Kawad Yatra: जानिए कैसे शुरू हुई कांवड़ यात्रा की पवित्र परंपरा और क्यों है ये शिवभक्तों के लिए इतना खास

punjabkesari.in Friday, Jul 18, 2025 - 03:51 PM (IST)

नेशनल डेस्क: वाराणसी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 'बिरसा मुंडा संगोष्ठी' में भाग लेते हुए कांवड़ यात्रा और मोहर्रम जुलूस को लेकर अपनी बात रखी। उन्होंने सावन के पावन महीने में भगवान शिव के भक्तों द्वारा केसरिया वस्त्र पहनकर निकाली जाने वाली कांवड़ यात्रा की भक्ति और श्रद्धा की प्रशंसा की। साथ ही उन्होंने सोशल मीडिया और मीडिया में कांवड़ यात्रियों के खिलाफ की गई गलत टिप्पणियों पर नाराजगी जताई। योगी ने कहा कि कांवड़ियों को आतंकवादी कहना और उनका अपमान करना बिल्कुल गलत है। उन्होंने जौनपुर में ताजिया जुलूस के दौरान हुई घटना पर भी अपनी प्रतिक्रिया दी और कहा कि नियमों का पालन करना आवश्यक है, लेकिन नियम तोड़ने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी।

आइए जानते हैं कांवड़ यात्रा का पौराणिक इतिहास, इसकी शुरुआत कैसे हुई और इसका धार्मिक महत्व क्या है...

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सावन का महीना आते ही देशभर में भगवान शिव के भक्त केसरिया रंग के वस्त्र पहनकर कांवड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं। यह यात्रा गंगाजल लेकर शिवलिंग पर जलाभिषेक करने की होती है। खासकर उत्तर भारत में यह परंपरा बहुत धूमधाम से मनाई जाती है। हजारों श्रद्धालु लंबी दूरी तय करते हैं, ताकि वे पवित्र गंगा नदी का जल लेकर अपने आराध्य शिव जी को अर्पित कर सकें कांवड़ यात्रा का इतिहास कई धार्मिक कथाओं और मान्यताओं से जुड़ा हुआ है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस यात्रा की शुरुआत अनेक महान पुरुषों और देवताओं से हुई।

भगवान परशुराम की कथा

एक मान्यता के अनुसार सबसे पहले भगवान परशुराम ने कांवड़ यात्रा की थी। वे गढ़मुक्तेश्वर के निकट स्थित पुरा महादेव मंदिर में जल चढ़ाने के लिए गंगाजल लेकर आए थे। आज भी कांवड़ यात्रा के कई रास्ते उन्हीं पुराने मार्गों से होकर गुजरते हैं।

श्रवण कुमार और कांवड़ यात्रा

त्रेतायुग में श्रवण कुमार का नाम भी कांवड़ यात्रा से जुड़ा हुआ है। कथा के अनुसार उन्होंने अपने अंधे माता-पिता की तीर्थ यात्रा की इच्छा पूरी करने के लिए उन्हें कांवड़ में बैठाकर हरिद्वार ले जाकर गंगा स्नान कराया। लौटते समय गंगाजल लेकर घर लौटे, जिससे यह परंपरा शुरू हुई।

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भगवान राम की यात्रा

एक और मान्यता है कि भगवान राम ने भी कांवड़ यात्रा की थी। उन्होंने बिहार के सुल्तानगंज से गंगा जल भरकर देवघर स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था। इसे भी कांवड़ यात्रा की शुरुआत माना जाता है।

रावण और पुरा महादेव की कथा

पुराणों में यह भी वर्णित है कि समुद्र मंथन के समय निकले विष को पीने के बाद शिवजी का कंठ नीला पड़ गया था। रावण ने उनकी आराधना करने के लिए गंगाजल लेकर पुरा महादेव पहुंचा और जलाभिषेक किया। इससे शिवजी विष के प्रभाव से मुक्त हुए। कहा जाता है कि यहीं से कांवड़ यात्रा की परंपरा की शुरुआत हुई।

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देवताओं का जलाभिषेक

एक और मान्यता यह भी है कि जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले हलाहल विष को पीया, तो देवताओं ने उनकी पीड़ा दूर करने के लिए पवित्र नदियों का शीतल जल उनके ऊपर अर्पित किया। यही जलाभिषेक की शुरुआत हुई, जो आज कांवड़ यात्रा के रूप में मनाया जाता है।

कांवड़ यात्रा का धार्मिक महत्व

कांवड़ यात्रा केवल जल लाने की यात्रा नहीं है, बल्कि यह भक्ति, श्रद्धा और तपस्या का प्रतीक है। शिवभक्तों के लिए यह यात्रा अपने मन को शुद्ध करने और ईश्वर के प्रति अपनी निष्ठा जताने का माध्यम है। यात्रा के दौरान भक्त कठोर तपस्या करते हैं, चलते चलते झुकते हैं, और कई किलोमीटर पैदल चलकर भगवान शिव की पूजा करते हैं।

आज का समय और कांवड़ यात्रा

आज कांवड़ यात्रा लाखों भक्तों के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सव बन चुकी है। सावन के महीने में ये यात्रा अपने चरम पर होती है। श्रद्धालु समूहों में या अकेले भी इस यात्रा को करते हैं। कई जगहों पर प्रशासन भी इसकी व्यवस्था करता है ताकि भक्तों को सुविधा मिल सके।


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Content Editor

Ashutosh Chaubey

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