सत्ता भोग रहे लोगों पर ‘जवाबदेही’ तय हो

punjabkesari.in Saturday, Dec 07, 2019 - 01:53 AM (IST)

अच्छे प्रशासन का सबसे गंभीर क्षेत्र सूचना का प्रवाह तथा अच्छी सूचना देना है। हालांकि नागरिकों के लिए सूचना का अधिकार संविधान में संजोया नहीं गया था, सूचना का अधिकार एक्ट 2005 प्रशासन में जवाबदेही तथा पारर्दशिता लाने के लिए एक जरूरी साधन है।

नरेन्द्र मोदी के शासन के अंतर्गत सुस्ती वाली अर्थव्यवस्था पर नजर दौड़ाते हुए यह मालूम पड़ता है कि यह बेहद दयनीय है कि ज्यादातर राजनेताओं (विशेष तौर पर सत्ताधारी श्रेणी) के पास राष्ट्रीय आर्थिक लक्ष्यों की समझ नहीं है। जहां तक नौकरशाहों का सवाल है वे सुरक्षित रहना पसंद करते हैं या फिर यथास्थिति को बनाने के प्रति झुके हुए हैं। नौकरशाही का ज्यादातर राजनीतिकरण हुआ है। इसी कारण इसकी भूमिका पक्षपातपूर्ण है। एक बार सरकारी नौकर अवांछनीय राजनेता  के चंगुल में फंसता है तब वह आलोचना की चपेट में आ जाता है। ऐसे निर्लज्ज व्यक्ति के कारण अच्छे प्रशासन को भुगतना पड़ता है। 

यहां पर किसी को कानून का डर ही नहीं
सत्ताधारी मंडली के पीछे कौन क्या कर रहा है, इसके बारे में सूचना मिलनी जरूरी है। एक औसतन नागरिक को शायद यह आइडिया नहीं होता कि किसके पीछे कौन है। आज के प्रशासन की दिक्कत यह है कि यहां पर किसी को कानून का डर ही नहीं। जो लोग पी.एम. मोदी के राजनीतिक मतभेद की सही दिशा पर हैं वही बचे हुए हैं। भद्र पुरुष कभी भी सत्ताधारी गुट की प्रक्रिया के बारे में सवाल नहीं उठाता। हमें अच्छे प्रशासन तथा लोगों के सूचना के अधिकार के बीच के बहाव को बदलना है और यही लोकतंत्र की भावना को मजबूती प्रदान कर सकेगा। 

हालांकि नागरिकों की शक्ति को 2005 के आर.टी.आई. एक्ट से बड़ा बल मिला। एक साधारण नागरिक भी अपने आपको सशक्त महसूस करता है। वह भ्रष्टाचार तथा भ्रष्ट लोगों पर अपनी पकड़ बनाने के बारे में सोचता है। कुछ संशोधनों के बारे में आर.टी. आई. एक्ट के कुछ प्रावधानों को काटा गया है। आर.टी.आई. एक्ट  में जुलाई 2019 को लाए गए संशोधनों के माध्यम से केन्द्र तथा राज्यों में सूचना आयुक्तों तथा उनके प्रमुखों के कार्यालय के महत्व को कम करके नियम बनाए गए। उनके कार्यकाल को 5 साल से 3 साल कर दिया गया।

केन्द्र तथा राज्यों में मुख्य सूचना आयुक्त तथा सूचना आयुक्त के वेतन में भी कटौती की गई। उनका मंतव्य स्पष्ट तौर पर एक्ट को कमजोर करना है तथा इसके साथ-साथ नागरिक की शक्तियों को कमजोर करना भी है। केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह का कहना है कि आर.टी.आई. आवेदनों  की जरूरत को कम करने के लिए सरकार लोगों की जागीर में ज्यादा से ज्यादा सूचना उपलब्ध करवाने की मंशा रखती है। सवाल यह पैदा होता है कि ऐसा क्यों? हम जानते हैं कि सरकार अपने आपको गुप्त तरीके से चलाती है। वह कभी भी नागरिकों से किसी भी खास मुद्दे से संबंधित निर्णय लेने की प्रक्रिया को बांटना नहीं चाहती। 

एक खुशी वाले घटनाक्रम में भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को आर.टी.आई. एक्ट के अधीन लाया गया है। 13 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय आर.टी.आई. एक्ट के अंतर्गत एक ‘पब्लिक अथॉरिटी’ है। 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने दिल्ली हाईकोर्ट की 2010 की रूलिंग को कायम रखा तथा सर्वोच्च न्यायालय के महासचिव तथा सैंट्रल पब्लिक इन्फर्मेशन ऑफिसर्ज की तीन याचिकाओं को खारिज कर दिया। 

भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय एक पब्लिक अथारिटी
ऐसा कहा जाता है कि 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती अपनी याचिका से ही दे दी। यह व्यवस्था देते हुए कि भारत के मुख्य न्यायाधीश  का कार्यालय एक पब्लिक अथारिटी है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर.टी.आई. एक्ट का जांच के एक साधन के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और यह भी कहा कि पारदर्शिता से निपटने के दौरान न्यायिक स्वतंत्रता को भी ध्यान में रखना होगा। हालांकि आर.टी.आई. परिधि से बाहर है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सी.बी.आई. का मामला अभी पड़ा हुआ है। मेरा मुख्य सवाल विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थान की ‘पब्लिक अथारिटी’ के बारे में है। इन्हें आर.टी.आई. एक्ट के नैटवर्क के अंतर्गत लाना होगा। 

जानने के अधिकार के बारे में नागरिकों की जिज्ञासा को देखते हुए मुझे जस्टिस रंजन गोगोई के 17 नवम्बर पर सेवानिवृत्ति से पहले उनके अवलोकन को देखना होगा। उन्होंने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी स्वतंत्र बोलने के अधिकार से परे है। ऐसी स्वतंत्रताओं की सीमाओं को धकेलते हुए पीठ को यह अपेक्षित है कि जजों को अपनी स्वतंत्रता को अभिव्यक्त करने के दौरान चुप्पी साधनी चाहिए। उन्होंने आगे यह भी कहा कि इसका मतलब यह नहीं कि जज बोलते नहीं। वह बोले मगर क्रियाशील जरूरतों के अनुरूप और इससे ज्यादा नहीं। गोगोई ने यह भी घोषणा की कि कड़वी सच्चाई को याद में ही रहना चाहिए। जस्टिस रंजन गोगोई की यह टिप्पणी पेचीदा है। यदि कड़वी सच्चाई पहले या बाद में जज की याद्दाश्त से बाहर नहीं आती तब हम न्यायतंत्र के पारदर्शिता वाले कामकाज में फासले को कैसे भरेंगे? 

जजों के अच्छे इरादों के बावजूद उनको अपने दिमाग में हमारे संस्थानों की न्यायिक तथा गैर न्यायिक शक्तियों की पारदर्शिता तथा जवाबदेही की इच्छा को रखना होगा। हम जानते हैं कि क्या गलत है और कहां गलत है? यह सच है कि हम एक सूचना विज्ञान समाज की ओर अग्रसर हैं और अभी भी यह सच्चाई है कि सही सूचना  नियंत्रित है और लोगों के हितों के अनुरूप इसे ढाल दिया जाता है। इससे अंत में झूठी खबर फैलाया जाना ही मुख्य मंतव्य होता है। यह वास्तविकता है कि लोग सही सूचना नहीं जुटा पाते और न ही उनके पास अपेक्षित जागरूकता होती है। 

वास्तव में शक्ति का ज्यादातर इस्तेमाल उन लोगों के अपराधीकरण के लिए किया जाता है जो आमतौर पर शक्तिविहीन होते हैं। हमें पारदर्शिता, जवाबदेही के क्षेत्र को और सशक्त बनाने की ओर देखना होगा। मेरा मानना है कि हमें न्याय प्रदान करना होगा। हमें उन लोगों को एक उदाहरण वाली सजा देनी होगी जो अपने फायदे के लिए सिस्टम से खेलते हैं। सत्ता भोग रहे लोगों पर जवाबदेही तय करने के बीच हमें उन पर अंकुश लगाना होगा। प्रशासन को और भी मजबूत बनाना होगा। यह हमारे लिए एक चुनौती की तरह है। इस मंतव्य की पूर्ति के लिए विचारों तथा संचार के साथ-साथ अनुभव बांटने की इच्छा के युद्ध को निरंतर चलना होगा। सूचना का अधिकार बेहद कीमती है।-हरि जयसिंह     
 


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