''एक राष्ट्र एक चुनाव'' किसके हित में?
punjabkesari.in Saturday, Sep 21, 2024 - 03:08 PM (IST)
नेशनल डेस्क. पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 'वन नेशन वन इलैक्शन' के लिए गठित समिति ने अपनी जो रिपोर्ट पेश की थी, उस पर मोदी सरकार की कैबिनेट ने मोहर लगा दी है। कैबिनेट का यह फैसला यदि ध्यान भटकाने की एक कवायद मात्र नहीं है तो इसका मतलब यही है कि अब केंद्र सरकार पूरे देश में लोकसभा, विधानसभाओं और निकायों के चुनाव एक साथ कराने के लिए संविधान में संशोधन करेगी। केंद्र सरकार इसके फायदे गिना रही है, लेकिन विपक्ष इसकी अव्यवहारिकता और इस फैसले से पैदा होने वाले संवैधानिक संकट को लेकर चिताएं जाहिर कर रहा है। आइए इसे समझने का प्रयास करते हैं-
समिति ने भी अपनी रिपोर्ट की शुरूआत में ही विपक्ष की आपत्तियों का जिक्र किया है जिसमें कहा गया है पूरे देश में एक साथ चुनाव का विरोध करने वाले दलों ने यह मुद्दा उठाया कि यह विकल्प अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा। यह अलोकतांत्रिक, संघीय ढांचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलग-थलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा और इसका परिणाम राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगा। गौरतलब है कि संविधान में यह संशोधन लाने के लिए आवश्यक संख्याबल सत्ताधारी दल के पास नहीं है।
राजनीतिक प्रक्रिया की गतिशीलता पर चोट: समिति की रिपोर्ट यह मानती है कि भारत में जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू हुई तो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही शुरू पूर्व राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 'वन नेशन वन इलैक्शन' के लिए गठित समिति ने अपनी जो रिपोर्ट पेश की थी, उस पर मोदी सरकार की कैबिनेट ने मोहर लगा दी है। कैबिनेट का यह फैसला यदि ध्यान भटकाने की एक कवायद मात्र नहीं है तो इसका मतलब यही है कि अब केंद्र सरकार पूरे देश में लोकसभा, विधानसभाओं और निकायों के चुनाव एक साथ कराने के लिए संविधान में संशोधन करेगी। केंद्र सरकार इसके फायदे गिना रही है, लेकिन विपक्ष इसकी अव्यवहारिकता और इस फैसले से पैदा होने वाले संवैधानिक संकट को लेकर चिताएं जाहिर कर रहा है। आइए इसे समझने का प्रयास करते हैं- समिति ने भी अपनी रिपोर्ट की शुरूआत में ही विपक्ष की आपत्तियों का जिक्र किया है जिसमें कहा गया है पूरे देश में एक साथ चुनाव का विरोध करने वाले दलों ने यह मुद्दा उठाया कि यह विकल्प अपनाना संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन होगा। यह अलोकतांत्रिक, संघीय ढांचे के विपरीत, क्षेत्रीय दलों को अलग-थलग करने वाला और राष्ट्रीय दलों का वर्चस्व बढ़ाने वाला होगा और इसका परिणाम राष्ट्रपति शासन की ओर ले जाएगा। गौरतलब है कि संविधान में यह संशोधन लाने के लिए आवश्यक संख्याबल सत्ताधारी दल के पास नहीं है।
राजनीतिक प्रक्रिया की गतिशीलता पर चोट: समिति की रिपोर्ट यह मानती है कि भारत में जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू हुई तो लोकसभा हुए थे, लेकिन 1960 0 के दशक में विभिन्न कारणों से सबके चुनाव अलग-अलग होने लगे। समिति को सुझाव देने वाले 'विशेषज्ञों' ने वही 'पूर्व की स्थिति को बहाल' करने का सुझाव दिया। यानी अगर यह सिफारिश लागू होती है तो यह सुधार की नहीं, बल्कि 70 साल पुरानी स्थिति को बहाल करने की कवायद है। सारे चुनाव कितने समय के लिए एक साथ हो पाएंगे? अब सबसे बड़ा सवाल है कि संविधान में संशोधन करके सारे चुनाव एक साथ करा दिए जाएं तो क्या गारंटी है कि 20 साल बाद ऐसी ही स्थिति फिर नहीं बनेगी? किसी राज्य में मध्यावधि चुनाव की स्थिति बनी तो क्या होगा? इसका जवाब दिया जा रहा है कि अगर कोई सरकार 3 साल बाद गिर गई तो मध्यावधि चुनाव होंगे, लेकिन उसका कार्यकाल सिर्फ 2 साल का होगा। लोकसभा का कार्यकाल खत्म होने के साथ ही विधानसभा का कार्यकाल भी स्वतः समाप्त माना जाएगा। यानी मध्यावधि चुनाव पर खर्च तो तब भी होगा, लेकिन उस विधानसभा का 5 साल सरकार चलाने का अधिकार जरूर छीन लिया जाएगा।
कई चुनाव, ज्यादा खर्च का सच: पहला तर्क है कि बार-बार चुनाव में खर्च अधिक होता है और देश पर आर्थिक बोझ बढ़ता है। अगर सारे चुनाव एक साथ करा दिए जाएं तो निश्चित तौर पर कुछ करोड़ रुपए बचेंगे। लेकिन यह राशि कितनी होगी? क्या देश के कुल बजट का आधा या एक प्रतिशत भी होगा? जवाब है नहीं। चुनाव 5 साल में सिर्फ एक बार होगा, क्योंकि चुनाव में खर्च होता है तो फिर मध्यावधि चुनाव का प्रावधान क्यों जो विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती करेगा? फिर 5 साल ही क्यों? 10 साल क्यों नहीं? 20 साल क्यों नहीं ? क्या लोकतंत्र की कीमत अब पैसे में तौली जाएगी ? केंद्र और राज्य की सरकारों का चुनाव जनता करती है, वह काम के आधार पर राजनीतिक दलों और नेताओं को सबक भी सिखाती है, क्या जनता के इस महान अधिकार को कुछ करोड़ रुपयों के लिए छीना जा सकता है?
मतदान के आंकड़े क्या कहते हैं?: दूसरा तर्क है कि बार-बार चुनाव से मतदाताओं में चुनाव के प्रति उदासीनता आती है। लोकसभा चुनाव-2024 में 65.79 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान किया। इसके पहले 2019 में 67.40 प्रतिशत, 2014 में 66.4 प्रतिशत, 2009 में 58 प्रतिशत और 2004 में 58.7 प्रतिशत मतदान हुआ था। इन 20 सालों में तो मतदान प्रतिशत थोड़ा नीचे-ऊपर होने के साथ लगातार बढ़ा है। क्या इसे मतदाताओं की उदासीनता माना जा सकता है?