84 के दंगे! क्या अब बराबर हो सकेगा? कानूनी हिसाब

punjabkesari.in Monday, Jan 15, 2018 - 01:15 PM (IST)

नई दिल्ली (आशुतोष त्रिपाठी) : एक और एसआईटी अब 84 के दंगों की जांच करेगी। यह सुनकर आस तो बहुत नहीं जगती, लेकिन अफसोस ज्यादा जरूर होता है। एक के बाद एक एक जांचें, कई आयोग और तमाम मुकदमों के बादवजूद अदालत का हथौड़ा दंगा पीड़ितों के लिए इस तरह नहीं ठोका जा सका, जिससे उनके साथ इंसाफ होता। दिल्ली में सैकड़ों लाशें बिछ गई थीं, लेकिन आज तक सजा के नाम पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिससे सड़कों पर बहे खून और हत्याओं का हिसाब हो सके। हजारों हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिए जाने के बावजूद इस दंगे का गुनहगार कौन है, इस बात को देश की विधि व्यवस्था आज तक तय नहीं कर सकी। इससे पीड़ितों के साथ न्याय को लेकर सवाल तो उठता ही है, एक बड़ा संदेश यह भी जाता है कि अगर कुछ लोग संवेदनाएं भड़काकर कत्लेआम करवा दें तो उनका और सरेराह लोगों की हत्या वह भी सैकड़ों की संख्या में करने वालों का कुछ नहीं होता। सालों साल बस जांच पर जांच ही चलती रहती है। लेकिन, इसको मिटाने के लिए साल दर साल बस दलीलें दी गईं, मुकम्मल फैसला आज तक नहीं आया।

आरोप लगते आए हैं कि दंगा जब हो रहा था तो सेना की तैनाती तत्परता के साथ नहीं की गई। कांग्रेस के बड़े नेताओं पर आरोप लगे थे कि उन्होंने भड़काया, इसके बाद ही दंगा फैला। पुलिस और सरकार सभी को इन दंगों ने कठघरे में खड़ा किया, लेकिन हुआ क्या? चुनाव में दंगों के जख्म कुरेदे जाते रहे 84 के दंगों पर उस समय तेजी से बात होने लगती है, जब देश में चुनाव आते हैं। प्रचार के दौरान कत्लेआम की बातें चिल्ला-चिल्लाकर की जाती हैं। वर्ष 2014 के आम चुनावों के समय भी दंगों पर खूब चर्चा हुई थी। कई किताबें भी लिखी गईं, जिसमें कल्पना और हकीकत का कॉकटेल बनाकर दंगों की कहानी पेश की गई।  आज की नई पीढ़ी को दंगों की हकीकत केवल उपलब्ध जानकारियों से ही पता चलती है। जिन लोगों ने दंगों को झेला था या तो उस समय कम उम्र के थे या फिर अब बूढ़े हो चुके हैं। बहुत सारे लोग तो दुनिया छोड़कर चले गए। ऐसे में अब दंगों की सच्चाई की चादर में पैबंद लगाए जा रहे हैं। जिसको जैसी जरूरत वह वैसा पैबंद लगा ले रहा है।  


3 दिनों तक हिली थी धरती
31 अक्तूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या कर दी गई थी। इसके बाद जिम्मेदार जुबान से बयान आया था कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। लेकिन, धरती तीन दिनों तक हिलती रही थी और लोग मारे जा रहे थे। सिख समुदाय के लोगों को जहां भी पाया जा रहा था वहीं पर मार दिया जा रहा था। क्या बच्चे, क्या बड़े और क्या बुजुर्ग किसी को भी नहीं छोड़ा गया। हत्या ही नहीं की गई, बल्कि वह सब हुआ जो मानवता के लिए कलंक होता है। अब जब आज तक यह तय नहीं किया जा सका कि इसका जिम्मेदार कौन है, तो क्या-क्या हुआ था इसको बताना तो दूर की बात है। देश की राजधानी में एक तरह का नरसंहार चल रहा था और सरकार उसे रोक नहीं पाई। भारत की आजादी के बाद इस तरह का कत्लेआम जिस तरह हुआ, उसे सुनकर आज भी रूह कांप जाती है। लेकिन, इसमें ठोस इंसाफ आज तक नहीं हुआ। उधर, इंदिरा गांधी की हत्या के जिम्मेदार जो थे, वह फांसी पर लटका दिए गए। 

मुंह बाए खड़े हैं कई सवाल 
-सुनील पाण्डेय

ख दंगों में इंसाफ को लेकर 33 साल से मामला चल रहा है। अब फिर से नई एसआईटी बनाई गई है, लेकिन ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब नहीं है। दंगों के दौरान शारीरिक रूप से विकलांग हुए सैकड़ों लोगों तथा संपत्ति के नुकसान का सामना करने वाले व्यापारियों को बीमा कंपनियों ने नुकसान का मुआवजा देने से इनकार कर दिया था। हालांकि, ढिल्लो कमेटी ने प्रभावित लोगों को मुआवजा देने के लिए बीमा कंपनियों को आदेश दिया था। लेकिन, इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।  इसी तरह दर्जनों गुरुद्वारों में भी आगजनी हुई थी और श्रीगुरुग्रंथ साहिब की बेअदबी हुई थी, लेकिन उस बारे में कोई  एफआईआर नहीं की गई। हालांकि, मंगलोपुरी में 3 गुरुद्वारों को गिराकर पार्क के रूप मे तब्दील करने की जानकारी 2011 में सामने आई थी। लेकिन, उस समय दिल्ली कमेटी ने उन गुरुद्वारों को संभालने के लिए दिलचस्पी नहीं ली। इसी तरह इंसाफ के नाम पर तो सियासी नेताओं ने खूब रोटियां सेंकीं, लेकिन लाशों को ठिकाने लगाने के दोषियों को ढूंढऩे तथा प्रभावितों को मदद के लिए प्रयास किया जाना अभी बाकी है। 

विधवा कॉलोनी में जख्म हो जाते हैं हरे
दिल्ली के तिलक विहार में स्थित ‘विधवा कॉलोनी’ जाते ही दंगों के जख्म हरे हो जाते हैं। यूं तो यहां भी आम गलियों जैसी ही गलियां और घर हैं, लेकिन इस कॉलोनी में रहने वाले लोगों के दर्द और वक्त ने इस कॉलोनी को यह नाम दे दिया है। 84 के सिख दंगों के पीड़ित लोगों को सरकार द्वारा यहां 800 घर दिए गए थे। यहां हर घर में कम से कम एक पुरुष तो इन दंगों में अपनी जान खो ही चुका है। उनकी विधवाओं और बच्चों के लिए अब बस यही घर रह गए हैं। हर घर में मौजूद विधवा के कारण ही इस जगह को ‘विधवा कॉलोनी’ के नाम से बुलाया जाता है। शरीर तो कुछ ही पलों में दम तोड़ देता है, लेकिन जो जिन्दा ही लाश बन जाए वह इंसान हर पल मरता है। सरकार ने उस वक्त 28 हजार रुपए में जनता फ्लैट देकर दंगा पीड़ितों को यहां बसाया था। इसके अलावा रघुबीर नगर, मादीपुर, संगम पार्क, लाजपत नगर गढ़ी, जहांगीरपुरी में भी मकान मिले हैं। जानकारी के मुताबिक करीब 2200 लोगों को मकान मिला है। अभी भी 250 से ज्यादा लोग हैं जो मकान पाने के लिए इंतजार कर रहे हैं।


पीड़ितों को आज तक नहीं मिला रोजगार 
 पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2011 में संसद में खड़े होकर कत्लेआम के लिए माफी मांगते हुए पीड़ितों को रोजगार देने तथा उनका पुनर्वास करने का एलान किया था। लेकिन, वह एलान आज भी अमल होने के इंतजार में खड़ा है। इसलिए, सिख मानते हैं कि इंसाफ की लड़ाई में उनको न्याय की जगह केवल आश्वासन और सियासी जुमलेबाजी का सामाना करना पड़ा। यही नहीं दिल्ली में रही सरकारों ने भी दंगा पीड़ितों के लिए न तो कोई रोजगारपरक योजना चलाई और न ही किसी योजना में आरक्षण दिया। 

एसआईटी नहीं यह नया झुनझुना है: निरप्रीत कौर 
1984 सिख दंगों की प्रमुख गवाह मानी जाने वाली निरप्रीत कौर के मुताबिक सिखों को इस नए झुनझुने (एसआईटी) से बहुत खुश होने की जरूरत नहीं है। उनको कभी भी इंसाफ मिलने वाला नहीं है। कोई भी सरकार एवं राजनीतिक दल सिखों को न्याय देना ही नहीं चाहता है। वह तो सिर्फ ब्लैंक चेक के रूप में सिखों की भावनाओं से खेलती है। कभी चुनाव की चौसर पर तो कभी कांग्रेस के खिलाफ। जस्टिस फॉर विक्टिम ऑर्गनाइजेशन के बैनर तले दंगा पीड़ितों के लिए वर्षों से निरप्रीत लड़ रही हैं। उनका कहना है कि सरकार और कमेटियां हमारे पीड़ितों की आंखों में धूल झोक रहे हैं। अगर इंसाफ दिलाना ही होता तो कब का मिल गया होता। 33 साल बाद एसआईटी बन रही है और कुछ लोग हैं जो एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं। उन्होंने कहा कि सिख नेताओं को भी शर्म आनी चाहिए। सजा किसी को हुई नहीं और बधाई देने में जुट गए हैं। उन्होंने कहा कि चुनाव आने वाला है, इसलिए ड्रामा तो करना ही है। चुनाव हो जाएगा फिर सब भूल जाएंगे। उन्होंने कहा कि 1992 वाली एफआईआर पर ही दोषियों को सजा हो सकती थी, लेकिन सरकारों ने साथ नहीं दिया। कांग्रेस, भाजपा, अकाली दल, आम आदमी पार्टी सब लोग सियासी रोटी सेंक रहे हैं। आगे भी करते रहेंगे। लेकिन, पीड़ित डरे हुए हैं। उन्होंने सवाल किया कि इंदिरा गांधी को जिसने मारा उन्हें दो साल में सजा हो गई। लेकिन, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो हजारों लोग मारे गए उसका आज तक कुछ भी नहीं हुआ।


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