उच्च आर्थिक वृद्धि दर हासिल करने के लिए ढांचागत सुधारों की जरूरत

punjabkesari.in Saturday, Sep 30, 2017 - 01:27 AM (IST)

केन्द्रीय बैंक यानी आर.बी.आई. तथा राजनीतिक शासकों द्वारा अर्थव्यवस्था के उच्च स्तरों पर लगातार कई वर्षों तक घटिया प्रबंधन ने भारत को न्यून आर्थिक वृद्धि एवं उच्च मुद्रास्फीति के तात्कालिक खतरे के कगार पर धकेल दिया है जिससे इस पर घरेलू और भू राजनीतिक जोखिमों का खतरा बहुत अधिक बढ़ गया है।

न्यून वृद्धि एवं उच्च मुद्रास्फीति के परिदृश्य की बदौलत वित्तीय एवं चालू खाता घाटा और भी अधिक बढ़ जाएगा, पूंजी का प्रवाह देश से बाहर की ओर शुरू हो जाएगा, मुद्रा कमजोर हो जाएगी तथा निवेशकों का अर्थव्यवस्था पर से भरोसा टूटने लगेगा। अधिकारियों को चाहिए कि वे अर्थपूर्ण ढांचागत सुधारों का कार्य शुरू करें, शीघ्रातिशीघ्र विनिमय दर नीति एवं मुद्रा नीति में ढील दें ताकि इस गिरावट की परिणति बाहरी एवं वित्तीय संकटों के रूप में होने से पहले ही इस पर अंकुश लगाया जा सके। ढीली वित्तीय नीति (यानी सरकार के खर्च में बढ़ौतरी) वर्तमान स्थिति में संभवत: वित्तीय कुप्रभावों को कई गुणा बढ़ा देगी और आर्थिक पतन की गति को तेज कर देगी। यानी कि इसका समूचा प्रभाव गैर उपजाऊ होगा। 

जैसा कि केन्द्रीय आंकड़ा प्राधिकार ने गत 2-3 वर्षों के लिए अनुमान लगाया था, भारत की आर्थिक वृद्धि  के 7 प्रतिशत से नीचे रहने की संभावना है। 7 प्रतिशत की जी.डी.पी. दर ऋण, निवेश, औद्योगिक उत्पादन तथा निर्यात वृद्धि जैसे अन्य प्रमुख सूचकांकों में गत 4 वर्षों से आ रही गिरावट से बेमेल थी। ऐसे में 2017-2018 की दूसरी तिमाही में 5.7 प्रतिशत जी.डी.पी. वृद्धि का सरकारी आंकड़ा बिल्कुल ही आश्चर्यजनक नहीं है। सच्चाई यह है कि 2015 के प्रारंभ में जब जी.डी.पी. संख्याओं की नई शृंखला को अपनाया गया तो उससे पहले पुरानी गणनाविधि के अनुसार वित्तीय वर्ष 2014 के लिए जी.डी.पी. वृद्धि दर का अनुमान 4.7 प्रतिशत था। 

जब नई शृंखला  के माध्यम से  नई कार्य विधि अपनाई गई तो इस दर को बढ़ा कर 6.7 प्रतिशत दिखाया गया जोकि अन्य आर्थिक सूचकांकों के साथ पूरी तरह बेमेल थी। अन्य त्रुटियों के साथ-साथ कारखाना  उत्पादों दौरान होने वाला मूल्य संवद्र्धन लगातार अन्य सूचकांकों से काफी ऊंचा था जो इस बात का संकेत है कि ये आंकड़े कार्पोरेट मामलों के मंत्रालयों द्वारा तैयार किए गए कार्पोरेट वित्तीय डाटाबेस से लिए गए थे। वास्तविकता यह है कि जब वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन अधिक से अधिक समावेशी बनता जा रहा है, वैसी स्थिति में रिलायंस जैसी कुछ बड़ी कम्पनियों तक के मामले में भी वित्तीय हिसाब-किताब के आंकड़ों को मूल्य संवद्र्धन का सही प्रतिङ्क्षबम्ब मानना सही नहीं होगा।

आर्थिक पैदावार तथा वृद्धि मुख्य रूप में उत्पादकता की वृद्धि तथा श्रम एवं पूंजी में होने वाली वृद्धि पर निर्भर करती है। अधिकतर टिप्पणीकार गलतीवश इस पैदावार की बजाय इसके व्यावहारिक प्रयोग यानी कि खपत, निवेश एवं निर्यात पर फोकस बनाने की प्रवृत्ति रखते हैं। वास्तव में उत्पादकता वृद्धि ही आर्थिक विकास की मुख्य चालक शक्ति है और यह ढांचागत सुधारों पर निर्भर करती है। यानी कि इसे बेहतर संस्थानों और सुधरे हुए मानवीय कौशलों की जरूरत होती है। ढांचागत सुधारों का लक्ष्य अर्थव्यवस्था के सम्पूर्ण चौखटे को बदलना होता है ताकि यह अधिक बाजारोन्मुखी बन सके और फलस्वरूप अधिक सक्षम एवं उपजाऊ भी। 

भारत को अनेक क्षेत्रों में सुधारों पर फोकस बनाने की जरूरत है-जैसे कि बाजारों, सिविल सेवाओं, कानूनों तथा टैक्स ढांचे के साथ-साथ वित्तीय क्षेत्र , शिक्षा एवं श्रम का उदारीकरण। बाजार-निर्धारित से भिन्न कोई भी अन्य मूल्य उत्पादन में गिरावट का ही मार्ग प्रशस्त करेगा जिससे जी.डी.पी. घट जाएगी। उच्च आर्थिक वृद्धि तथा रोजगार सृजन का लक्ष्य हासिल करने के लिए अधिकारियों को उन ढांचागत सुधारों पर फोकस बनाने की जरूरत है जो उत्पादकता में वृद्धि करते हों। इससे  देशी और विदेशी प्राइवेट क्षेत्र को भारत में निवेश करने का उत्साह मिलेगा। वर्तमान में भारत में अनेक चीजों की कीमतों पर प्रशासकीय नियंत्रण के साथ-साथ बाजारों पर भी अनगिनत नियंत्रण लागू हैं। यहां तक कि खाद्य पदार्थों, कृषि मूल्यों, पानी, बिजली, दवाइयों, उर्वरकों, बीजों तथा रेलवे इत्यादि तक पर अनेक नियंत्रण लागू हैं। इन सभी नियंत्रणों से मुक्ति की जरूरत है क्योंकि इन्हीं के कारण उत्पादन में कमी आती है और संसाधनों का आबंटन गलत स्थानों पर किया जाता है। 

इसके अलावा प्रत्यक्ष कर ढांचे को  सरल और पारदर्शी बनाए जाने की जरूरत है। इसके साथ ही पिछली तारीखों से टैक्स लागू करने की नीतियों को समाप्त किया जाना चाहिए। पब्लिक सैक्टर के बैंकों का पुन: पूंजीकरण करने की जरूरत है और इनमें से कुछेक का निजीकरण भी किया जाना चाहिए।  शिक्षा प्रणाली को भी देशी या विदेशी निवेशकों के लिए स्कूल और उच्च शिक्षा के स्तर पर खोला जाना चाहिए क्योंकि यह क्षेत्र काफी मुनाफा कमाने वाला है इसलिए इसमें निवेश को आकर्षित करने की बहुत संभावनाएं हैं। ब्याज दरें काफी ऊंची होने के साथ-साथ इन पर मुद्रानीति का बहुत कड़ा नियंत्रण है। विनिमय दरें भी बहुत ऊंची रखी गई हैं। ये निर्णय विवेकशील नहीं हैं और अर्थव्यवस्था को आघात पहुंचा रहे हैं। 

रिजर्व बैंक पता नहीं क्यों भारतीय करंसी का कृत्रिम तौर पर ऊंचा मूल्य बनाए रखने के लिए विदेशी विनिमय बाजारों के हस्तक्षेप को प्रोत्साहित करने पर अड़ा हुआ है, जबकि इस नीति से ग्लोबल वित्तीय बाजारों में होने वाले उतार-चढ़ाव के प्रति भारत की संवेदनशीलता बढ़ती जा रही है। भारतीय करंसी के अधिमूल्यन तथा उच्च ब्याज दरों की आर.बी.आई. की नीति पहले ही उद्योग जगत को नुक्सान पहुंचा चुकी है क्योंकि यह ऋण वृद्धि के रास्ते में रुकावट बनी हुई है। ऊंची ब्याज दरों वाला ऋण लेना आर्थिक दृष्टि से पायदार नहीं होता। इससे उद्योगों की लागतें बढ़ जाती हैं। उनका माल विदेशी माल की तुलना में महंगा हो जाता है। यही कारण है कि भारतीय खपतकार सस्ते विदेशी माल खरीदने में अधिक  रुचि ले रहे हैं। 

ऐसे में सरकार को युद्ध स्तर पर ढांचागत सुधारों का काम शुरू करना होगा ताकि अर्थव्यवस्था में नए निवेश को प्रोत्साहन मिले और राजस्व की वृद्धि हो। आर.बी.आई. को फौरन ब्याज दरें घटानी चाहिएं। सरकारी खर्च को बढ़ाने वाली विस्तारवादी वित्तीय नीति अंततोगत्वा वित्तीय घाटे में वृद्धि करेगी। इससे मुद्रास्फीति बढ़ेगी और प्रतिस्पर्धात्मकता में कमी आएगी। आॢथक वृद्धि की दर भी बहुत नीचे ही रहेगी। ऐसी स्थिति में पूंजी प्रवाह का रुख अर्थव्यवस्था से बाहर की ओर मुड़ सकता है। यह स्थिति वित्तीय क्षेत्र के लिए संकट का संकेत होगी।     


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News