तेल की कीमतों पर जनता से ज्यादा बेचैनी सरकार में

punjabkesari.in Wednesday, Oct 17, 2018 - 04:40 AM (IST)

सचमुच का हाहाकार मचा है और तेल की कीमतों के इस हाहाकार के बीच अगर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दुनिया और देश के तेल व्यवसाय से जुड़े प्रमुख लोगों के साथ बैठक करते हैं तो सबको एक उम्मीद दिखती है, पर बैठक के नतीजे न उस तरह के होने थे, न हुए कि एक बार में तेल की कीमत कम होने की घोषणा हो जाए। कई लोगों को निराशा भी हुई पर बैठक में जो-जो बातें की गईं, उठीं और जो जवाब आए, उनसे यह उम्मीद जरूर बंधी कि कीमतें ज्यादा न भागेंगी। 

कम होंगी या नहीं, इस बात को लेकर अभी भी संशय बना हुआ है, पर जैसी जरूरत लग रही है उसमें कीमतें कम होनी ही चाहिएं। इसकी जरूरत आम उपभोक्ताओं को तो है ही, उससे ज्यादा जरूरत सरकार को है। अभी 10 दिन नहीं हुए जब सरकार ने उत्पाद शुल्क में कटौती करके कीमतों में अढ़ाई रुपए की कमी की थी, पर इसी बीच हुई वृद्धि ने उसे निगल लिया है। सौभाग्य से अंतर्राष्ट्रीय बाजार मेें कीमतों की तेजी कुछ थमी है वरना और मुश्किल बढ़ जाती। कीमतों का यह खेल तब शुरू हुआ है जब 5 राज्यों के चुनाव सिर पर हैं और लोकसभा चुनाव भी ज्यादा दूर नहीं हैं। 

यह बैठक सिर्फ प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, पैट्रोलियम मंत्री, नीति आयोग के प्रमुख और देसी तेल कम्पनियों के प्रमुख लोगों की होती तो जरूर किसी छोटे फैसले की भी उम्मीद की जा सकती थी, पर इसमें सऊदी अरब के ऊर्जा, उद्योग और खान मंत्री तथा दुनिया की सबसे बड़ी तेल उत्पादक कम्पनी सऊदी अरेबिया आयल कम्पनी के प्रमुख खालिद ए. अल-फलिह, संयुक्त अरब अमीरात के मंत्री और वहां की सरकारी अबु धाबी नैशनल आयल कम्पनी के प्रमुख सुल्तान अहमद अल जबर, बी.पी. समूह के मुख्य कार्यकारी अधिकारी बाब डुडले, रूस की भारी-भरकम कम्पनी ओ.ए.ओ. रोजनेफ्ट के मुखिया, पायनियर नैचुरल रिसोर्स कम्पनी, अबु धाबी मुबादला डिवैल्पमैंट कम्पनी, श्लमबर्गर लि., वुड मैकेंजी, वल्र्ड बैंक और इंटरनैशनल एनर्जी एसोसिएशन समेत अनेक संस्थाओं और कम्पनियों के लोग शामिल थे। 

अब एक बार में दाम कम करने की घोषणा न होने का मतलब बैठक का निरर्थक होना भी नहीं है। काफी बातें निकलीं और कई तरह के तर्क सामने आए। बैठक करके सरकार ने दूसरों के जवाब लिए पर खुद उसके बताए बिन्दुओं से भी कई सवाल उठे जिनका जवाब खुद उसे देना है। स्वाभाविक रूप से प्रधानमंत्री की बातों का जोर कीमतें कम करने और तर्कसंगत बनाने पर था और पैट्रोलियम मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने एक साल में कीमतों में कच्चे तेल में 50 फीसदी और रुपए के हिसाब में 70 फीसदी वृद्धि की बात करके सरकार की दिक्कतें साफ बताईं। इस साल रुपया डालर के मुकाबले लगभग 15 फीसदी गिरा है। भारत अपनी जरूरत का 85 फीसदी से ज्यादा तेल आयात करता है और दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक बना हुआ है। 

अगर प्रधानमंत्री तेल उत्पादन के सवाल पर ओपेक और बाकी उत्पादकों को यह कह सकते हैं कि वे कम लागत वाली चीज ज्यादा कीमत पर न बेचें तो कूटनीति, विदेश व्यापार और दुनिया में अमरीकी दादागीरी के सवाल को भी उठाना होगा। अमरीका और सबसे बड़े तेल उत्पादक वेनेजुएला के बीच तो सीधी लड़ाई है, पर अमरीका हमारे जैसे देशों पर दबाव डाल रहा है कि हम ईरान से तेल न लें। यह तेल हमें सस्ता पड़ता है, इसे लाना आसान है और भुगतान डालर में न करने से हमें सबसे ज्यादा राहत मिलती है। अभी तक हमने अमरीका की इस इच्छा को पूरा नहीं किया है, पर अमरीका और इसराईल से भारत की घनिष्ठता अरब देशों को नहीं भाती जो सदा से तेल के मामले में ही नहीं, हमारे प्रवासियों की कमाई के मामले में भी मददगार बने रहे हैं। वे हमें सदा से रियायती दरों पर तेल देते रहे हैं। 

लागत के सवाल पर तो दिलचस्प नजारा देखने में आया। जब प्रधानमंत्री मोदी ने लागत की बात उठाई तो सऊदी मंत्री अल-फलिफ ने कहा कि अगर कीमतें 40-50 डालर प्रति बैरल से नीचे जाती हैं तो हमारा नुक्सान शुरू हो जाता है। इस पर वेदांता समूह के प्रमुख अनिल अग्रवाल ने कहा कि राजस्थान में हम जहां से तेल निकालते हैं वह जगह अरब देशों की तुलना में कम तेल वाली है और तेल प्राप्त करना मुश्किल है, पर हमारा लागत खर्च सिर्फ 6 डालर प्रति बैरल आता है। यह अंतर बहुत अधिक है और सऊदी अरब के पास उसकी कोई सफाई नहीं है मगर अपने यहां तेल और प्राकृतिक गैस आयोग से लेकर रिलायंस और वेदांता से भी एक सवाल तो बनता ही है कि जब आपकी लागत 6 डालर की है तब आपका तेल क्यों 85 और 86 डालर के अंतर्राष्ट्रीय बाजार वाली दर पर ही बिकता है। 

रिलायंस तो कम कीमत का करार करके उसे तोड़ चुका है और उस कीमत पर तेल निकालने को तैयार न था और यह सवाल भी बना ही हुआ है कि अभी हाल तक जब भारत अपनी जरूरत का 50 फीसदी तेल खुद पैदा कर लेता था तब निजी क्षेत्र को तेल निकालने की अनुमति देने के बाद भी क्यों देसी तेल का हिस्सा मात्र 15 फीसदी भी नहीं रहा। लेकिन सरकार अभी इन सवालों में उलझने की जगह सिर्फ तेल की कीमतों के मामले में राहत चाहती है। एक तो तेल आगे भाग रहा है, डर है कि यह पिछले 147 डालर (जुलाई 2009) के रिकार्ड को न छू ले। डालर के मुकाबले रुपया धड़ाम है। फिर सारे आर्थिक हिसाब गड़बड़ाने लगे हैं। 

आयात घट नहीं रहा है पर निर्यात 2009 के रिकार्ड से नीचे ही बना है बल्कि 2 फीसदी से ज्यादा गिरा है। इससे चालू खाते का घाटा और राजकोषीय घाटा आसमान छूने जा रहे हैं और प्रधानमंत्री तेल की कीमतों की गिरावट को अपना नसीब बता चुके हैं। वह नसीब इस मामले में ज्यादा था कि तेल पर कर बढ़ाकर सरकार इधर हर साल डेढ़ से पौने दो लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त राजस्व पा रही थी। चुनाव के समय यह पैसा न हो तो सरकार के हाथ बंध जाएंगे और तेल की कीमतें बढ़ती रहीं तो वैसे ही हाहाकार है। सो यह बैठक महत्वपूर्ण थी। देखते जाइए आने वाले दिनों में इससे क्या नतीजे निकलते हैं।-अरविन्द मोहन


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Pardeep

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