उत्तर प्रदेश को ‘2022’ के लिए तैयार कर रहीं प्रियंका

punjabkesari.in Tuesday, Apr 16, 2019 - 03:54 AM (IST)

यह सच है कि राजनीति में दुश्मन और दोस्त स्थायी नहीं होते लेकिन यह नियम उस समय लागू नहीं होता जब कोई गठबंधन अस्तित्व की लड़ाई से जूझ रहा हो। कांग्रेस पार्टी द्वारा खुद को पुन: स्थापित करने के लिए उसका किसी के प्रति कोई बुरा भाव नहीं है लेकिन मुख्य विरोधी (इस मामले में भाजपा) से लड़ाई के दौरान उसने अपने सहयोगियों पर घातक वार करके गठबंधन सहयोगियों में कटुता पैदा कर दी है। 

मायावती, अखिलेश यादव, अजीत सिंह (बसपा, सपा, रालोद) ने एक सुर में कहा है: ‘गठबंधन’ उन स्थानों पर सिमट गया जहां पर कांग्रेस ने खेल खराब करने वाले के रूप में प्रवेश किया। सहारनपुर, खेड़ी, बदायूं, संत कबीर नगर, सीतापुर, बिजनौर तथा अन्य कई स्थानों पर कांग्रेस गठबंधन के बजाय भाजपा की मदद कर रही है। 

कांग्रेस इस तरह से दोहरे नियंत्रण के मोड में क्यों है, यह समझने के लिए दिमाग पर ज्यादा बोझ डालने की जरूरत नहीं है : प्रियंका गांधी ने कई बार पार्टी के इरादे जाहिर किए हैं। ‘हम 2022 के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं।’ अन्य शब्दों में नेहरू-गांधी परिवार के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव जीने और मरने का सवाल नहीं है। क्या नरेन्द्र मोदी की वापसी से लोकतंत्र खत्म हो जाएगा और फासिस्टवाद शुरू हो जाएगा? कांग्रेस इस तरह की फिजूल बातों से परेशान नहीं है। 

दुविधा में रही कांग्रेस
कांग्रेस अपनी कुछ दोहरी चालों की ठीक तरह से मार्किटिंग नहीं कर पाई है। राहुल गांधी को केरल के वायनाड से चुनाव में उतारने की इस  आधार पर ङ्क्षनदा की गई कि इस सीट पर कांग्रेस हमेशा जीतती है। यहां पर राहुल गांधी का अनावश्यक तौर पर युद्ध के मैदान में उतरना वामदलों के प्रति घृणा को दर्शाता है जिनसे समन्वय की बात पश्चिम बंगाल में चल रही थी। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस द्वारा सहयोग के प्रस्ताव को ठुकराने के परिणामस्वरूप वायनाड का घटनाक्रम सामने आया। इसके कारण कांग्रेस की दुविधा बढ़ गई और वह यह फैसला नहीं ले सकी कि उसे विपक्ष को मजबूत करना चाहिए या क्षेत्रीय पाॢटयों को कमजोर करना चाहिए। कांग्रेस ने शायद यह महसूस किया होगा कि अपने सहयोगियों को नजरअंदाज कर वह भविष्य में और मजबूत हो सकती है। कांग्रेस इस बात का प्रचार नहीं कर पाई कि राहुल गांधी ने वायनाड जाकर कांग्रेस उम्मीदवारों को भाजपा की ओर जाने से रोक लिया है जो केरल में अपना खाता खोलना चाहती है। 

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आसपास रहने वाले बुद्धिजीवी लोग भी शायद प्रो मोदी मीडिया की उस धारणा से प्रभावित हैं जो 2019 के चुनावों को अध्यक्षीय मुकाबले की तरह दिखा रहा है। यह नई बात नहीं है। 2014 के चुनावों में अर्णब गोस्वामी इसी प्रक्षेप पथ पर थे। उन्होंने राहुल को मोदी-राहुल डिबेट में भाग लेने के लिए लुभाने की कोशिश की थी परंतु वह इस प्रयास में कामयाब नहीं हो सके क्योंकि राहुल गांधी पार्टी को मूल स्तर से मजबूत बनाने का सपना देख रहे थे।दरअसल राहुल यूथ कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ के चुनावों के लिए पूर्व चुनाव आयुक्त के.जे. राव को लेकर आए थे। उन्होंने पायलट प्रोजैक्ट के तौर पर 16 बेदाग लोकसभा उम्मीदवार चुनने के लिए विशेषज्ञ की सहायता लेनी चाही थी। इस गति से राहुल गांधी को 543 लोकसभा उम्मीदवारों की पहचान करने में कितना समय लगेगा? मैं यहां एक और विषय पर कुछ बात करना चाहूंगा। 

यू.पी.ए. का पहला कार्यकाल
क्या कारण था कि मनमोहन सिंह सरकार का 2004 से 2009 का कार्यकाल स्वच्छ छवि वाला रहा। एक कारण यह है कि उन्हें 60 वामपंथी सदस्यों का समर्थन हासिल था जिन्होंने कांग्रेस के ओछे लोगों को आगे नहीं आने दिया। यह सच है कि अमरीका के साथ परमाणु समझौते के मामले में उनके मतभेद थे लेकिन उस कार्यकाल में भ्रष्टाचार नहीं देखा गया। बाद में दक्षिणपंथियों के दबाव में वामपंथी सरकार से हट गए। वामपंथियों की जगह लालची लोगों ने ले ली जिस कारण भ्रष्टाचार के द्वार खुल गए और इसी का लाभ मोदी ने अपने चुनाव प्रचार में आगे बढऩे के लिए उठाया। कांग्रेस में बहुत कम लोगों को याद होगा कि वामपंथियों का साथ छोडऩे के बाद वह सबसे कम 44 सीटों पर पहुंच गई है। 

2014 के चुनावों से पहले राहुल गांधी के संशय पर मैं पहले ही बात कर चुका हूं जब उनके पास 209 सीटें थीं और अब केवल 44 सीटों के साथ क्या यह वास्तविकतावादी होगा कि वह सबसे बड़े पद की उम्मीद कर रहे हैं। इसमें कोई हैरानी नहीं कि एक महीने के अंतर में राहुल और प्रियंका दोनों सार्वजनिक तौर पर पीछे हटे हैं। उन दोनों ने अलग-अलग यह कहा है कि वे विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश में 2022 के लिए जमीन तैयार कर रहे हैं। पार्टी के लोग 2024 के लोकसभा चुनावों के बारे में सोच रहे हैं। इस दौरान वे एक मूल बिंदू को भूल रहे हैं। 

2019 का चुनाव भाजपा को हटाने के लिए माना जा रहा था। 23 मई 2018 को बेंगलूर में और 19 जनवरी 2019 को कोलकाता में अखबारों के पहले पेज पर छपी तस्वीरें भाजपा के खिलाफ एकजुट महागठबंधन को दर्शाती हैं। यदि यह मिशन पूरा हो जाता तो सहयोगी दल साथ बैठकर सदन के नेता का चुनाव कर सकते थे। यदि कांग्रेस ने अपना खेल ईमानदारी से खेला होता तो नेतृत्व का चयन आसानी से हो जाता। जिस प्रकार से कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार विशेष तौर पर मायावती के खिलाफ खड़े किए हैं उससे इस खेल का अप्रिय अंत सुनिश्चित हुआ है। 

क्या हैं चुनावी संभावनाएं
यदि इन चुनावों में भाजपा की हार होती है तो उसके कई कारण होंगे। राम मंदिर निर्माण नहीं हुआ। कश्मीर और पाकिस्तान के मसले बरकरार हैं। इन सभी मामलों में भाजपा की बी टीम यानी कांग्रेस के पास खुश होने के लिए कुछ नहीं है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक संक्षिप्त बात कही: यदि मोदी चुनाव जीतते हैं तो भारत-पाकिस्तान में बातचीत की सम्भावना अधिक होगी क्योंकि एक कमजोर विपक्ष इसका विरोध नहीं कर पाएगा। ये सब अंदाजे की बातें हैं। यदि भाजपा की सीटें कम होती हैं और वह केवल एकमात्र बड़े दल के रूप में सामने आती है तो नवीन पटनायक, के. चंद्रशेखर राव, जगनमोहन रैड्डी क्रमश: ओडिशा, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश से भाजपा के साथ आने को तैयार हो सकते हैं लेकिन ऐसा वे अपनी शर्तों पर करेंगे जिसमें भाजपा नेतृृत्व में बदलाव भी शामिल है।-सईद नकवी
 


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