न करें ऐसे काम, आपको ही नहीं पित्तरों को भी भुगतने पड़ेंगे घातक परिणाम

punjabkesari.in Tuesday, May 30, 2017 - 10:15 AM (IST)

देवराज इंद्र ने उशीनर, नरेश शिबि की धर्मनिष्ठा की प्रशंसा स्वर्ग में सुनी और उनके मन में द्वेष जागा। उन्होंने शिबि की परीक्षा लेने का निश्चय किया। इंद्र स्वयं बाज बने और अग्रिदेव को कपोत बनने को प्रस्तुत कर लिया। पूरा कार्यक्रम बनाकर वे पृथ्वी की ओर चले। देवताओं के नरेश तथा सर्वपूज्य अग्रि पक्षी बने किंतु जिसमें पक्षपात है वही तो पक्षी है और देवता धर्म के पक्षपाती हैं। धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने का संकल्प उनके लिए अशोभनीय नहीं है।


महाराज शिबि अपने राजसदन में प्रात:कालीन पूजन समाप्त करके सुखपूर्वक बैठे थे। इतने में एक कबूतर डरा-घबराया बड़े वेग से उड़ता आया और उनकी गोद में बैठकर उनके वस्त्रों में छिप जाने की चेष्टा करने लगा। कबूतर कांप रहा था। महाराज ने उसे स्नेह से कर-स्पर्श दिया, तो वह अपने आप में सिकुड़ कर दुबक गया। इतने में ही एक बाज उड़ता आया और सामने बैठकर स्पष्ट मनुष्य भाषा में बोला, ‘‘यह मेरा आहार है। प्रजापालक को किसी का आहार नहीं छीनना चाहिए। आप इसे मुझे दे दें।’’


महाराज बोले, ‘‘यह मेरी शरण में आया है। शरणागत की रक्षा करना धर्म है। इसका त्याग मैं नहीं कर सकता।’’ 


बाज ने कहा, ‘‘मैं क्षुधातुर हूं और पक्षी मेरा नैसर्गिक भोजन है। आप मेरा आहार छीनकर मुझे मृत्यु के मुख में देने का पाप कर रहे हैं। मैं इतना थक गया हूं कि अब दूसरा शिकार भी नहीं कर सकता। ’’


शिबि ने उत्तर दिया, ‘‘यह आवश्यक नहीं है कि तुम इस पक्षी का ही भोजन करो। तुम्हारे आहार की व्यवस्था की जा सकती है।’’


‘‘आप जानते हैं कि मैं मांसाहारी प्राणी हूं। फल, अन्न, शाक या दूध मेरा भोजन नहीं है। मुझे भोजन देने के लिए किसी प्राणी को आप मरवाएंगे ही और वह भी आपके राज्य का, आपका रक्षणीय प्राणी ही होगा। तब इस कपोत से ही आपको क्यों मोह है? मैं मृत प्राणी का अपवित्र मांस तो खाता नहीं हूं।’’


‘‘किसी अन्य प्राणी का मांस मैं तुम्हें नहीं दूंगा। तुम मेरे मांस से अपनी क्षुधा-तृप्ति कर सकते हो। मैं जीवित हूं और मेरा मांस अपवित्र है यह तुम नहीं मानते होगे।’’


‘‘आपका शरीर सम्पूर्ण प्रजा के लिए आवश्यक है अत: आपका यह निर्णय समझदारी का नहीं है। फिर भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है। आप इस कपोत की तौल के बराबर मांस मुझे दे दें। अधिक का लोभ मैं नहीं करता और इससे कम में मेरा काम नहीं चलेगा।’’


कांटा-तराजू मंगाया गया। कबूतर एक पलड़े पर बैठा। दूसरा कोई महाराज के शरीर पर आघात करने का साहस भला कैसे करता, स्वयं महाराज ने ही तलवार उठाई और अपना बायां हाथ काटकर पलड़े पर रख दिया किंतु आश्चर्य, कबूतर बहुत भारी था। राजा ने क्रमश: दोनों पैर घुटनों तक और फिर कटि से नीचे तक दोनों जांघें काट कर पलड़े पर रख दीं, किंतु कबूतर अब भी भारी ही बना रहा। ‘‘यह सब व्यर्थ है।’’ 


उनका अवशिष्ट धड़ रक्त से लथपथ हो रहा था। उन्होंने एक हाथ से आभूषण तथा वस्त्र, मुकुट आदि उतारे और बोले, ‘‘तुम मेरे पूरे शरीर को यथेच्छ खाकर अपनी क्षुधा मिटा लो।’’


शिबि स्वयं किसी प्रकार लुढ़क कर पलड़े पर चढ़ गए थे। उन धर्मप्राण की तुलना करने-समता करने की शक्ति भी उस छद्म-कपोत में नहीं थी। कपोत का पलड़ा हल्का पड़कर ऊपर उठ गया।


‘‘राजन! आपका कल्याण हो।’’ 


सहसा बाज और कपोत देवराज इंद्र तथा अग्रि के रूप में प्रकट हो गए। राजा शिबि का शरीर स्वस्थ, सर्वांगपूर्ण हो गया। इंद्र ने कहा, ‘‘आपका धर्म महान है!’’


शरणागत वत्सल शिबि के उद्गार इस प्रकार हैं-
‘‘जो कोई भी मनुष्य ब्राह्मणों की अथवा लोकमाता गौ की हत्या करता है और जो शरण में आए हुए दीन प्राणी को त्याग देता है- उसकी रक्षा नहीं करता, इन सबको एक-सा पाप लगता है। जो मनुष्य अपनी शरण में आए हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में सौंप देता है, उसके देश में वर्षा काल में वर्षा नहीं होती, उसके बोए हुए बीज नहीं उगते और कभी संकट के समय वह जब अपनी रक्षा चाहता है तब उसकी रक्षा नहीं होती। उसकी संतान बचपन में ही मर जाती है, उसके पित्तरों को पितृलोक में रहने को स्थान नहीं मिलता और देवता उसके हाथ का हव्य ग्रहण नहीं करते।’’


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