गठबंधन सरकार ज्यादा जिम्मेदार और उत्तरदायी होती है

punjabkesari.in Sunday, Mar 21, 2021 - 03:23 AM (IST)

एक समय ऐसा था जब एक विचार या विचारधारा एक मजबूत बंधन था जो विभिन्न राज्यों के लोगों को एक साथ लाता था। फिर चाहे वे लोग विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले, विभिन्न धर्मों को मानने वाले, विभिन्न जातियों में पैदा होने वाले या समाज के विभिन्न आर्थिक वर्गों से संबंधित होते थे। 

राजनीतिक पार्टियों की स्थापना एक विचार या एक विचारधारा के आधार पर की गई थी। इसकी मिसाल 1885 में स्थापित हुई भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है। कांग्रेस के संस्थापक व्यक्तियों का मुख्य उद्देश्य शिक्षित भारतीयों के लिए सरकार में अधिक से अधिक हिस्सा प्राप्त करने की थी और उनके तथा ब्रिटिश लोगों के बीच संवाद के लिए एक मंच तैयार करना था। यहां पर स्वतंत्रता हासिल करने के बारे में कोई विचार न था। यह 1919 और 1929 के बाद देर से आया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) ने हालांकि विरोध किया है कि यह एक राजनीतिक पार्टी नहीं है बल्कि यह एक उदाहरण है। विचार जो अपने सदस्यों को बांधता है वह हिंदू राष्ट्र है। 

शुरूआती वर्षों में इसके मायने कुछ भी हो सकते हैं मगर अब यह एक अतिवादी और शैनोफोबिक विचारधारा है जो मुसलमानों, ईसाइयों, दलितों, प्रवासियों को लक्षित करता है। इसके साथ-साथ सूक्ष्म रूप से महिलाओं और गैर-ङ्क्षहदी भाषी लोगों और अन्य पिछड़े वर्गों को निराश करता है। राज्य स्तर पर कई उदाहरण हैं।

द्रमुक की स्थापना क्षेत्रीय गौरव, तमिल प्रेम, स्वाभिमान, अंधविश्वास और जाति विरोधी की गई थी। इसके विपरीत अन्नाद्रमुक का गठन भ्रष्टाचार के खिलाफ धर्म युद्ध से पैदा किया गया था। कोई भी विचारधारा अपरिवर्तित नहीं रही। वर्षों से कांग्रेस ने स्वतंत्रता हासिल करने की कसमें खाईं। इसके अलावा प्रगतिवादियों को समायोजित किया गया। वामपंथ की ओर इसने रुख किया और इसके साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को भी अपनाया। फिर यह केंद्र में स्थानांतरित हुई। 

वहां से इसने एक बाजार अर्थव्यवस्था को उभारा, लोक कल्याण को गले लगाया और अब अपने आर्थिक और सामाजिक विचार को प्रभाषित करने की कोशिश में है। यही बात कांग्रेस को भाजपा से अलग करती है। भाजपा हिंदू राष्ट्रवादी और अधिक पूंजीवादी बन गई है। कम्युनिस्ट पार्टियों ने बहुदलीय लोकतंत्र को स्वीकार किया है। क्षेत्रीय दलों ने भी अपनी नीतियों और पदों को नियंत्रित किया है। उदाहरण के लिए अन्नाद्रमुक जो द्रमुक से अलग हो गया था, वह आस्तिक पार्टी है और द्रमुक हाल ही के वर्षों में स्पष्ट रूप से नास्तिकता की ओर चली है। 

मैंने इन पार्टियों और बदलती विचारधाराओं पर विचार किया है। प्रत्येक विचारधारा में विश्वासियों को शामिल किया गया है और उन अविश्वासियों को बाहर किया है जिनके वह तथा समर्थन विश्वासियों की तरह जरूरी है। इसलिए निरंतर परिवर्तन और शामिल करने की जरूरत है।

गैर-विश्वासियों, जिन्होंने अपने आप को अलग पाया, ने राजनीतिक पार्टियों  का गठन किया जो उनकी घृणा और सहानुभूति को दर्शाती है। ऐसी घृणाओं ने कांग्रेस (ओ), कांग्रेस (आर), जनता दल, सपा, राकांपा, बीजद तथा तेलुगूदेशम के गठन का नेतृत्व किया। पृथक राज्य या और ज्यादा स्वायत्तता ने टी.आर.एस. और ए.जे.पी. को प्रेरित किया। फिर भी लोगों के महत्वपूर्ण वर्गों को छोड़ दिया गया था या उन्हें लगा कि उन्हें छोड़ा जा चुका है। इस बात का अनुभव देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियां करती हैं। इनमें मुसलमान तथा दलित शामिल हैं। 

इन वर्गों की सम्प्रदाय और जातिवादी के तौर पर निंदा नहीं की जा सकती जितनी देर तक कि उन्हें मुख्यधारा की राजनीति से बाहर रखा जाता है तब तक वे अपने राजनीतिक दलों की शुरूआत कर लेंगे। यह बहिष्कार भारतीय राजनीति को समझने और गठबंधन की इच्छा के लिए केन्द्रित है। मुझे याद है कि भाजपा ने गुजरात में किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को चुनाव में नहीं उतारा (2017, 182 सीटें जबकि मुस्लिम जनसंख्या 9.65 प्रतिशत।) इसी तरह यू.पी.की मिसाल है (2017, 402 सीटें मुस्लिम जनसंख्या 19.3 प्रतिशत)। 

आखिर दोनों राज्यों के मुसलमानों को क्या करना चाहिए? विभिन्न पार्टियों ने अलग दृष्टिकोण अपनाया। मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, वहीं दलितों के मामले में उन्हें आरक्षित चुनावी क्षेत्रों में उतारा। शुद्ध परिणाम राजनीतिक समावेश से अधिक राजनीतिक बहिष्कार का है। समय के साथ मुसलमानों, दलितों और अन्य बहिष्कृत वर्गों ने अपने हितों की रक्षा और प्रगति के लिए अलग-अलग दलों के गठन की आवश्यकता महसूस की। 1906 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। स्वतंत्र भारत में यहां पर कई मुस्लिम स्थापित पार्टियां हैं जिनमें आई.यू.एम.एल., ए.आई.यू.डी.एफ., आई.एम.आई.एम. तथा अन्य छोटे दल हैं। इसी तरह दलितों ने बसपा तथा लोजपा (बिहार में) और वी.सी. के. (तमिलनाडु) की स्थापना की।  भाजपा ने असम में जिला परिषद चुनावों में ए.आई.यू.डी.एफ. के साथ सहयोग किया। 

कई विशेष दलों को देखते हुए गठबंधन ने अधिक समावेशी राजनीति का रास्ता दिखाया है। मौजूदा चुनावों में मुस्लिम और दलित स्थापित दलों ने असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में गठबंधन के लिए जगह बनाई है। मुझे लगता है कि यह अच्छी बात है। यदि ये पार्टियां अलग होकर चुनाव लड़ती हैं तो उनके लिए विधानसभाओं में प्रवेश करना मुश्किल प्रतीत होता है और इससे वह आंदोलनकारियों के साथ आसपास खड़ी हो सकती है। यह बेहतर है कि वे संसद तथा राज्य विधानसभाओं में प्रवेश करें और देश तथा राज्यों की  प्रशासन में अपनी भागीदारी निभाएं। 

प्रत्येक पार्टी एक गठबंधन के साथ चलना चाहती है। यह निश्चित है कि कुछ राज्यों के चुनावों में एक राजनीतिक पार्टी अपने बल पर बहुमत जीत सकती है। ऐसे मामलों में पार्टी अन्य दलों के वोट भी इकट्ठा करके अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर सकती है। ज्यादातर चुनाव अब गठबंधनों के बीच लड़े जा रहे हैं। असम, केरल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी के चुनावों में 2 बड़े गठबंधन एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं। पश्चिम बंगाल में वहां पर 3 गठबंधन हैं जोकि एक जैसी ताकत के नहीं हैं। मेरा अनुभव कहता है कि एक गठबंधन सरकार ज्यादा जिम्मेदार और अधिक उत्तरदायी होती है। अटल बिहारी वाजपेयी और डा. मनमोहन सिंह की सरकारें गठबंधन की सरकारें थीं। इसलिए चुनावी गठबंधन और गठबंधन सरकार को न नकारें। किसी एक एकल पार्टी निरंकुश सरकार से ज्यादा ऐसी सरकारें बेहतर कारगुजारी करती हैं तथा बेहतर नतीजे देती हैं।-पी. चिदम्बरम


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