दोषियों को फांसी देने में अब नहीं होगी देरी, दिशानिर्देश बनाने पर सुनवाई को सुप्रीम कोर्ट राजी

punjabkesari.in Friday, Jan 31, 2020 - 08:33 PM (IST)

नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट मौत की सजा के मामलों में पीड़ित और समाज केंद्रित दिशा निर्देश बनाने के लिए केंद्र की याचिका पर विचार करने के लिए शुक्रवार को राजी हो गया। केंद्र ने 22 जनवरी को याचिका दायर कर दलील दी थी कि मौजूदा दिशानिर्देश केवल आरोपी और दोषी केंद्रित हैं। प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने उन सभी पक्षकारों से जवाब मांगा है जिनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में दोषियों को मौत की सजा देने संबंधित दिशा निर्देश बनाए थे। पीठ में न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत भी शामिल रहे। 2014 में शत्रुघ्न चौहान मामले में दिशा निर्देश बनाए गए थे।

पीठ ने स्पष्ट कर दिया कि केंद्र की याचिका पर सुनवाई करते हुए शत्रुघ्न मामले से संबंधित दोष सिद्धि और मौत की सजा का मुद्दा यथावत रहेगा। पीठ ने शत्रुघ्न चौहान मामले में नामित प्रतिवादियों को नोटिस जारी किया। घृणित अपराध में संलिप्त लोगों के ‘‘न्यायिक प्रक्रिया का मजाक'' बनाने पर गौर करते हुए केंद्र ने 22 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और ब्लैक वारंट जारी होने के बाद फांसी की सजा की समय सीमा सात दिन करने की मांग की।
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2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार मामले में चार दोषियों के फांसी की सजा में विलंब को देखते हुए केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में यह अर्जी दायर की थी। दिल्ली की अदालत ने विनय शर्मा (26), अक्षय कुमार सिंह (31), मुकेश कुमार सिंह (32) और पवन (26) को एक फरवरी को फांसी देने के लिए 17 जनवरी को फिर से मौत का वारंट जारी किया था। याचिकाओं के लंबित रहने के कारण 22 जनवरी को तिहाड़ जेल में उन्हें फांसी नहीं दी जा सकी। दोषियों को, उनके द्वारा कई महीने से समीक्षा, सुधारात्मक और दया याचिकाएं दायर किए जाने के कारण फांसी दिए जाने में विलंब हो रहा है, जिससे निर्भया के माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के न्याय का इंतजार लंबा होता जा रहा है।

केंद्र ने कहा कि आम जनता और पीड़िता एवं उसके परिवार के हित में यह आवश्यक है। शत्रुघ्न चौहान मामले में 2014 में जारी दिशानिर्देशों में संशोधन की मांग करते हुए इसने कहा है, ‘‘सभी दिशानिर्देश आरोपी केंद्रित हैं। इन दिशानिर्देशों में पीड़ितों और उनके परिवार के सदस्यों के मानसिक आघात, क्षोभ, उनके जीवन में उथल-पुथल और अस्त-व्यस्तता का ध्यान नहीं रखा गया। इसमें देश की सामूहिक चेतना और फांसी की सजा के निवारक प्रभावों का संज्ञान नहीं लिया गया।'' केंद्र ने कहा कि 2014 के फैसले से पहले और बाद में घृणित अपराध के दोषियों ने अनुच्छेद 21 (जीवन के अधिकार) की आड़ में ‘‘न्यायिक प्रक्रिया का मजाक'' बनाया।


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Yaspal

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