श्रीकृष्ण के प्रति अपने चैतन्य को जान, पा सकते हैं चिंता अौर तनाव से मुक्ति

punjabkesari.in Thursday, Aug 25, 2016 - 11:02 AM (IST)

प्रेम का अर्थ है, किसी व्यक्ति की उपस्थिति का आनंद लेना और यही आनंद जब किसी समूह के साथ लिया जाए तो वह उत्सव है। प्रेम और उत्सव के तत्व भगवान कृष्ण में साकार हो जाते हैं। देखने में उत्सव और सैलिब्रेशन करीब-करीब समानार्थी लगते हैं, लेकिन दोनों में थोड़ा फर्क है। उत्सव में जो जीवंतता है, वह सैलिब्रेशन में नहीं है। कह सकते हैं कि सैलिब्रेशन परिस्थिति से अधिक संबंधित है और उत्सव व्यक्तियों से। 

 

यह मामूली-सा अंतर ही पूरब और पश्चिम के अंतर को स्पष्ट करता है। उत्सव भारत की परंपरा है और यह हमारी जीवनशैली का हिस्सा है। पूरब की पूरी संस्कृति और खासकर कृष्ण की संस्कृति प्रेम पर, उत्सव पर ही आधारित है जबकि पश्चिम की पूरी संस्कृति का आधार है भोग और सैलिब्रेशन। प्रेम है व्यक्ति की उपस्थिति का आनंद लेना और भोग है परिस्थिति का आनंद लेना। पश्चिमी संस्कृति में व्यक्ति नहीं, आयोजन महत्वपूर्ण है लेकिन हमारे यहां परिस्थिति से ज्यादा महत्वपूर्ण व्यक्ति है। यहां चेतना अधिक महत्वपूर्ण है, वहां पदार्थ की अहमियत ज्यादा है। परिणाम सामने है। तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद पश्चिमी समाज निराश है, हताश है। यह अस्वाभाविक नहीं है। 

 

आदमी जब भी अकेला होता है तो हताश हो ही जाता है और ऐसे आदमी के लिए कृष्ण को स्वीकारने की संभावना अधिकतम है। श्रीकृष्ण में समूह के साथ उत्सव मनाना, रास रचाना तो है ही, कृष्ण अकेलेपन से भी राजी हैं। इसलिए पश्चिमी देशों में कृष्ण की स्वीकृति बढ़ती जा रही है। 

 

इसलिए कृष्ण वैश्विक युगपुरुष हैं। उनकी यह प्रासंगिकता आगे बढ़ती ही जाएगी क्योंकि धर्म के जो दो मूल तत्व हैं-संस्कृति और अध्यात्म, कृष्ण में उन दोनों का समावेश है। कृष्ण को जीना स्थितप्रज्ञ होना है, मौज की जिंदगी जीना है। अगर इस बोध को हम प्राप्त हो सकें, अपने चैतन्य को जान सकें तो चिंता, तनाव, संताप जीवन से अपने आप विदा हो जाते हैं।

 

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