चीन में मुस्लिम उत्पीडऩ पर पाकिस्तान चुप क्यों

punjabkesari.in Friday, Sep 21, 2018 - 02:27 AM (IST)

विश्व के समक्ष अनेकों अनसुलझे प्रश्नों में से एक यह भी है कि इस्लाम का स्वयं-भू रक्षक पाकिस्तान जिसके विमर्श में दुनियाभर के मुसलमानों के हितों की चिंता होने का दावा किया जाता है, वह चीन में मुस्लिमों पर हो रहे भयंकर अत्याचारों पर मौन क्यों है?

चीन में अल्पसंख्यकों की स्थिति क्या है? इस साम्यवादी देश की कुल जनसंख्या 141 करोड़ से अधिक है जिसमें मुस्लिम आबादी 2.5 करोड़ है अर्थात् 1.71 प्रतिशत। विश्व की बड़ी आर्थिक शक्तियों में से एक,चीन अपने यहां मजहबी स्वतंत्रता होने का दावा तो करता है, किंतु उसके कड़वे सच को मानवाधिकार संबंधी हालिया रिपोटर्स ने फिर से सामने ला दिया है। अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठन ह्यूमन राइट वॉच की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन में 10 लाख मुस्लिमों को जबरन ‘‘राजनीतिक विचार परिवर्तन के लिए एक विशाल शिविर में भेजा जा रहा है, जहां राष्ट्रीय सुरक्षा, सामाजिक स्थिरता के साथ मजहबी कट्टरता से निपटने के नाम पर लोगों को शारीरिक और मानसिक यातनाएं दी जा रही हैं।

इस मानवाधिकार संगठन ने शिविरों में रह चुके कुछ लोगों से बात की है, जिनके अनुसार, नजरबंद हुए मुसलमानों को सरकार चीनी भाषा मैंडरिन सीखने का दबाव बना रही है। उन्हें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन में गीत-भाषण सुनाए जा रहे हैं और उसके समर्थन में नारे लगवाए जा रहे हैं। वर्तमान चीनी राष्ट्रपति की वफादारी की कसमें दिलवाई जा रही हैं। यदि कोई मुस्लिम निर्देशों की अवहेलना करता है, तो उसे घंटों भूखा रखा जाता है, दिन-रात खड़े रहने पर मजबूर किया जाता है और काल-कोठरियों में उन्हें मानसिक प्रताड़ना दी जाती है। यातनाओं से भरपूर इन शिविरों में जिन मुस्लिमों को कैद किया गया है, उनके बच्चों को सरकार अनाथालयों में भेज चुकी है।

मुस्लिम बहुल शिनजियांग में मुसलमानों की आबादी न बढ़े, इसलिए गर्भवती मुस्लिम महिलाओं पर कड़ी नजर रखी जा रही है और जबरन गर्भपात करवाया जा रहा है। मुस्लिम लड़कियों की शादी जबरन वहां चीनी सरकार द्वारा बसाए हान चीनियों से करवाई जा रही है। सरकार प्रायोजित इस्लाम विरोधी प्रताडऩा के कारण जो मुस्लिम अपने परिवार के साथ दूसरे देशों  (मुस्लिम राष्ट्र सहित) में जाकर बस  गए हैं, उन पर भी चीन अपने कुछ दूतावासों के माध्यम से नजर रख रहा है।

चीन की माक्र्सवादी सरकार की यह पूरी कसरत उइगर मुसलमानों की सांस्कृतिक पहचान और इस्लाम के प्रति उनके विश्वास को खत्म करने हेतु है। उइगरों की मजहबी स्वतंत्रता पर अंकुश कई वर्षों से लग रहा है। सरकार कई मस्जिदों को ध्वस्त कर चुकी है। इतना ही नहीं,  रमजान में मुस्लिम कर्मचारियों को रोजा रखने और मुस्लिम नागरिकों को दाढ़ी बढ़ाने पर रोक है। कुरान पढऩे, बच्चों के मदरसों में जाने, नमाज अदा करने और नवजात बच्चों के इस्लामी नाम रखने पर सरकारी पाबंदी पहले ही थोप दी गई थी।

चीन की कुल मुस्लिम आबादी में उइगरों के अतिरिक्त  ‘हुई’ मुसलमान भी हैं, इन दोनों की जनसंख्या एक-एक करोड़ से अधिक है। अधिकांश चीनी चरित्र में ढल चुके  ‘हुई’ मुसलमानों की तुलना में ‘उइगर’ मुस्लिमों पर सरकारी प्रतिबंध अधिक होने का बड़ा कारण उइगरों का कट्टरवादी इस्लामी आंदोलन है जिसे ‘पूर्वी तुर्किस्तान इस्लामिक आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है और जिसका अंतिम लक्ष्य चीन से अलग होना है। वर्ष 1949 में पूर्वी तुर्किस्तान, जो अब चीनी प्रांत शिनजियांग है, उसे एक अलग राष्ट्र के रूप में कुछ समय के लिए पहचान मिली थी, किंतु अल्पकाल में ही साम्राज्यवादी चीन ने उसे हड़प लिया। इस क्षेत्र में अलगाववादी और इस्लामी कट्टरपंथी आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिसे चीन किसी भी कीमत पर कुचलना चाहता है।

मजहबी उत्पीडऩ केवल चीनी मुस्लिमों तक सीमित नहीं है, ईसाई भी इसका दंश झेल रहे हैं। यहां कैथोलिक ईसाइयों की संख्या 1.2 करोड़ है। हेनान सहित अन्य प्रांतों में सरकारी निर्देश पर ईसाइयों के पवित्र चिन्ह क्रॉस और धार्मिक पुस्तक बाइबल को नष्ट किया जा रहा है। पेइङ्क्षचग स्थित सबसे बड़े चर्च ‘जियोन’ सहित कई अन्य चर्चों को ढहा दिया गया है। अपना मजहब छोडऩे के लिए ईसाइयों को सरकारी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने हेतु विवश किया जा रहा है। सात दशक पहले चीन द्वारा कब्जाए तिब्बत में भी बौद्ध अनुयायियों का मजहबी दमन और उनकी सांस्कृतिक व भाषायी विरासत को कुचला जा रहा है। यहां हजारों लोग राजनीतिक कैदी बने हुए हैं जिनके बारे कोई जानकारी भी उपलब्ध नहीं करवाई जा रही है।

यह किसी विडम्बना से कम नहीं कि संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य चीन सभी मानवाधिकारों की अवहेलना कर रहा है और यह संगठन कुछ भी ठोस कार्रवाई कर पाने में असमर्थ है। इन्हीं अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का पाखंड तो और भी देखने लायक है। बीते दिनों संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने कश्मीरी अलगाववादियों के झूठे दावों और पाकिस्तान के दुष्प्रचार पर एक भारत विरोधी रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे कई अन्य देशों ने दुर्भावना से प्रेरित बताकर निरस्त कर दिया था। वह संगठन भी चीन में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों पर चुप है। क्यों?

चीन में इस स्थिति का कारण क्या है? जिस माक्र्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत के अनुरूप चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक माओ त्से तुंग ने वर्ष 1949 में आधुनिक चीन की नींव रखी थी, उसमें साम्यवादी दर्शन के कारण सत्ता-अधिष्ठानों में ईश्वर का कोई स्थान नहीं है। चीन में विश्व की एक ऐसी अस्वाभाविक व्यवस्था है, जहां की शासन-व्यवस्था और राजनीति में हिंसा ग्रस्त माक्र्सवादी अधिकनायकवाद है तो उसकी अर्थव्यवस्था में घोर पूंजीवाद का मकडज़ाल। इसी खतरनाक संयोजन ने चीन में जहां मानवता और मानवाधिकार को गर्त में पहुंचा दिया है, तो सत्ता-अधिष्ठान वैचारिक कारणों से असहमति रखने वालों को प्रताडि़त कर रहा है। परिणामस्वरूप आज चीन में मौत की सजा, आत्महत्या करने वालों और अवसाद पीड़ित रोगियों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है।

चीन में मुस्लिमों के उत्पीडऩ पर इस्लामी गणराज्य पाकिस्तान की चुप्पी संबंधी अनसुलझे प्रश्न का दूसरा महत्वपूर्ण ङ्क्षबदू यह भी है कि वैचारिक समानता के कारण जो भारतीय वामपंथी (माओवादी सहित) चीनी समाजवाद को आदर्श मानते हैं, जिन्होंने पराधीन भारत में मुस्लिम लीग के आंदोलन का समर्थन किया और पाकिस्तान के जन्म में दाई की भूमिका निभाई, उस इस्लामी देश में माक्र्सवादी-लेनिनवादी वामपंथियों का अस्तित्व दशकों पहले क्यों मिट गया?

विश्व में किसी भी विचारधारा को किसी भी भौगोलिक सीमा में बांधकर नहीं रखा जा सकता। जिस विषाक्त वैचारिक चिंतन ने पाकिस्तान की नींव रखी, उसके अवशेष खंडित भारत में कश्मीर सहित कुछ क्षेत्रों में आज भी उपस्थित हैं। उसी दर्शन का जिस प्रकार प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से समर्थन या पोषण भारतीय वामपंथी अपने तथाकथित ‘उदारवादी दर्शन’ के नाम पर आज भी कर रहे हैं। क्या वह उनकी लेमिंग नामक मूर्ख जीव की आत्मघाती प्रवृत्ति को प्रतिबिंबित नहीं करता, जिसमें अक्सर संकट आने पर लेमिंग मौत की खाई की ओर दौड़ लगा देता है और उसका अंत हृदय-विदारक होता है।

हम अपने मूल प्रश्न की ओर लौटते हैं। क्या कोई बता सकता है कि कश्मीर सहित शेष भारत में मुस्लिम व सभी अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों की तुलना में अधिक लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकार मिले हुए हैं,  फिर भी पाकिस्तान इस्लाम के नाम पर भारतीय मुसलमानों को ‘काफिर’ भारत के शिकंजे से मुक्त कराने के नाम पर प्रत्यक्ष-परोक्ष युद्ध क्यों छेड़े हुए है? इसके विपरीत चीन में स्थानीय मुसलमानों की सामाजिक और मजहबी पहचान को नष्ट करने का भयंकर षड्यंत्र चल रहा है और पाकिस्तान न केवल इस अन्याय पर चुप है, बल्कि चीन के साथ निरंतर अपने सामरिक और आर्थिक संबंधों को सुदृढ़ करने हेतु लालायित है। यह विरोधाभास क्यों? क्या कोई सुधि पाठक इस प्रश्न का समुचित उत्तर दे सकता है? मुझे आपके पत्रों का इंतजार रहेगा। -- बलबीर पुंज


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