ना किसानों की जमीन को बंधक बनाया जायेगा और ना ही उसे लीज पर लिया जायेगा: रविशंकर प्रसाद

punjabkesari.in Tuesday, Dec 08, 2020 - 02:10 PM (IST)

नई दिल्ली(सुधीर शर्मा): विपक्ष पर निशाना साधते हुए केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भले ही कृषि कानून को लेकर स्पष्टीकरण दिया हो कि ना किसानों की जमीन को बंधक बनाया जायेगा और ना ही उसे लीज पर लिया जायेगा। उन्होंने यह भी सफाई दी कि हमने किसानों को डिजिटल मंडी दी है। उन्होंने किसानों की आमदनी को बढ़ाने के लिए समय-समय पर अलग-अलग राज्यों द्वारा कांट्रैक्ट फार्मिंग को लागू किये जाने की बात भी दोहराई, उन्होंने यह भी कहा कि इस कार्य में अधिकतर कांग्रेस शासित प्रदेश ही आगे थे। राहुल गांधी ने 2013 में कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में कहा था कि किसान मंडियों को फ्री कर देने की बात कही थी। पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार ने किसान मंडियों को फ्री करने के लिए कई मुख्यमंत्रियों को चिट्ठी लिखी थी। अतः किसानों को भ्रमित करने की कोशिश न की जाए।

सरकार किसानों को समझाने में लगातार असफल
सरकार के मंत्री महोदय की ये बातें कितनी भी सही हों। पर सरकार किसान को यह समझाने में लगातार असफल हो रही है कि उस स्थान पर कोई भी सरकार होगी वह भी यही करेगी, जो आज की केंद्रीय मोदी सरकार कर रही है। वैसे इस बात को मोदी सरकार के मंत्री कह भी नहीं सकते, क्योकि वे अपनी जनता के सामने जिस प्रकार राष्ट्र हितैषी होने व अंतर्राष्ट्रीय जगत में दबंग होने का दम भरते हैं, यदि वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ग्लोबलाइजेशन के बाद की औद्योगिक घरानों व पूजीपतियों द्वारा रची साजिश को खोल देते हैं, तो वे अपनी छवि को लेकर कांग्रेसी आदि सरकारोें से अपने को अलग दिखाने में सदा सदा के लिए असफल हो जायेंगे। क्योंकि जो कार्य कभी की मनमोहन सरकार करना चाहती थी, वही कार्य तो मोदी सरकार आज कर रही है। यही कारण है कि उसके पास विगत वर्ष सीएए व एनआरसी तथा अब के किसान आंदोलन को लम्बें समय तक झेलने व उसे विपक्षियों की शाजिश-देशविरोधी, अंतर्राष्ट्रीय शाजिश कहकर व वार्तालाप की दौर चलाकर समाप्त करने के अलावा कोई चारा नहीं है।

उद्योगपतियों का उदय
हम बात करते हैं उस कुचक्र की जिसके कारण विश्व की जनता अपने अपने देशों में कठोर आंदोलन के लिए विवश हो रही है अथवा यह कहें कि उसे अंतर्राष्ट्रीय एजेंडे के साथ प्रेरित किया जा रहा है। वास्तव में रसिया के विंडन के साथ ही लोग बोलने लगे थे कि अब महाशक्तियों के बीच ध्रुवीकरण का युग समाप्त हो गया। ऐसा होता हुआ दिखा भी, पर अंदर ही अंदर ध्रुवीकरण की आग जलती रही। इतना जरूर था कि इस बीच विश्व के देशों का एक बड़ा वर्ग अमेरिकी व पश्चिमी परंपरा के नेतृत्व में आ गया। कम्युनिज्म दम तोड़ता नजर आया। विश्व भर के देशों में नये अनियंत्रित उद्योगपतियों का उदय हुआ। जिनके दबाव में विश्व की लगभग दो तिहाई देशों की सरकारों को ग्लोबलाइजेशन की अवधारणा स्वीकार करनी पड़ी। इस प्रकार विश्व भर में एक प्रकार की अमीर और अमीरी की अबाध धारा बहती दिखी। इन उद्योगपतियों का प्रोपोगंडा भी इस स्तर का लगा कि विश्व से गरीबी पूरी तरह से गायब हो गयी है।

बडे़ उद्योगपतियों के हित संरक्षण के खेल में जुटी सरकारें
विश्व भर के अधिकांश देशों की सरकारों पर भी इसका प्रभाव पड़ा। इस प्रकार उद्योग नीतियों में भारी बदलाव हुए। अलग-अलग देशों की जो सरकारें अपने देश की आम जनता के हित के लिए स्थापित की गयीं थीं। जो सरकारें देश की आम जनता को दासत्व से निकालने व अमीरों-पूजीपतियों-शोषकों, अधिनायकवादियों, एकाधिकारवादियों के दबावाें से मुक्त करके संरक्षित व पोषित करने के लिए विश्व भर में मान्य हुईं हुई थीं, उनमें से अधिकांश देशों की सरकारें और विविध देशों के उद्योगपतियों के बीच नये गठजोर बनने लगे। दूसरे शब्दों में सरकारें अपनी जनता की उपेक्षा करने एवं विश्व के बडे़ उद्योगपतियों के हित संरक्षण के खेल में जुट पड़ीं। यह खेल देश स्तर तक ही सीमित नहीं रहा, अपितु अंतर्राष्टीय स्तर पर इन औद्योगिक जगत के एजेंडे स्थापित हुए। एक दृष्टि से आज लोकतंत्र के सहारे पूजीवाद को सही साबित करने का खेल ही तो वैश्विक स्तर पर चल रहा है और सरकारें उनकी मोहरा भर बनकर उनके रास्ते को अबाध करने के लिए ही जैसे खड़ी दिखती हैं।

हर देश की जनता हो रही कंगाल
विश्व की अधिकांश सरकारें इन दिनों अमीरों के साथ खड़ी दिख ही रही हैं, अपितु उन्हीं के लिए कार्य भी कर रही हैं। परिणामतः इन दिनों एक नहीं, अपितु हर देश की जनता कंगाल हो रही है। वह अमेरिका, रूस, चीन, फ्रांस अथवा एशियाई व मध्य एशियाई देशों की ही क्यों न हो। पर देशों की न तो सरकारों की सेहत पर फर्क पड़ता दिखता है, न देश के कुछ गिने चुने पूजीपतियों पर। यद्यपि भारत सहित विश्वभर में तेजी से उद्योगपतियों व सरकारों के बीच का जो गठजोड़ शुरु हुआ था ग्लोबलाइजेशन के दौर से, अब मुखर रूप लेकर उसके दुष्परिणाम दिख रहे हैं। विगत वर्ष आई एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के आधे संसाधनों पर मात्र 100 से भी कम लोगों का नियंत्रण है। जबकि आधे संसाधनों से पूरी दुनिया गुजर बसर कर रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है, बल्कि इन दिनों तेजी से देश की एक बड़ी पूंजी देश के लगभग 10 से 20 व्यत्तिकियों के हाथ सिमटती जा रही। जबकि देश के आम जनता की जेब लगातार कमजोर होती जा रही है।

जीडीपी से लेकर बेरोजगारी के आंकडे़ उदाहरण
इसी वर्ष अपने देश भारत के कुछ गिने चुने लोगों की संपत्ति और उनके शौखमिजाजी में बेतहाशा बृद्धि हुई। जबकि देश की जनता कंगाली की ओर बढ़ रही है। जीडीपी से लेकर बेरोजगारी, महगाई से जुडे़ सरकार के आंकडे़ इसके उदाहरण हैं। जिसे किसी भी दृष्टि से न न्यायोचित ठहराया जा सकता है। न सामाजिक ही, इस क्रूरता के लिए घोर असंवेदनशीलता जैसे शब्द का प्रयोग करना ही उचित है। सम्पूर्ण विश्व स्तर पर बढ़ता यह घोर आर्थिक असंतुलन भिन्न भिन्न देशों में अमीरी-गरीबी के बीच सकमसाहट पैदा कर रहा है, जो कभी सीधा टकराव का रूप ले सकता है। हमारे देश में भी समय समय पर उठते आंदोलन इसी कसमसहाट का परिणाम है। चूंकि कसमसाहट वैश्विक है, इसलिए देश में सीएए से लेकर आज का किसान आंदोलन उस वैश्विकी प्रतिक्रिया से कैसे बच सकता है। यह बात मोदी सरकार जानती है।

सरकारें भी संभावित टकराव से पूंजीपतियों को बचाने के लिए..
आर्थिक असंतुलन के बीच टकराव के मुहाने पर बैठी दुनिया की पीड़ा भरी कसमसाहट विश्व के पूंजीपति लगभग एक दशक पहले से अनुभव कर रहे हैं। इससे बचने के लिए वे किसी ऐसे ऐजेंडे की तलाश में थे, जिससे उनकी कारस्तानी छुपी रहे। परिणामतः उन्होनें अपनी कम्पनियों के साथ साथ अपनी अपनी सरकारों व विश्व की सरकारों पर भी भरपूर पैसा निवेश करने पर तुल रहे हैं। सत्ता के अहम में पोषित सरकारे इन निवशकों के हाथ की कठपुतली बन मीडिया जैसे जन संचार साधनों पर नियंत्रण स्थापित कर वह खेल खेलने में लग भी गयी हैं, जिसकी कल्पना नहीं कि जा सकती। यही नहीं विश्व की समर्थ देशों की सरकारें भी उस संभावित टकराव से पूंजीपतियों को बचाने के लिए वैश्विक स्तर पर हिन्दू-मुस्लिम, कट्टर राष्ट्रवाद, कट्टर नस्लीयता, किसान-जवान जैसे के लिए वैश्विक स्तर पर ले लाया जा रहा है। लगता है इन दिनों हर राष्ट्र के लिए इन्हीं पूजीपतियों व उद्योगपतियों द्वारा एक वैश्विक झूठ भी गढ़ा गया है कि विश्व में हमारा नेशनफर्स्ट, यह भी बचकानापन है। जिससे हर देश की जनता का ध्यान इन काल्पनिक मुद्दों में फंस कर उलझा रहे।

आंदोलन अब वैश्विक हो चला
क्रूर उद्योगपतियों के शोषण पर न जाय और जनता की जेबें दिन दिन खाली होती रहें तथा सरकारों से लेकर उद्योगपतियों आदि सबकी आयाशियां खुले मन से चलती रहें। ऐसे में प्रतिक्रिया स्वरूप आम जनता के हित की एक वैश्विक धारा भी अंदर ही अंदर कार्य करती रही जो आज मुखर होकर सामने दिख रही है। एक देश के अंदर सरकार के विरोध में उठने वाला आंदोलन जो लम्बे समय से सुप्त था, अब वैश्विक हो चला है। वह समाज जो शोषित है, पूजीपतियों के दबाव को अनुभव कर रहा है, वही दूसरे देशों में चल रहे आंदोलनों को समर्थन देने पर तुल गया है। अपने देश के इन किसानों के आंदोलनों पर वैश्विक जगत से फंडिंग होने, व कनाडा जैसे देश के प्रधानमंत्री द्वारा समर्थन देना, देश विदेश के वैश्विक हस्तियों द्वारा किसानों के समर्थन में अपने अवार्ड की वापसी उसी अंतर्राष्टीय एजेंडे का हिस्सा है, जिसे देश की सरकार कुछ भी कहकर बदनाम करने का प्रयास तो कर सकती है, पर इसके अलावा उसे रोकने का साहस नहीं जुटा सकती। वास्तव में आज विश्व भर की सरकारों को मिल रहे अंतर्राष्टीय उद्योगपतियों की सहायता  के समानान्तर विश्व के उपेक्षित जनमानस को भी उसी तर्ज पर शक्ति व सहयोग मिल रहा है। जिसे देखते हुए हमें भारत ही नहीं विश्व भर की सरकारों को आर्थिक संतुलन को दृष्टि में रखकर समाधान के लिए कदम उठाना होगा। मात्र आंदोलनों को आरोपित करते रहेंगे तो बहुत देर हो चुकी होगी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 


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rajesh kumar

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