डोनाल्ड ट्रम्प की कथनी और करनी में अंतर भारत के लिए सबक
punjabkesari.in Monday, Feb 24, 2025 - 05:24 AM (IST)
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जब से डोनाल्ड ट्रम्प ने दूसरी बार अमरीका के राष्ट्रपति का पद संभाला है, जो कुछ वह कह और कर रहे हैं, उसके दृष्टिगत उनकी कथनी और करनी पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि वह कहेंगे क्या और करेंगे क्या। पहले महीने डोनाल्ड ट्रम्प ने यह कहा कि उन्हें पूरा ग्रीनलैंड चाहिए, इसके बाद उन्होंने पनामा नहर क्षेत्र पर फिर से कब्जा करने और गाजा पट्टी पर कब्जा करके उसकी आबादी बाहर निकालने और वहां रिसोर्ट बनाने की बात कही। फिर उन्होंने बयान दिया कि वह यूक्रेन में युद्ध तो बंद करवा देंगे परंतु उसके बदले में यूक्रेन की सरकार को उन्हें वहां का खनिज पदार्थों से समृद्ध इलाका देना होगा। इससे पहले ट्रम्प ने कनाडा पर टैरिफ लगाने तथा उसे अमरीका का 51वां राज्य बनाने की बात कही थी। ट्रम्प द्वारा अपने करीबी सहयोगियों पर महंगे टैरिफ लगाने की बार-बार धमकी देना या अन्य मुद्दों पर रियायतें देने के लिए धमकाना कोई दोस्ताना व्यवहार नहीं है।
दूसरा, ट्रम्प ने तो इस तथ्य को भी नहीं छिपाया कि वह अपने सहयोगियों की कुछ सम्पत्तियां हासिल करने पर नजरें गड़ाए हुए हैं। ट्रम्प को रूस द्वारा यूक्रेन के 20 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा कर लेने में कोई परेशानी नहीं है। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा रूस के साथ युद्ध करने के लिए यूक्रेन को दोषी ठहराए जाने से पहले उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस ने म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में अपना टकरावपूर्ण भाषण दिया था और इससे पहले अमरीकी अधिकारी यूक्रेन पर वार्ता शुरू होने से पहले ही रूस को लगभग वह सब कुछ देने की पेशकश कर रहे थे जो वह चाहता था। मुख्य धारा के यूरोपीय प्रेक्षकों की प्रतिक्रिया को ‘फाइनांशियल टाइम्स’ में गिदोन राचमन द्वारा बड़े करीने से संक्षेप में प्रस्तुत किया गया था, ‘‘अभी के लिए अमरीका भी प्रतिद्वंद्वी है।’’
जे.डी. वेंस द्वारा की गई यह घोषणा इस महाद्वीप की राजनीतिक व्यवस्था पर एक खुले हमले के रूप में देखी जा रही है कि यूरोप के लिए मुख्य चुनौती अंदर से खतरा है। यही नहीं, ट्रम्प के बड़े मददगार एलन मस्क विभिन्न यूरोपीय नेताओं पर झूठे और घृणित आरोप लगा रहे हैं।
ये सभी अमरीका के पुराने मित्र देश हैं, जो प्रथम और द्वितीय विश्व युद्धों के दौरान अमरीका के साथ रहे। कनाडा तो शुरू से ही अमरीका की हर नीति में उसका साथ देता आया है परंतु ट्रम्प ने उसे भी झटका दे दिया। राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार डोनाल्ड ट्रम्प और उनकी सरकार द्वारा लिए गए कुछ फैसले दुनिया के प्रमुख लोकतंत्रों के साथ लम्बे समय से चले आ रहे सौहार्द और सद्भावना को बर्बाद कर सकते हैं। ट्रांसाटलांटिक सांझीदारी में पहले भी कई मौकों पर गंभीर दरारें आई थीं। 1956 में स्वेज को लेकर, 1960 के दशक में परमाणु रणनीति और वियतनाम को लेकर, 1980 के दशक में यूरोमिसाइल मुद्दे को लेकर और 1999 में कोसोवो युद्ध के दौरान।
अमरीका ने कई मौकों पर एकतरफा कार्रवाई करने से भी संकोच नहीं किया है तब भी जब उसके सहयोगियों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। जैसा कि रिचर्ड निक्सन ने किया था जब उन्होंने 1971 में संयुक्त राज्य अमरीका को स्वर्ण मानक से हटा दिया था या जैसा कि पूर्व राष्ट्रपति जो बाइडेन ने किया था जब उन्होंने संरक्षणवादी मुद्रा स्फीति कटौती अधिनियम पर हस्ताक्षर किए थे और अमरीका ने यूरोपीय कम्पनियों को चीन को कुछ उच्च तकनीकी निर्यात रोकने के लिए मजबूर किया था लेकिन कुछ यूरोपीय या कनाडाई लोगों का मानना था कि अमरीका जानबूझ कर उन्हें नुकसान पहुंचाने की कोशिश नहीं कर रहा था। अधिकांश यूरोपीय देशों को अब लग रहा है कि ट्रम्प न केवल उन्हें खारिज कर रहे हैं बल्कि नाटो के प्रति भी उदासीन हैं तथा उनका रवैया अधिकांश यूरोपीय देशों के प्रति शत्रुतापूर्ण है। यूरोप के देशों की बजाय अब ट्रम्प रूस के राष्ट्रपति पुतिन को एक बेहतर दीर्घकालिक दांव के रूप में देखने लगे हैं। विश्व की नियम पुस्तिका को दोबारा लिखना और यदि संभव हो तो ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) के अनुसार यूरोप को बदलना होगा। यह एजैंडा यूरोपीय व्यवस्था के लिए खुले तौर पर शत्रुतापूर्ण है।
हालांकि ट्रम्प जिस नीति की बात कर रहे हैं वह पाश्चात्य जगत में युद्धरत अफ्रीका तथा एशिया को लेकर चलती आई है, परंतु यूरोप और अमरीका के बीच इस तरह की नीति नहीं चलती थी और इतने खुलेआम नहीं चलती थी कि हम तुम्हारा फैसला करवाएंगे लेकिन तुम इसके बदले में हमें अपनी अमुक खान दे दो। अब जबकि यह सब कुछ शुरू हो गया है तो भारत के लिए इसमें सबक यह है कि हम अपनी पहले वाली गुट निरपेक्षता की नीति को मजबूत करने के लिए काम करें और उसी पर चलें। हमें अपना हित देखते हुए अपना आधार पक्का करना है, जो हर देश करता है।