नाना की संपत्ति में नातिन का जन्मसिद्ध अधिकार नहीं, बॉम्बे HC ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को किया स्पष्ट
punjabkesari.in Tuesday, Oct 28, 2025 - 08:44 PM (IST)
नेशनल डेस्क : भारत में पैतृक संपत्ति महज़ धन से कहीं ज़्यादा है, यह पारिवारिक जड़ों, रिश्तों और पीढ़ियों से चली आ रही विरासत को दर्शाती है। फिर भी, जब विरासत के सवाल उठते हैं, तो ये संबंध अक्सर जटिल कानूनी लड़ाई का मैदान बन जाते हैं।
बॉम्बे हाई कोर्ट के हालिया फैसले ने इन विरासतों की सीमाओं पर रोशनी डाली है, यह स्पष्ट करते हुए कि बेटी के बच्चे (नवासी/नातिन) अपने नाना की पैतृक संपत्ति में हिस्सा होने का दावा नहीं कर सकते। इस फैसले ने ऐतिहासिक हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के दायरे को स्पष्ट किया है, जिसने बेटियों को संयुक्त परिवार की संपत्ति में सहदायिक (Coparcener) के रूप में बेटों के बराबर अधिकार दिए थे।
संयुक्त परिवार की संपत्ति में अधिकार
हिंदू मिताक्षरा कानून के तहत, एक 'सहदायिक' (Coparcener) जन्म से ही पैतृक संपत्ति में स्वचालित अधिकार और हिस्सा प्राप्त करता है, साथ ही संपत्ति के बँटवारे की माँग करने का अधिकार भी रखता है। ऐतिहासिक रूप से, यह अधिकार केवल पिता और उनके पुरुष वंशजों तक ही सीमित था। 2005 के अधिनियम के हस्तक्षेप से यह स्थिति बदल गई, जिसने बेटियों को बेटों के बराबर सहदायिक अधिकार दिए और उन्हें संयुक्त परिवार की संपत्ति में अपने हिस्से का बँटवारा माँगने की अनुमति दी। हालांकि यह परिवर्तनकारी था, 2005 के अधिनियम ने कई व्याख्यात्मक चुनौतियाँ पैदा कीं, खासकर बेटी के बच्चों के उनके नाना की पैतृक संपत्ति में अधिकारों के बारे में।
पारंपरिक मिताक्षरा कानून के तहत, बेटी के बच्चों का उनके नाना की संपत्ति में कोई जन्मसिद्ध अधिकार नहीं था। दुर्लभ मामलों में, संपत्ति केवल उत्तराधिकार (Succession) के माध्यम से उन तक पहुँच सकती थी, यदि नाना की मृत्यु बिना किसी पुत्र या पुत्र के वंशज के हो जाती थी। इसे 'पार्श्विकों से विरासत' (inheritance from collaterals) कहा जाता था और इसे पैतृक संपत्ति से अलग माना जाता था।
2005 के अधिनियम ने स्पष्ट रूप से कहा कि एक बेटी 'अपने अधिकार से' सहदायिक है और उसके पास एक बेटे के समान अधिकार और दायित्व हैं। हालाँकि, यह उसके बच्चों के अधिकारों पर मौन रहा। तर्क यह था कि यदि बेटी और बेटा समान हैं, तो उनके बच्चों को भी समान माना जाना चाहिए, लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट ने हाल ही में बताया कि ऐसा क्यों नहीं है।
बॉम्बे हाई कोर्ट ने तय की कानूनी सीमा
विश्वंभर बनाम सौ सुनंदा मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट के समक्ष, नातिन (वादी) ने अपने नाना की पैतृक संपत्तियों के बँटवारे और उसमें हिस्सा होने का दावा किया। नाना का निधन हो चुका था, और उनके पीछे चार बेटे और चार बेटियाँ थीं, जिनमें से वादी की माँ (नाना की बेटी) जीवित थी। कार्यवाही के दौरान एक प्रमुख प्रश्न उठा कि क्या एक मातृत्व नातिन (Maternal Granddaughter) अपने नाना की संयुक्त परिवार की संपत्ति के बँटवारे की माँग कर सकती है।
कोर्ट ने इस दावे को निर्णायक रूप से खारिज कर दिया, यह मानते हुए कि नातिन संपत्ति के बँटवारे के लिए मुकदमा दायर नहीं कर सकती। कोर्ट ने टिप्पणी की कि जबकि 2005 के अधिनियम के तहत बेटों और बेटियों के पास समान अधिकार हैं, बेटी के बच्चों को कानून द्वारा कोई अधिकार नहीं दिया गया है। इसके अलावा, चूंकि नातिन अपने नाना के पुरुष वंश की रेखीय वंशज नहीं थी, इसलिए संयुक्त परिवार की संपत्ति में उसका कोई जन्मसिद्ध अधिकार नहीं था।
सुप्रीम कोर्ट के विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा मामले में दिए गए अवलोकन पर भरोसा करते हुए, बॉम्बे हाई कोर्ट ने माना कि पैतृक संपत्ति में मातृत्व नातिन का हित एक बाधित विरासत या 'सप्रतिबंध दया' (sapratibandha daya) था। इसका मतलब है कि विरासत प्राप्त करने का उसका अधिकार एक अन्य जीवित व्यक्ति उसकी माँ के अस्तित्व से बाधित होता है, जिसका पूर्व दावा है। वह केवल अपनी माँ के निधन के बाद उत्तराधिकार से विरासत प्राप्त कर सकती थी, न कि जन्म से सहदायिक के रूप में।
संभावित 'दोहरा दावा' रोकने का उद्देश्य
बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फैसला अविभाजित पैतृक संपत्ति रखने वाले हिंदू परिवारों के लिए उत्तराधिकार कानूनों पर बहुत आवश्यक स्पष्टता प्रदान करता है। विशेष रूप से, यह मातृत्व पोते-पोतियों को 'दोहरा दावा' (Double Dip) करने से रोकता है, जिसका अर्थ है कि वे सहदायिक के रूप में एक साथ अपने नाना और दादा दोनों की पैतृक संपत्तियों में जन्मसिद्ध अधिकार का दावा नहीं कर सकते।
इस फैसले का एक परिणाम यह है कि बेटे की बेटी (पैतृक नातिन) को जन्म से सहदायिक माना जाता है, जबकि बेटी का बेटा/बेटी (मातृत्व नवासी/नातिन) को नहीं भले ही उनके संबंधित माता-पिता समान अधिकारों वाले सहदायिक हों। कोर्ट ने कानून को स्पष्ट करते हुए भी, पुरुष और महिला सहदायिकों के बच्चों के बीच इस निहित अंतर को संबोधित नहीं किया।
परिणामस्वरूप, हालिया फैसला संयुक्त परिवार की संपत्ति की निरंतरता को पुरुष वंश (Male Lineage) के साथ पुष्ट करता है, भले ही 2005 के अधिनियम ने बेटियों को सहदायिक के रूप में मान्यता दी हो। एक महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि नाना की संपत्ति में हिस्सा माँगने का जन्मसिद्ध अधिकार बेटी के पास है, न कि उसके बच्चों के पास, जो 2010 में दिल्ली हाई कोर्ट द्वारा लिए गए एक समान दृष्टिकोण को पुष्ट करता है।
जबकि परिवार अब अधिक निश्चितता के साथ विरासत को संभाल सकते हैं, बॉम्बे हाई कोर्ट का यह निर्णय विरासत कानूनों की जटिलताओं को दर्शाता है जो आधुनिक समानता को सदियों पुरानी रीति-रिवाजों के साथ मिलाने की कोशिश करते हैं।
