नैतिकता, सदाचार पर समाज को उपदेश देने वाली संस्था नहीं है अदालत, सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी

punjabkesari.in Saturday, May 27, 2023 - 05:57 PM (IST)

नेशनल डेस्क: उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अदालत नैतिकता एवं सदाचार पर समाज को उपदेश देने वाली संस्था नहीं है, बल्कि यह निर्णय सुनाते समय कानून के शासन से बंधी होती है। शीर्ष अदालत ने अपने दो बच्चों की हत्या की एक महिला अपराधी की समय पूर्व रिहाई का आदेश देते हुए यह टिप्पणी की। महिला के एक पुरुष से अवैध संबंध थे, जो उसे अकसर डराया-धमकाया करता था, इसलिए उसने अपने बच्चों की हत्या करके आत्महत्या करने का फैसला किया।

बरी किया लेकिन दोषसिद्धि बरकरार रखी
उसने पौधों के लिए इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक खरीदे और अपने दोनों बच्चों को जहर दे दिया। इसके बाद जब वह स्वयं कीटनाशक पीने लगी तो उसकी रिश्तेदार ने इसे गिरा दिया। बच्चों को अस्पताल ले जाया गया, जहां उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई। निचली अदालत ने महिला को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 (हत्या) और 309 (आत्महत्या) के तहत दोषी ठहराया और उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई तथा उस पर जुर्माना लगाया। उच्च न्यायालय ने महिला की याचिका स्वीकार करते हुए उसे आईपीसी की धारा 309 के तहत बरी कर दिया, लेकिन धारा 302 के तहत उसकी दोषसिद्धि बरकरार रखी।

महिला ने समय पूर्व रिहाई का अनुरोध करते हुए कहा कि वह करीब 20 साल से जेल में है, लेकिन तमिलनाडु सरकार ने उसके द्वारा किए गए अपराध की क्रूर प्रकृति को देखते हुए राज्य स्तरीय समिति की सिफारिश को खारिज कर दिया था। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अजय रस्तोगी और न्यायमूर्ति एहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि महिला ने अपने अवैध संबंधों को जारी रखने के लिए अपने बेटों की हत्या करने की कोशिश नहीं की। उसने कहा, ‘‘उसने अपने प्रेमी के साथ अवैध संबंधों को जारी रखने के लिए नहीं, बल्कि उसके (प्रेमी) द्वारा किए गए झगड़े के कारण हताशा और निराशा में बच्चों की हत्या के बाद आत्महत्या करने की कोशिश की थी।''

'कानून के शासन से बंधे हुए हैं'
पीठ ने कहा, ‘‘अदालत समाज को नैतिकता और सदाचार पर उपदेश देने वाली संस्था नहीं है तथा हम इस बारे में और कुछ नहीं कहेंगे, क्योंकि हम सोच विचारकर बनाए गए कानून के शासन से बंधे हुए हैं।'' शीर्ष अदालत ने कहा कि इस मामले को केवल‘‘क्रूर'' अपराध की श्रेणी में बांधकर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि महिला ने अपनी जान भी लेने की कोशिश की थी, लेकिन उसकी रिश्तेदार ने समय पर उसे रोक दिया। उसने कहा कि इसके अलावा, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक/कारागार महानिरीक्षक द्वारा उपलब्ध कराई गई राज्य स्तरीय समिति की सिफारिश में इस बात का जिक्र किया गया है कि वह पहले ही लंबी अवधि जेल में काट चुकी है।

शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्य स्तरीय समिति की महिला की समय पूर्व रिहाई संबंधी सिफारिश को स्वीकार नहीं करने का कोई वैध कारण या न्यायोचित आधार नहीं है। पीठ ने कहा, ‘‘हम अपराध से अनभिज्ञ नहीं हैं, लेकिन हम इस तथ्य से भी अनजान नहीं हैं कि याचिकाकर्ता (मां) पहले से ही भाग्य के क्रूर हाथों काफी कुछ झेल चुकी है। उसके कारण के बारे में अदालत बात नहीं करना चाहती।'' उसने कहा, ‘‘याचिकाकर्ता को सरकार के अतिरिक्त मुख्य सचिव के हस्ताक्षर के तहत गृह (जेल-चार) विभाग द्वारा जारी शासकीय आदेश के अनुसार समय से पहले रिहाई के लाभ का पात्र माना जाता है और यदि याचिकाकर्ता को किसी अन्य मामले में कारावास में रखने की आवश्यकता नहीं है तो उसे तत्काल रिहा करने का निर्देश दिया जाता है।'' 

 

 


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Content Editor

rajesh kumar

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