Tripura Election: क्या भाजपा दोबारा बनाएगी सरकार, जानिए क्या हैं राजनीतिक समीकरण

punjabkesari.in Tuesday, Feb 14, 2023 - 07:01 PM (IST)

जालंधर, (नैशनल डैस्क): त्रिपुरा एकमात्र पूर्वोत्तर राज्य है जहां पर भाजपा ने 2018 के चुनाव में अपने दम पर 60 सदस्यीय विधानसभा में 36 सीटें हासिल की थी। भाजपा ने इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) के साथ गठबंधन में 44 सीटों के साथ सरकार बनाई थी। आईपीएफटी को 8 सीटों मिली थीं। गठबंधन को मिली 44 सीटों में से 33 सीटों पर 50 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे। इस बार 16 फरवरी को राज्य में होने जा रहे विधानसभा चुनाव बहुकोणीय मुकाबले के चलते बहुत ही रोचक हो गया है।
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कौन सीट पार्टियां चुनाव मैदान में  
भाजपा ने त्रिपुरा में दोबारा से सत्ता को कायम रखने के लिए एडीचोटी का जोर लगा दिया है, वहीं सत्ता परिर्वतन की उम्मीद के सहारे कांग्रेस और सीपीआई (एम) मिलकर चुनाव मैदान में उतरे हैं। इसके अलावा शाही वंशज प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा की टिपरा मोथा पार्टी ने भी भाजपा की चिंता बढ़ा दी है, पार्टी का एजेंडा ग्रेटर तिप्रालैंड बनाने का है। ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस भी चुनाव मैदान में हालांकि 2018 के चुनाव में पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी।

भाजपा के सामने चुनौतियां
चुनाव से पहले पांच साल बाद सत्तारूढ़ भाजपा को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सत्ता विरोधी लहर, उभरते विपक्षी गठबंधन और एक नई जनजातीय ताकत का टिपर मोथा पार्टी का उदय भाजपा के लिए बड़ी चुनौती माना जा रहा है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक विपक्षी दलों ने भाजपा गठबंधन सरकार पर अपने वादों को पूरा करने में विफल रहने का आरोप लगाया और बढ़ती राजनीतिक हिंसा का दावा किया है। भाजपा ने गुजरात की तर्ज पर विधानसभा चुनाव से सिर्फ 10 महीने पहले मुख्यमंत्री बिप्लब देब को सीएम पद से हटाकर माणिक साहा को सीएम बनाकर सत्ता विरोधी लहर को कम करने का प्रयास किया है।
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2018 में क्या था वोट शेयर
दिसंबर में जब पीएम मोदी ने त्रिपुरा का दौरा किया था तो उन्होंने भाजपा नेताओं से गुजरात मॉडल को प्रदर्शित करने के लिए कहा था। इस महीने उन्होंने त्रिपुरा के लोगों को याद दिलाया कि राज्य के विकास के लिए उन्हें केंद्र और राज्य में भाजपा के 'डबल इंजन' सरकार की जरूरत है। जानकारों की मानें तो भाजपा को दो पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों सीपीआई (एम) और कांग्रेस के गठबंधन के प्रभाव का मुकाबला करने की भी जरूरत है। 2018 में, सीपीआई (एम) 16 सीटों पर सिमट गई थी, जबकि कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली थी। सीपीआई (एम) के 42 प्रतिशत वोट शेयर को भाजपा के 44 प्रतिशत ने काफी हद तक पीछे छोड़ दिया था। जबकि कांग्रेस 2 फीसदी वोट शेयर के साथ ही सिमट गई थी।

कांग्रेस मतदाताओं ने भाजपा को दिलाई थी सत्ता
वामपंथी मतदाताओं से अधिक यह कांग्रेस के मतदाता थे जिन्होंने वाम वर्चस्व को समाप्त करने के लिए भाजपा की ओर रुख किया था। नया गठबंधन सीपीआई (एम) 46 सीटों पर और कांग्रेस 13 सीटों पर चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस इस बात से भी राहत महसूस कर सकती है कि उसने 2019 के लोकसभा चुनावों में अपने वोट शेयर को 25 प्रतिशत तक सुधार लिया है। हालांकि सीपीआई (एम) भी खुद को एक नए अवतार में पेश करने की पुरजोर कोशिश कर रही है। इसके 50 प्रतिशत से अधिक उम्मीदवार नए चेहरे हैं। यहां तक ​​कि पूर्व मुख्यमंत्री माणिक सरकार भी चुनाव नहीं लड़ रहे हैं।
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क्या कहते हैं राजनीतिक पंडित
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि कई कांग्रेस मतदाता जिन्होंने 2018 में सीपीआई (एम) शासन से छुटकारा पाने के लिए भाजपा का समर्थन किया था, वे राज्य में वाम दलों की वापसी को देखने के इच्छुक नहीं हो सकते हैं। इसके विपरीत तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) जो वामपंथियों और कांग्रेस के समान वोटों को लक्षित करेगी। बंगाली बहुल क्षेत्रों में अन्य दलों के वोटों पर भी टीएमसी की नजर रहेगी। जबकि भाजपा को उम्मीद है कि गैर-भाजपा वोटों में विभाजन उसके पक्ष में काम करेगा। लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन ने टीएमसी को बीजेपी की बी-टीम करार दिया है। टीएमसी नेताओं ने इस आरोप का जोरदार खंडन किया है। हालांकि टीएमसी का असर बहुत सीमित रहने की संभावना है, क्योंकि ज्यादातर चुनावी जानकार इसे उन 28 सीटों पर कोई जीत नहीं दे रहे हैं, जिन पर यह चुनाव लड़ रही है। 2018 में ममता बनर्जी की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली थी।

शाही वंशज की पार्टी टिपरा मोथा
भाजपा के लिए सबसे बड़ी चिंता टिपरा मोथा पार्टी का उभरना है। शाही वंशज प्रद्योत माणिक्य देबबर्मा के नेतृत्व में पार्टी ने सफलतापूर्वक खुद को स्वदेशी आदिवासी लोगों के चैंपियन के रूप में स्थापित किया है, जो त्रिपुरा की आबादी का 30 प्रतिशत हिस्सा हैं। पिछले साल मोथा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने त्रिपुरा ट्राइबल एरिया ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल (टीटीएएडीसी) के चुनावों में 28 में से 18 सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि यहां भाजपा को 9 सीटें ही मिली थी।
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भाजपा की रणनीति
भाजपा ने मोथा के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश की, लेकिन वार्ता विफल रही क्योंकि देबबर्मा स्पष्ट थे कि उनकी पार्टी ग्रेटर तिप्रालैंड बनाने के लिखित आश्वासन के बिना किसी से हाथ नहीं मिलायेगी। पार्टी एक अलग राज्य की मांग पर अड़ी है जिसमें टीटीएएडीसी और 36 अन्य गांव शामिल हैं। देबबर्मा भी आदिवासी गठबंधन के लिए आईपीएफटी के साथ चर्चा में थे, लेकिन भाजपा अपने सहयोगी को बनाए रखने में कामयाब रही। मोथा का उदय ने इंडिजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के संस्थापक एन.सी. देबबर्मा और तीन विधायकों सहित कई नेताओं के दलबदल ने आईपीएफटी के प्रभाव को बुरी तरह प्रभावित किया है। नतीजतन, भाजपा ने इस आदिवासी पार्टी को केवल पांच सीटों की पेशकश की है, पिछली बार 10 से कम है।

पीएम मोदी की भूमिका
आदिवासियों के वोट खोने की आशंका दिसंबर में मोदी के भाषण में स्पष्ट थी जब उन्होंने उल्लेख किया कि भाजपा ने गुजरात की 27 आरक्षित आदिवासी सीटों में से 24 पर जीत हासिल की थी और इसे आदिवासी समाज की पहली पसंद कहा था। पार्टी स्वदेशी मतदाताओं को लुभाने के लिए डिप्टी सीएम जिष्णु देव वर्मा और पाताल कुमारी जमातिया जैसे आदिवासी चेहरों पर निर्भर है, जो पार्टी में पिछले साल शामिल हुए थे। हाल ही में भाजपा के तीन मौजूदा विधायक विपक्षी दलों में शामिल हो गए, जबकि माकपा के एक मुस्लिम विधायक सत्तारूढ़ दल में शामिल हुए हैं।
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ऐसे बना सकती है भाजपा सरकार
जानकारों का यह भी मानना है कि बढ़ती लोकप्रियता के बावजूद टिपरा मोथा की 20 आरक्षित सीटों पर आसानी से जीत नहीं हो सकती है। जबकि आदिवासी लोग 10 अनारक्षित बंगाली बहुल सीटों पर परिणामों को प्रभावित करते हैं, बंगाली इसी तरह सात अनुसूचित जनजाति सीटों पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मोथा के एक अलग आदिवासी राज्य के समर्थन के साथ, बंगाली वोट इसके खिलाफ जाने की संभावना है। इतनी अधिक अंतर धाराओं के साथ त्रिपुरा हाल के इतिहास में पहली बार एक बहुकोणीय प्रतियोगिता का सामना कर रहा है। शायद पहली बार त्रिशंकु विधानसभा की संभावना है। ऐसे में भाजपा के पास सरकार बनाने का सबसे अच्छा मौका है। भाजपा अपनी पैंतरेबाज़ी की बदौलत कई राज्यों में जहां उसके पास बहुमत नहीं था, वहां सरकार बना चुकी है।
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Content Editor

SS Thakur

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