बीजिंग पर नकेल कसने के लिए भारत-वियतनाम सम्बन्धों में मजबूती जरूरी

punjabkesari.in Sunday, Mar 04, 2018 - 10:34 PM (IST)

गत कुछ सप्ताहों के दौरान विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्ष भारत की यात्रा पर आए। ईरान के राष्ट्रपति से शुरू होकर, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो, जोर्डन के राजा तथा 2 से 4 मार्च तक वियतनाम के राष्ट्रपति भारत यात्रा पर थे।

वियतनाम तथा भारत तीसरी सदी से ही परस्पर व्यापार कर रहे हैं। एक वक्त तो भारत ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए वहां दूत भेजे जो आज उनका राष्ट्रीय धर्म है। इसके बावजूद, समय-समय पर वियतनाम ने भारत की दक्षिण-पूर्व एशियाई नीति से हाथ खींचे हैं। भारत ने 1992 में अपनी इस नीति को पुनर्जीवित किया और अब ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ के अंतर्गत वियतनाम के साथ हमारा देश कई परियोजनाओं पर सक्रिय है।

वियतनाम ने गत मई में चीन की ‘वन बैल्ट एंड रोड फोरम’ में हिस्सा लिया था परंतु हमेशा की तरह वह चीन की रणनीतिक नीयत को लेकर ङ्क्षचतित है। इसकी प्रमुख चिंता दक्षिण चीन सागर में बढ़ता चीन का प्रभाव है और इसका दावा है कि यहां इलाके के सभी देशों का समान अधिकार है।

बीजिंग ने भारतीय स्वामित्व वाली ‘ओ.एन.जी.सी. विदेश लिमिटेड’ द्वारा दक्षिण चीन सागर में की जा रही तेल व गैस की खोज का विरोध किया है। दक्षिण चीन सागर पर भारत का कोई दावा नहीं है परंतु इलाके से गुजरने वाले परिवहन मार्ग दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भारत के व्यापार के लिए महत्वपूर्ण हैं। वियतनाम की दूसरी ङ्क्षचता चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर के विवादित इलाके में बनाए जा रहे कृत्रिम टापुओं को लेकर है। इसके अलावा इलाके में चीन सुरंग बनाने के साथ-साथ राडार तथा मिसाइलें भी तैनात कर रहा है।

चीन पर दबाव बनाने के लिए वियतनाम दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के नेताओं की वाॢषक बैठक जैसे कि रीजनल फोरम्स से मदद लेने तथा उनका प्रयोग करने में पूर्णत: विफल रहा है। ऐसे में वियतनाम भारत तथा अमेरिका के साथ अपने संबंधों को नई दिशा देने के लिए प्रयासरत है। अमेरिका ने धन तथा हथियारों की मदद देने का प्रस्ताव दिया है परंतु चूंकि अमेरिका की उपस्थिति इलाके में नहीं है, इसलिए सागर में सम्प्रभुता के अलावा उसका कुछ ज्यादा दाव पर नहीं लगा है।

इसीलिए चीन की विरोधी ताकत के रूप में वियतनाम ने भारत का रुख किया है और वह दोनों देशों के बीच अधिक मानवीय सम्पर्क के अलावा धार्मिक संबंध भी मजबूत करना चाहता है क्योंकि वियतनाम पूर्णत: बौद्ध राष्ट्र है। शायद इसीलिए अपनी यात्रा के दौरान राष्ट्रपति सान दाई कुआंग बोधगया भी गए। दूसरी ओर वियतनाम भारत से ब्रह्मोस मिसाइल खरीदने का भी इच्छुक है।

वियतनाम के साथ भारत ने तीन संधियां की हैं जिनमें से एक परमाणु सहयोग पर है और रक्षा, तेल, गैस एवं कृषि जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपने संबंध प्रगाढ़ करने की भी दोनों में सहमति बनी है। चीन के साथ भारत की एक लम्बी सीमा है तो दक्षिण चीन सागर के साथ वियतनाम की 2 हजार किलोमीटर लम्बी तटरेखा है।

यह भी आवश्यक है कि भारत के पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, श्रीलंका तथा हाल में मालदीव आदि देशों पर अपना प्रभाव बढ़ा रहे बीजिंग पर दिल्ली नकेल कसे। भारत इसका जवाब वियतनाम के साथ संबंध मजबूत करके अच्छी तरह दे सकता है।

भारत सरकार आदेश जारी कर रही है कि कोई भी सरकारी अधिकारी अथवा मंत्री दलाई लामा के निर्वासन के 60 वर्ष संबंधी समारोहों का हिस्सा न बने क्योंकि दलाई लामा के मामले को लेकर इस वक्त चीन बेहद संवेदनशील है और डोकलाम का मुद्दा भी अभी खत्म नहीं हुआ है। इन परिस्थितियों में बेहतर यही होगा कि वियतनाम के साथ अपने संबंधों को भारत फिलहाल एकदम से चीन के मुंह पर तमाचे के रूप में पेश न करे।

चीन के खिलाफ भारत मजबूती से खड़ा रहा है परंतु अब वक्त है कि चीन के साथ विवादित मुद्दों पर समझौतों की सम्भावनाएं तलाश की जाएं। वैसे भी अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया से मिल रहे सहयोग के बीच वियतनाम बेहतर स्थिति में है जबकि भारत को बेहद सतर्कता से कदम उठाने की जरूरत है।


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