Bihar Assembly Election : कौन था बिहार का पहला मुख्यमंत्री और क्या थी उनकी उपलब्धियां? जानें

punjabkesari.in Tuesday, Oct 07, 2025 - 06:53 PM (IST)

नेशनल डेस्क : बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मियां तेज हो चुकी हैं। नवंबर में होने वाले इस चुनाव के लिए सड़कों पर रंग-बिरंगी झंडियां, पोस्टर और नेताओं की सभाएं नजर आने लगी हैं। सभी पार्टियां अपनी रणनीति को अंतिम रूप देने में जुटी हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि बिहार का पहला विधानसभा चुनाव कब और कैसे हुआ था? आइए, आपको बिहार के पहले चुनाव (1952) की कहानी और उस दौर के सियासी समीकरणों से रूबरू कराते हैं।

बिहार का पहला चुनाव: 1952 में लोकतंत्र की शुरुआत
स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव (1951-52) के हिस्से के रूप में बिहार में पहला विधानसभा चुनाव 1952 में हुआ। उस समय बिहार में कुल 330 विधानसभा सीटें थीं, जिनमें 276 एकल और 50 दो-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र शामिल थे। साक्षरता दर मात्र 13-14% होने के कारण चुनाव आयोग ने मतदान को आसान बनाने के लिए रंग-बिरंगे बैलट बॉक्स और प्रतीकों (चिह्नों) वाले मतपत्रों का इस्तेमाल किया, ताकि अनपढ़ मतदाता भी आसानी से वोट डाल सकें।

कौन-कौन सी पार्टियां थीं मैदान में?
1952 के चुनाव में 13 राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां मैदान में थीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (INC) सबसे बड़ी ताकत थी, जिसने 322 सीटों पर उम्मीदवार उतारे। अन्य प्रमुख दलों में हिंदू महासभा, भारतीय जनसंघ, रामराज्य परिषद, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, वामदल, झारखंड पार्टी, चोटानागपुर संथाल परगना जनता पार्टी (सीएनएसपीजेपी), लोक सेवक संघ (एलएसएस) और स्वतंत्र उम्मीदवार शामिल थे।

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चुनाव परिणाम: कांग्रेस का दबदबा
चुनाव परिणामों में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 239 सीटें जीतीं और सत्ता पर कब्जा जमाया। झारखंड पार्टी को 32, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 23, सीएनएसपीजेपी को 11, लोक सेवक संघ को 7, स्वतंत्र उम्मीदवारों को 14 और अन्य छोटे दलों को 4 सीटें मिलीं। कुल 1,80,80,181 मतदाताओं में से 99,95,451 ने वोट डाला, यानी मतदान प्रतिशत 55.3% रहा।

श्रीकृष्ण सिंह बने पहले मुख्यमंत्री
चुनाव के बाद 2 अप्रैल 1952 को श्रीकृष्ण सिंह, जिन्हें 'श्री बाबू' या 'बिहार केसरी' के नाम से जाना जाता है, बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने। वे 1946 से अंतरिम सरकार में मुख्यमंत्री थे और 1952 के बाद भी 1961 तक इस पद पर रहे। उनके साथ अनुग्रह नारायण सिन्हा उपमुख्यमंत्री बने। इस सरकार ने जमींदारी उन्मूलन और गरीबों को जमीन देने जैसे ऐतिहासिक कदम उठाए, जिन्होंने बिहार की सामाजिक-आर्थिक नींव को मजबूत किया। कांग्रेस के दिग्गज नेता श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिन्हा इस चुनाव के केंद्र में थे। अन्य प्रमुख विजेता नेताओं में लालगंज से जीते एलपी शाही और चंद्रमणि लाल चौधरी, साथ ही महुआ से विजयी वीरचंद्र पटेल शामिल थे।

उस दौर की खास बातें
1952 का चुनाव बिहार में लोकतंत्र की पहली कसौटी था। लोग घंटों पैदल चलकर वोट डालने पहुंचे। रंग-बिरंगे बैलट बॉक्स और केवल चुनाव चिह्नों वाले मतपत्रों ने इसे अनूठा बनाया। इतिहासकारों के अनुसार, यह चुनाव समाज को एकजुट करने का जरिया बना। मतपत्रों पर उम्मीदवारों के नाम के बजाय सिर्फ प्रतीक होते थे, जो अनपढ़ मतदाताओं के लिए सुविधाजनक था।

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बिहार केसरी श्रीकृष्ण सिंह की मुख्य उपलब्धियां

श्रीकृष्ण सिंह की सबसे बड़ी उपलब्धि भूमि सुधार रही, जिसके तहत ज़मींदारी प्रथा को समाप्त किया गया और किसानों को उनके हक की जमीन उपलब्ध कराई गई। इससे ग्रामीण गरीबों की स्थिति में सुधार हुआ और सामाजिक न्याय को मजबूती मिली।

श्रीकृष्ण सिंह ने शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में भी बड़े कदम उठाए। उनके शासनकाल में सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ाई गई और ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का निर्माण किया गया। इससे राज्य के विकास में सुधार और सामाजिक ढांचे में मजबूती आई।

प्रशासनिक सुधारों के क्षेत्र में भी उन्होंने महत्वपूर्ण पहल की। भ्रष्टाचार पर सख्ती दिखाई और सरकारी कामकाज की कार्यकुशलता बढ़ाने के लिए कई नीतियां लागू की गईं। इसके साथ ही, उन्होंने दलितों और पिछड़े वर्गों के अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई, जिससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिला।

उनकी दूरदर्शिता और नीतियों ने बिहार में राजनीतिक स्थिरता भी सुनिश्चित की। श्रीकृष्ण सिंह का कार्यकाल बिहार की राजनीति और समाज में स्थायी बदलाव के लिए याद किया जाता है। उनकी उपलब्धियों ने उन्हें “बिहार केसरी” का दर्जा दिलाया और आज भी वे राज्य के सबसे प्रभावशाली नेताओं में गिने जाते हैं।

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2025 की ओर नजर
1952 से लेकर अब तक बिहार की राजनीति में गठबंधनों, जातिगत समीकरणों और विकास के मुद्दों ने अहम भूमिका निभाई है। 2025 के चुनाव में भी एनडीए और महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर होने की उम्मीद है। जैसे-जैसे बिहार में सियासी माहौल गर्म हो रहा है, श्री बाबू के दौर की सादगी और लोकतंत्र की पहली लहर आज भी प्रेरणा देती है।


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Content Editor

Shubham Anand

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