‘पीड़िता या अपराधियों’ में से किसके पक्ष में है उत्तर प्रदेश सरकार

punjabkesari.in Sunday, Oct 11, 2020 - 01:09 AM (IST)

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार पर्दों की तरह हिलने लगी,
शर्त थी लेकिन कि यह बुनियाद हिलनी चाहिए। 

दशकों पहले दुष्यंत कुमार ने जब यह कविता लिखी थी तब उन्हें क्या मालूम था कि इसका सत्य आजादी के 73 सालों बाद भी वैसा ही कटु होगा जैसे वह तब था जब उन्होंने इसे लिखा था। हाथरस केस में जातिवाद की बुनियाद तो हिली है परंतु वह पीड़िता को बचाने के लिए नहीं बल्कि संदिग्ध अपराधियों को बचाने के लिए। 22 सितम्बर के बाद ही एक और जघन्य अपराध चार साल की बच्ची से बलात्कार का सामने आया लेकिन इस बार सरकार की पूरी मशीनरी मीडिया या विपक्ष को रिपोॄटग से रोकने के लिए हरकत में नहीं आई। 

हालांकि, सरकार ने अनेक केस दर्ज किए हैं कि हाथरस के मामले के पीछे बाहरी हाथ है जो सरकार की छवि धूमिल करने के लिए इस केस को बढ़ावा दे रहे हैं। आश्चर्य है कि यू.पी. सरकार ने वही पुराना पैंतरा अपनाया है किसी मुश्किल घड़ी में फंसने पर षड्यंत्र के पीछे ‘फॉरेन हैंड’ होने का। ऐसे में सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश की सरकार किसके पक्ष में खड़ी है पीड़िता के या फिर अपराधी के? किसे बचाना चाह रही है? संदिग्ध अपराधियों का आवरण स्वयं क्यों पहन रही है? हो सकता है यदि उत्तर प्रदेश की सरकार अपने से कुछ सवाल पूछे, आत्मनिरीक्षण करे तो वह जान पाएगी कि उसे किस ओर जाना है और किसके साथ उसका सम्मान जुड़ा है! 

रेप के केस में सरकार अपनी अनेक एजैंसियों द्वारा हरकत में आती है जैसे कि पुलिस और अस्पताल के स्टाफ। पीड़िता का बयान यानी एफ.आई.आर. पहले 24 घंटों में लेना अनिवार्य है। यह किसी पुलिस कर्मी की मौजूदगी में लेने की हिदायत है। क्यों न तो पीड़िता की 14 तारीख को मैडीकल जांच की गई, न ही पुलिस द्वारा कोई बयान दर्ज किया गया? भले ही पीड़िता के ट्विटर पर उपलब्ध दो वीडियोज से स्पष्ट है, जहां उसे स्पष्ट रूप से यह कहते हुए सुना जा सकता है कि उसके साथ चार पुरुषों ने बलात्कार किया था और यहां तक कि उनके नाम भी उसने दिए हैं फिर क्यों न तो उन चारों संदिग्ध अपराधियों को गिरफ्तार किया गया, न ही कोई अन्य कार्रवाई उनके विरुद्ध की गई? 

राज्य की नौकरशाही क्यों प्रैस को बयान दे रही है कि यह बलात्कार का नहीं, हत्या का मामला है? कानून के तहत जांच के तथ्य समय से पहले सामने लाना उनकी ड्यूटी का हिस्सा नहीं है। पुलिस को यह तय करने का अधिकार नहीं है कि यह बलात्कार का मामला है या नहीं। वास्तव में, एक डाक्टर भी नहीं कह सकता कि यह एक बलात्कार है या नहीं क्योंकि चिकित्सा और फोरैंसिक सबूत पीड़िता के बयान का समर्थन करने के लिए हैं। यह केवल अदालत ने तय करना है कि यह बलात्कार है या नहीं क्योंकि बलात्कार एक कानूनी शब्द है। अस्पताल द्वारा दी गई रिपोर्ट पीड़िता के बयान को मदद देने के लिए है। वास्तव में पीड़िता का मृत्यु पूर्व का बयान किसी भी साक्ष्य से अधिक  महत्वपूर्ण है-मैडीकल या पुलिस रिपोर्ट से भी। इस मामले में 22 सितम्बर को न्यायिक मैजिस्ट्रेट के सामने  दिया  गया बयान न केवल स्पष्ट है बल्कि पीड़िता पूरे होशो-हवास में थी। ऐसे में क्यों सरकार पुलिस कर्मियों और अपने पार्टी नेताओं को बेबुनियाद बयान देने से रोक नहीं रही है? एक अन्य बड़े सवाल का उत्तर सरकार को अपने ही मैडीकल स्टाफ से लेना होगा कि उन्होंने पीड़िता का शव पुलिस को कैसे दे दिया।  

कानून हमें हमारे शरीर पर स्वायत्तता प्रदान करता है और मरने के उपरांत इस पर हमारे परिवार को अधिकार देता है। यही कारण है कि फांसी के बाद भी एक अपराधी का शरीर उसके परिजनों को दिया जाता है। जबकि यह तो एक पीड़िता थी, तो फिर क्यों अस्पताल ने उसके परिजनों को उसका मृत शरीर न देकर पुलिस को दिया? कानूनी तौर से पोस्टमार्टम के मामले में भी परिवार के सदस्य का उपस्थित होना अनिवार्य है ताकि पोस्टमार्टम के बाद परिवार के सदस्य यह तय कर पाएं कि क्या दूसरे पोस्टमार्टम की आवश्यकता है या नहीं। 

कई मामलों में परिजन दूसरे पोस्टमार्टम का आग्रह करते हैं जिसका नतीजा अक्सर पहले टैस्ट से अलग होता है। ऐसे में पुलिस का परिवार के बिना, उनके रीति-रिवाज के बिना अंतिम संस्कार करना न केवल कानून विरुद्ध बल्कि अमानवीय भी है। सरकार से यह पूछने की जरूरत है कि अस्पताल ने शव को मुर्दाघर में क्यों नहीं रखा व पीड़िता के परिवार को अगली सुबह क्यों नहीं दिया गया? सरकार को यह भी बताना होगा कि क्यों पीड़िता के परिवार को घर में बंद कर मीडिया या ऑपरेशन मैंबर्स से मिलने नहीं दिया गया जबकि उसी दिन कथित अपराधियों को एक बड़ी पंचायत बुलाने की इजाजत दी गई! 

क्या सरकार जानती है कि प्रिवैंशन ऑफ एट्रोसिटीज एक्ट, खंड 4डी किसी भी लोक सेवक को अपने कत्र्तव्यों का पालन नहीं करने पर छह महीने से एक साल तक कारावास के साथ दंडनीय है जिसमें पीड़िता का बयान समय पर न लेना भी शामिल है। साथ ही भारतीय दंड संहिता की धारा 166 के अंतर्गत पीड़िता की अवहेलना करने पर एक वर्ष की अवधि के कारावास के साथ या बिना जुर्माना दंडित किया जा सकता है। तो क्या सरकार अधिकांश नौकरशाही और पुलिस को इन धाराओं के तहत चार्ज करने के लिए आगे बढ़ेगी? शायद अब समय आ गया है कि सरकार यह समझे कि बेटी को बचाने के लिए न केवल उसको पढ़ाना जरूरी है बल्कि राजनीतिज्ञ, लड़कों, पुलिस, अधिकारियों और मैडीकल स्टाफ को पढ़ाना भी अत्यावश्यक है। सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिए।


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