दान करने के लिए धन न हो तो करें ये काम, महादान के भागी बनेंगे आप

punjabkesari.in Saturday, Nov 28, 2015 - 03:09 PM (IST)

एक बार ''अांग्ल'' देश की महारानी अपनी दासियों के साथ सरोवर में स्नान करने गर्इ। उसने अपने वस्त्र तथा अाभूषण एक ऊंचे स्थान पर रख दिए। कुछ देर बाद रानी की दासी ने देखा कि एक पक्षी महारानी का अमूल्य मणिमाणिक्य से बना हार लेकर उड़ चला तो उसने ''हो-हो'' की अावाज की। शोर सुन कर दासियां व रानी शीघ्र ही जल से बाहर निकल अांर्इ, किंतु तब तक पक्षी दूर निकल गया था। यह समाचार जब राजा ने सुना तो उसने अपनी रानी की प्रसन्नता के लिए अपने राज्य के सभी सुनारों को बुलाया अौर अच्छे-अच्छे हार रानी को दिखाने के लिए कहा लेकिन रानी को कोर्इ भी हार पसंद न अाया। उसने निराश होकर कहा,"राजन वह हार मुझे प्राणों से भी अधिक प्यारा प्रतीत होता था यदि वह हार न मिला तो शायद मैं अपने प्राण खो डालूंगी।"

रानी की बात सुनकर राजा ने उसे बहुत समझाया लेकिन रानी न मानी तो चिंतित राजा ने ढिंढोरा पिटवा कर घोषणा कर दी। जो भी व्यक्ति मेरी रानी का हार ढूंढ कर लाएगा, उसे अाधे राज्य का अधिकारी बना दिया जाएगा। इस घोषणा को सुनते ही अाधे राज्य के लोभ से नगर का प्रत्येक व्यक्ति सम्पूर्ण कार्यों को छोड़कर हार ढूंढने के लिए इधर-उधर निकल पड़ा।

इसी बीच उसी नगर में रहने वाला एक लकड़हारा जंगल से लकड़ियों का भार सिर पर रखे चला अा रहा था। एक तालाब के किनारे पर विश्राम करने के लिए भूखा-प्यासा, दीन लकड़़हारा नगर से अाने वाले गंदे नाले के जल से भरे उस तलाब के किनारे एक वृक्ष के नीचे बैठ गया अौर सिर पर बांया हाथ रखे हुए चिंता की मुद्रा में कुछ अनमना सा सोच रहा था। अचानक इसकी नज़र तालाब में चमकते हुए रानी के अमूल्य हार पर पड़ी।

चमचमाती चांदनी की छटा से भूषित निशा में पूर्णिमा के निष्कलकं पूर्ण चन्द्र को देख कर सागर में जैसे तूफान अा गया हो, एेसे ही राजा के अाधे साम्राज्य की कल्पना मात्र से ही लकड़हारे का मानस सागर, हार रुपी चन्द्र को देख कर हिलोरें लेने लगा।

लकड़हारे का शरीर पीसने से लथपथ था। तालाब का जल भी कीचड़, मल तथा कफ, पित्त इत्यादि से दूषित था। वह कुछ भी परवाह न करके अत्यंत हर्ष के साथ कीचड़ में कूद पड़ा। बहुत ढूंढा, बहुत खोजा पर अाश्चर्य हार न मिल सका। भूख-प्यास से पीड़ित, परिश्रम क्लांत, पसीने से अोत-प्रोत रहने पर भी जल में कूद पड़ने के कारण, मलमूत्र से सने शरीर की दुर्गन्ध से युक्त लकड़हारा जब जी तोड़ खोज करने पर भी हार न पा सका तो अधमरा से होकर अाधे राज्य की तृष्णा मन में लिए हुए ही किनारे पर  गिर पड़ा। काफी देर बाद जब होश अाया तो फिर शोक करने लगा," यह क्या भाग्य की विडम्बना है? अवश्य क्षणिक स्वप्र में ही मैं सब कुछ देख रहा था। इस कीचड़ से भरे तलाब में हार कहां संभव हो सकता है लेकिन जल के स्थिर हो जाने पर हार पुन: दिखार्इ देने लगा। उसने अच्छी तरह अांख पोंछ कर देखा, हार ही था तुरंत कूद कर ढूंढने लगा। पर्याप्त खोज के उपरांत भी हार न मिल पाया तो किनारे बैठ कर सोचने लगा हार बिल्कुल सामने दिखार्इ दिया परंतु इतना प्रयास करने पर भी प्राप्त नहीं हो रहा था। मेरे ढूंढने में भ्रम है या देखने में, लकड़हारा इस बात का निर्णय ही न कर पाया। 

उसको इस प्रकार करते देख कर दूर से देखने वाले एक व्यक्ति ने लकड़हारे से इसका कारण पूछा अौर वह भी हार ढूंढने लगा। उन दोंनो को देखकर तीसरा, चौथा, पांचवां इस तरह गंदे तालाब में बहुत से व्यक्ति हार ढूंढने लगे। अरे! ''हार अमुक गंदे तालाब में पड़ा है।'' यह समाचार नगर में बिजली की तरह क्षण भर में फैल गया अौर सारे नगर निवासी मैं पहले, मैं पहले की भावना से उस तालाब की अोर दौड़ चले। कोर्इ अाधा स्नान धोड़कर, कुछ अाधा भोजन बीच में परित्याग पू्र्वक, किसी का यज्ञोपवीन कान पर ही चढ़ा है तथा किसी की  हजामत अाधी ही हुर्इ थी। सभी अाधे राज्य के चक्कर में बेतहाशा दौड़ रहे थे। इतने व्यक्तियों को इस प्रकार दौड़ता देखकर राजा ने संपूर्ण रहस्य का पता लगाया। मेरे राज्य का अाधा हिस्सा कोर्इ न लेने पाये एेसा सोचकर राजा स्वंय भी उनके पीछे भागने लगा।

फूलों की सुंदर मालाअों, देदीप्यमान अाभूषणों से अलंकृत होने योग्य सुंदर शरीर वाला राजा मलमूत्र से भरे उसे गंदे तालाब में कूद पड़ा। ठीक ही कहा है," लोभान्वित: किं न करोति किलिव्यम।     

अर्थात एेसा कौन सा पाप है जिसे लोभी व्यक्ति नहीं करता। बार-बार ढूंढकर भी न मिलने के कारण खाली हाथों लज्जित हुअा राजा उस गंदे तालाब में गोते लगा रहा था। र्इश्वर की कृपा से उसी समय भाग्यवश एक महात्मा वहां अा गए अौर वहां की इस विचित्र दृश्य को देखकर राजा एवं जनता से पुछने लगे, "अरे! भार्इ यह कौन सा पवित्र तीर्थ है? अाज कौन सा शुभ पर्व है। जो अाप सब इसमें स्नान कर रहे हैं। मैंने चारों धामों के दर्शन किए हैं, सुंदर सप्त पुरियां भी देखी हैं, कर्इ बार प्राय: सब पवित्र तीर्थों अौर नदियों में स्नान कर चुका हूं किंतु यह तीर्थ मुझे नया ही प्रतीत हो रहा है जिसे मैं अाज तक न देख सका।"

राजा ने तेजस्वी महात्मा को प्रणाम करके सविनय उत्तर दिया,"भगवान, ये कोर्इ तीर्थ स्थान नहीं है अौर न ही अाज कोर्इ पूर्व है।" 

मेरी रानी का हार इसमें गिरा हुअा है जो दिखता तो है पर मिल नहीं रहा है। स्वयं सब कुछ देखने व समझने के उपरांत महात्मा ने कहा,"सज्जनों! अापको ज्ञात होना चाहिए कि गुरु जी के उपदेश बिना किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिलती। उन्होंने  राजा का कान पकड़ कर मुख ऊपर की अोर किया अौर पेड़ की शाखा पर पक्षी का घोंसला दिखाया। वहीं पर हार भी लटक रहा था। जल में तो केवल हार का प्रतिबिंब ही दिख रहा था।

भगवान के वैकुण्ठ इत्यादि धामों का प्रतिबिंब मात्र है ये संसार। भगवत धाम नित्य, ज्ञानसय तथा अानंदमय है परंतु यह जगत नाश्वान होते हुए भी हमेशा रहने वाला प्रतीत होता है। अज्ञात रुपी घोर तिमिर में रहते हुए भी ज्ञानमय प्रतीत होता है तथा दु:खमय होते हुए भी सुखमय व आनंदमय प्रतीत होता है। वास्तव में इसमें सुख है ही नहीं। कल्पना कीजिए कि एक स्त्री को पुत्र चाहिए। पुत्र के लिए उसे विवाह करना पड़ेगा एवं सदा के लिए पति की गुलामी स्वीकार करनी होगी। यदि किसी कारण वश भी पुत्र न हुअा तो उसे अस्पतालों के एवं तंत्र-मंत्र जानने वालें के चक्कर काटने पड़ते हैं।

खैर कल्पना कीजिए कि उस स्त्री का गर्वधान हो गया। तब भी सुखी नहीं, क्योंकि अभी उसे 10 माह तक कष्ट सहन करके एक महान तपस्या करनी होगी लेकिन वह यह कष्ट भी सह लेती है क्योंकि उसे भविष्य में होने वाले पुत्र की अाशा है।10 माह बीतने के बाद यदि पुत्र की जगह पुत्री हो गर्इ तो फिर दुख। माना पुत्र ही हो गया तो एक पल की खुशी हुर्इ। फिर चिंता लग गर्इ उसके पालन-पोषण की एवं कहीं पुत्र मर न जाए, इस बात की चिंता तो उसे सारा जीवन सताती रहेगी। यदि कुपुत्र निकला तो दुखी अौर मर गया तो घोर दुख। इसी प्रकार धन की कामना रुपया कमाने में दुख, चोरी न हो जाए, नष्ट न हो जाए इसी भय में कष्ट एवं नष्ट हो जाए तो कष्ट ही कष्ट। कहने का मतलब यह है कि संसार की प्रत्येक वस्तु में भले ही सुख दिखार्इ देता है लेकिन उस में सुख हैं नहीं, सुख की भ्रांति है व मृग-तृष्णा मात्र है।

उपरोक्त अनुसार, जैसे महात्मा जी ने राजा का कान पकड़ कर राजा को एवं उसकी समस्त प्रजा को दिखाया कि जिस गंदे नाले में हार ढूंढ रहे हो हार वहां नहीं ऊपर पेड़ पर है कीचड़ में तो सिर्फ उसका प्रतिबम्ब है। उसी प्रकार हम लोग भी अानंद को प्राप्त करने के लिए भगवान के अानंदमय धामों की धाया स्वरुप इस संसार में अानंद ढूंढ रहे हैं जो कि एक भ्रम मात्र है। तब करुणामय भगवान के निजजन साधु-गुरु भी हम जैसे माया-बद्ध जीवों के कान पकड़ कर ऊपर की अोर अर्थात भगवान के पास पहुंचने का मार्ग दिखा देते हैं जिस पर चलकर जीव नित्य अानंद व भगवदधाम को प्राप्त करता है। यही महाप्रभु के निजजनों की अमंदोदय दया है।

जगदगुरु श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ठाकुर अपनी उपदेशाली में लिखते हैं कि ," केवल एक व्यक्ति को भगवान के भजन में लगाना, लाखों व्यक्तियों को अन्न, वस्त्र तथा शिक्षा दान करने एवं संसार में करोड़ों अस्पताल दान करने की अपेक्षा अनंतगुणा महान परोपकार का कार्य होगा।" 

श्रीचैतन्य  गौड़ीय मठ की ओर से

श्री बी.एस. निष्किंचन जी महाराज


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