अपने ही बुने जाल में फंसता जा रहा पाकिस्तान
punjabkesari.in Monday, Nov 10, 2025 - 05:21 AM (IST)
पाकिस्तान के शासक इन दिनों स्वयं को एक उभरती हुई कूटनीतिक शक्ति के रूप में पेश करने में व्यस्त हैं। अमरीका के साथ रिश्तों में अप्रत्याशित सुधार, सऊदी अरब के साथ रक्षा समझौता और खाड़ी देशों के साथ गहराते संबंधों ने देश की विदेश नीति को मजबूती दी है। इस्लामाबाद में हाल ही में तुर्की के साथ ‘मैत्री सप्ताह’ का भव्य आयोजन किया गया। चीन, ईरान और रूस जैसे देशों से सहयोग भी इस्लामाबाद के लिए संतोष का विषय बन गया है। परंतु इस वैश्विक उपलब्धि और आत्मविश्वास के पीछे एक कठोर सच्चाई छिपी है और वह यह कि पाकिस्तान घरेलू मोर्चे पर गंभीर संकट से गुजर रहा है।
पाकिस्तान में इस वर्ष अब तक 373 आतंकवादी घटनाएं दर्ज की गई हैं जिनमें से अधिकांश के पीछे ‘तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान’(टी.टी.पी.) का हाथ बताया गया है। यह वही संगठन है जिसने पिछले दो दशकों से पाकिस्तान के लिए सबसे बड़ी सुरक्षा चुनौती खड़ी की है।
तालिबान के प्रति पाकिस्तान की नीति भी अब उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन गई है। जब 2021 में अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी हुई थी तो पाकिस्तान ने इसे अपनी कूटनीतिक विजय बताया था। उसे उम्मीद थी कि काबुल की नई सरकार उसके हितों की रक्षा करेगी और टी.टी.पी. को नियंत्रित करेगी। लेकिन यह उम्मीद अब पूरी तरह धराशायी हो चुकी है।
तालिबान और टी.टी.पी. के बीच गहरे वैचारिक और पारिवारिक संबंध हैं जिसके चलते अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने पाकिस्तान की चिंताओं की बार-बार उपेक्षा की है। पाकिस्तान ने कई बार अफगान तालिबान से बातचीत की कोशिश की है जिनमें हाल के सप्ताहों में तुर्की में हुई बैठक भी शामिल है, परंतु राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अफगानिस्तान का तालिबान शासन टी.टी.पी. पर कभी कठोर कार्रवाई नहीं करेगा। यह स्थिति पाकिस्तान के लिए अत्यंत चिंताजनक है क्योंकि सीमा पार से आने वाले आतंकवादी अब पहले से ज्यादा सक्रिय और साहसी हो चुके हैं।
इन परिस्थितियों में पाकिस्तान के सामने अब एक मुश्किल विकल्प खड़ा है। उसे यह तय करना है कि क्या वह अफगानिस्तान में टी.टी.पी. के ठिकानों पर आगे भी सैन्य हमले जारी रखे या संयम बरते और देश के भीतर बढ़ते आतंकी हमलों का सामना करे। हाल ही में किए गए हवाई हमलों ने पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संबंधों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। यह तनाव 2021 में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद दोनों देशों के बीच सबसे अधिक हिंसक टकराव के रूप में देखा जा रहा है। इसके साथ ही पाकिस्तान की घरेलू राजनीतिक स्थिति भी किसी विस्फोटक मोड़ पर है। सेना और सरकार के बीच अविश्वास, विपक्षी दलों के भीतर आपसी कलह और आर्थिक संकट ने देश की आंतरिक स्थिरता को कमजोर कर दिया है। विदेशी निवेशक असुरक्षा और राजनीतिक अस्थिरता के कारण पाकिस्तान में निवेश करने से हिचकिचा रहे हैं। देश की आम जनता पहले से ही महंगाई, बेरोजगारी और ऊर्जा संकट से परेशान है। आतंकवादी घटनाओं की बढ़ती संख्या ने नागरिकों को भय और असुरक्षा में धकेल दिया है।
अशांत खैबर पख्तूनख्वा, बलूचिस्तान तथा पी.ओ.के. (पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर) में विद्रोह के तीखे स्वर सुनाई दे रहे हैं। पी.ओ.के.के लोगों में उनके संसाधनों का लाभ राज्य के लोगों तक पहुंचाने की बजाय देश के दूसरे हिस्सों को पहुंचाने और अनिवार्य जीवनोपयोगी वस्तुओं से वंचित रखने के कारण वहां असंतोष का लावा उबल रहा है और लगभग रोज ही वहां सरकार विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं। इसी प्रकार खैबर पख्तूनख्वा की बाजौर तहसील के विभिन्न गांवों के लोगों ने सड़क पर उतर कर पाकिस्तानी सेना द्वारा आतंकवाद विरोधी अभियान के नाम पर उनके घरों और मस्जिदों पर तोपों सहित भारी हथियारों से हमला करने और गोलियां चलाने के विरुद्ध भारी प्रदर्शन किया।इस तरह के हालात के बीच पाकिस्तान के लिए अब यह जरूरी हो गया है कि वह अपनी विदेश नीति की चमक से ध्यान हटाकर आंतरिक सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करे। उसे एक दीर्घकालिक रणनीति बनानी होगी जिसमें सीमा सुरक्षा, आतंकवाद की फंङ्क्षडग पर रोक और राजनीतिक स्थिरता को केंद्र में रखा जाए।
