खेतों में ‘पराली जलाने’ से भूमि की उर्वरता तथा इन्सानी सेहत पर पड़ रहा ‘बुरा असर’

punjabkesari.in Wednesday, Dec 09, 2015 - 01:02 AM (IST)

धान और गेहूं की कटाई के बाद किसान खेतों को जल्दी खाली करके दूसरी फसल रोपने के उद्देश्य से खेतों में ही पराली को जला देते हैं। अकेले पंजाब में ही प्रति वर्ष लगभग अढ़ाई करोड़ टन पराली जलाई जाती है। इसके अलावा राजस्थान, हरियाणा व उत्तर प्रदेश, पाकिस्तानी पंजाब तथा दक्षिणी नेपाल के किसानों में भी यह रुझान पाया जाता है।

पराली जलाने से भूमि को क्षति पहुंचती है। इससे उसके आसपास के वातावरण का तापमान बहुत बढ़ जाता है तथा पानी सूख जाने के कारण फसल के लिए पानी की आवश्यकता भी बढ़ जाती है। खेतों में मौजूद भूमिगत ‘कृषि मित्र कीट’ तथा अन्य सूक्ष्म मित्र जीव आग की तपिश से मर जाते हैं और शत्रु कीटों का प्रकोप बढ़ जाने के कारण फसलों को तरह-तरह की बीमारियां घेर लेती हैं। इसके परिणामस्वरूप भूमि की उर्वरता कम हो जाती है तथा झाड़ घट जाता  है। 

अमरीका की कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने भी एक अध्ययन के बाद कहा था कि ‘‘भारत में वायु प्रदूषण के चलते अन्न का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है और यदि भारत वायु प्रदूषण का शिकार न हो तो इसका अन्न उत्पादन वर्तमान से 50 प्रतिशत अधिक हो सकता है।’’ एक टन पराली जलाने पर हवा में 3 किलो कार्बन कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड, 1500 किलो कार्बन डाईऑक्साइड, 200 किलो राख और 2 किलो सल्फर डाईआक्सॉइड फैलते हैं। इससे वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और मिथेन गैसों की मात्रा बहुत बढ़ जाती है। स्वास्थ्य के लिए यह धुआं अत्यंत हानिकारक है। इससे वातावरण बुरी तरह प्रदूषित होता है तथा लोगों की त्वचा व सांस संबंधी तकलीफें बढ़ जाती हैं।

विषैले धुएं के कारण वायुमंडल में चारों ओर गहरा धुंधलका छा जाता है और दृश्यता कम हो जाने के कारण बड़ी संख्या में वाहन दुर्घटनाओं के अलावा  कई बार किसान और उनके परिजन अपनी ही लगाई पराली की आग की लपेट में आ कर मौत के मुंह में चले जाते या घायल हो जाते हैं। इस समय दिल्ली तथा देश के अनेक भागों में फैली धुंध उत्तर एवं उत्तर पश्चिम भारत में कृषि अपशिष्टï (एग्रीकल्चरल वेस्ट) को खेतों में जलाने का ही परिणाम है।

स्वीडिश मौसम विज्ञानी ‘स्वांते बोदिन’ ने पैरिस में जलवायु सम्मेलन के अवसर पर एक पत्रकार से साक्षात्कार में कहा कि ‘‘पिछले 10-15 वर्षों के दौरान कृषि अपशिष्टï पदार्थों को जलाने के रुझान में अत्यधिक वृद्धि हुई है। हिमालय क्षेत्र के तापमान में वृद्धि के परिणामस्वरूप ग्लेशियरों के पिघलने से इसका किसी सीमा तक निश्चित रूप से संबंध है।’’

श्री बोदिन के अनुसार अगली फसल के लिए खेत को खाली करने की किसानों की जल्दबाजी तो ठीक है परन्तु इसका यही सबसे तेज तरीका नहीं है। अत: इसके लिए यदि वे अन्य वैकल्पिक तरीके अपनाएं तो अधिक लाभ प्राप्त कर सकते है। मिसाल के तौर पर वे सीधी बिजाई (डायरैक्ट सीडिंग) का तरीका अपना सकते हैं। इसमें पिछली फसल की खड़ी पराली के बीच ही अगली फसल रोप दी जाती है और सूखी हुई खड़ी फसल धीरे-धीरे खाद में बदल जाती है। पराली को जला कर नुक्सान उठाने की बजाय यह एक ऐसी दौलत है जिसे ‘डीकम्पोज’ करके बेहतरीन खाद बनाई जा सकती है। पराली गल कर भूमि के जैविक और उर्वरक तत्वों में वृद्धि करती है।  

अत: आवश्यकता अब इस बात की है कि न सिर्फ किसानों को पराली जलाने की बजाय इसके लाभदायक इस्तेमाल के बारे में जागरूक किया जाए बल्कि इसे खेतों में ही जलाने पर प्रतिबंध लगाया जाए और इसका उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई की जाए ताकि दूसरे किसानों तक संदेश पहुंचे और वे ऐसा करने से संकोच करें। ऐसा करके पर्यावरण प्रदूषण से बचाव के साथ-साथ फसल के झाड़ में कमी, धुंध के कारण होने वाली दुर्घटनाओं और आसपास के खेतों में खड़ी फसल को आग लगने के खतरे के अलावा ग्लेशियरों के पिघलने के खतरे को भी किसी सीमा तक रोका जा सकेगा।    

                                                                                                                                                                                                                                 —विजय कुमार

 

                                                                                                                                                                                     


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News