’ के घटक दल अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे। हां, दिल्ली में कांग्रेस और ‘आप’ मिल कर लड़ सकते हैं, क्योंकि वहां भाजपा सभी 7 लोकसभा सीटें जीतती रही है और विधानसभा में भी मुख्य विपक्षी दल है। गुजरात में भी शायद कांग्रेस, आप को एक लोकसभा सीट देने पर राजी हो जाए। दरअसल कांग्रेस को भरोसा है कि चुनाव के बाद भी तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा और आप, भाजपा के साथ तो हरगिज नहीं जाएंगे। 

सबसे जटिल मामला उन राज्यों का है, जहां भाजपा और कांग्रेस में सीधा मुकाबला होता है, पर भाजपा बाजी मार ले जाती है। ये राज्य हैं-राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक और तेलंगाना। इनमें कुछ राज्य ऐसे हैं, जहां ‘आप’ और सपा की दिलचस्पी है। शायद इस वजह से भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सीट बंटवारे में धीमी चल रही है। कांग्रेस के रणनीतिकारों का कहना है कि अगर अखिलेश देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल को सम्मानजनक सीटें नहीं देते तो मायावती की बसपा और जयंत चौधरी के रालोद के साथ मिल कर चुनाव लडऩे का ‘प्लान बी’ भी उसके पास है। 

मायावती अकेले लडऩे का ऐलान कर चुकी हैं, जबकि रालोद को सपा सात सीटें दे चुकी है, पर राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है। नीतीश का पालाबदल इसकी ताजा मिसाल है। दरअसल कांग्रेस अगले लोकसभा चुनाव के लिए तिहरी रणनीति पर काम कर रही है। कुछ राज्यों में गठबंधन कर चुनाव लड़ा जाएगा, कुछ में समझदारी के साथ दोस्ताना मुकाबला होगा, जबकि चुनाव पश्चात नए सिर से गठबंधन की संभावनाएं भी खुली रहेंगी, जिसमें भाजपा विरोधी ममता, केजरीवाल और अखिलेश तो रहेंगे ही कुछ पता नहीं कि सत्ता की संभावनाएं बनने पर नीतीश भी फिर पलटी मार जाएं।-राज कुमार सिंह


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