‘डा. कलाम के पदचिन्हों’ पर चलने का अनुरोध क्यों नहीं करते ओवैसी

punjabkesari.in Sunday, Aug 02, 2015 - 12:30 AM (IST)

(वीरेन्द्र कपूर): गत सप्ताह बहुत बड़ी-बड़ी खबरों से भरा रहा है। पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के जानलेवा हृदयाघात से उस प्रसारण समय में व्यवधान आ गया जो कार्यक्रम के प्रस्तोताओं ने खुद को बहुत चतुर-सुजान मानते हुए  केवल याकूब मेमन के लिए ही आरक्षित रखा था कि मुम्बई के पाश्विक धमाकों  का अभियुक्त सिद्ध हो चुका यह व्यक्ति अपने अंजाम तक पहुंचने से बचने के लिए कौन-कौन से अंतिम प्रयास कर सकता है। मेमन आखिरकार अपने प्रयासों में विफल रहा, लेकिन इससे  पहले जाने-अनजाने उसने कानून के राज और विधिवत प्रक्रिया की सर्वोच्चता को एक बार फिर प्रमाणित कर दिया। 

उच्च न्यायपालिका और राजनीतिक कार्यपालिका दोनों ने ही यथायोग्य संयम और सलीके से मेमन प्रकरण को हैंडल किया। यहां तक कि जिन वकीलों ने उसको जीवनदान दिलाने के लिए हताशापूर्ण प्रयास किए, वे भी प्रशंसा के हकदार हैं। इस प्रकार के हस्तक्षेप फरियादी और मुद्दई दोनों को ही यह विश्वास दिलाते हैं कि ऊट-पटांग मानसिकता वाले लोगों की मौजूदगी के बावजूद हम अभी भी एक खुला और उदार समाज हैं जहां अनेक प्रकार के विचारों के लिए गुंजाइश मौजूद है। 
 
शायद यही कारण है कि असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग जब भी खुद को अपने समुदाय के मसीहा के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं तो उनका राग बहुत बेसुरा लगता है। सच्चाई तो यह है कि ओवैसी जब भी मुंह खोलते हैं, आसपास का वातावरण नियमित रूप में दूषित हो जाता है। यह तथ्य उल्लेखनीय है कि दूसरों के लिए एक रोल माडल बन चुके पूर्व राष्ट्रपति की स्तुति में उनके पास कहने को कुछ भी नहीं है। कलाम के लिए भी अपना धार्मिक विश्वास बहुत महत्वपूर्ण था, लेकिन यह नितांत उनका निजी मामला था। उन्होंने सदा एक आदर्श भारतीय व्यक्ति के रूप में व्यवहार किया, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जो जाति, पंथ, मजहब या इलाके का भेद किए बिना हर एक को प्रेरित करता था। 
 
ओवैसी जैसे लोगों को जो सवाल खुद से अनिवार्य रूप में पूछना चाहिए वह यह है कि उनके समुदाय में कलाम जैसे व्यक्ति इतनी कम गिनती में क्यों पैदा होते हैं। आखिर कलाम भी तो गरीबी में ही पैदा हुए थे। उनका बचपन भी बहुत कठिनाइयों में गुजरा था। लेकिन केवल कठोर श्रम और दृढ़ इरादे की बदौलत वह पहले तो भारत के ‘मिसाइलमैन’ और फिर ‘आम लोगों के राष्ट्रपति’ बने।
 
ओवैसी अपने हम-मजहब लोगों को एक नए प्रयोग के रूप में कलाम के पदचिन्हों पर चलने का अनुरोध करके उन पर अहसान क्यों नहीं करते? वह बेगुनाह भारतीयों की हत्या करने वालों की वकालत क्यों करते हैं और यदि सीधे नहीं तो परोक्ष रूप में उन्हें अपने समुदाय के समक्ष रोल माडल के रूप में प्रस्तुत क्यों करते हैं? कलाम एक महान मुस्लिम थे, भारत के एक महान सुपूत। मेमन इन दोनों में से कुछ भी नहीं था। ओवैसी को सार्वजनिक मंचों से कम से कम इस तथ्य की स्वीकारोक्ति करने की तत्परता तो दिखानी ही चाहिए। 
 
लेकिन उनके अब तक के व्यवहार से तो यही लगता है कि वह ऐसा कदापि नहीं करेंगे, क्योंकि उनकी पूरी राजनीति ही अलगाववाद और कट्टरवाद की लपटें भड़काने पर केन्द्रित है। यदि उनका यही व्यवहार जारी रहा तो सचमुच में ऐसा खतरा है कि उनका समुदाय मेमन जैसे तो कई लोग पैदा करेगा, लेकिन कलाम जैसा शायद ही कोई पैदा हो। यह ऐसी सच्चाई है जिससे हम सभी को ङ्क्षचतित होना चाहिए। 
 
इसलिए हमारे सामने असली चुनौती यह है कि ओवैसी जैसे लोगों को अप्रासंगिक कैसे बनाया जाए? यह खास तौर पर मुख्य धारा की पाटयों के लिए चुनौती है और उन्हें पूर्व राष्ट्रपति के लिए उपयुक्त स्मारक का निर्माण करने हेतु अवश्य ही आपस में सहयोग करना चाहिए। आज के संतप्त युग में जब सामाजिक ताना-बाना ओवैसी और उन्हीं की प्रतिध्वनि को बुलंद करने वाले हिन्दू कट्टरपंथियों की नौटंकियों से तार-तार हो रहा है तो कलाम के लिए बना स्मारक पूरे देश के लिए प्रेरणा बनेगा। 
 
मुस्लिमों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि नरम पंथ का मार्ग राष्ट्रपति भवन तक ले जा सकता है, जबकि कट्टरवाद का रास्ता आत्म-विनाश और वीरानी की ओर ले जाता है। दोनों में इतना अधिक फर्क है कि चयन करना कोई कठिन काम नहीं। 
 
घोर गरीबी और उपेक्षा के शिकार एक विशाल समुदाय के लिए कलाम का रास्ता निश्चय ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है, बेशक यह प्रक्रिया कितनी भी धीमी क्यों न हो। शिक्षा पर बल देने से विभिन्न समुदायों के बीच की खाई पाटने में सहायता मिलेगी और इससे समाज में जुड़ाव और शांति बढ़ेगी। किसी भी प्रकार के कट्टरवाद और उग्रपंथ के जहर के विरुद्ध शिक्षा ही सबसे अधिक कारगर काट है। 
 
लेकिन हजारों मदरसों में शिक्षा दे रहे मौलवी क्या कलाम की तर्ज पर खुद को सैकुलर पाठ्यक्रम से अवगत कराने का कष्ट उठाएंगे ताकि उनके शिष्य इन मदरसों की दमघोटू दीवारों के बाहर मौजूद शिक्षा के व्यापक बाजार में प्रतिस्पर्धा करने के योग्य हो सकें। 
 
शीघ्र लड़े जाने वाले चुनावी युद्ध के घमासान में फंसे हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बारे में प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार में ही एक सार्वजनिक समारोह में कहा कि उनके खून में विश्वासघात बसा हुआ है और यह सिद्ध करने के लिए उन्होंने उन सभी लोगों के नाम गिनाए जिनको नीतीश ने प्रयुक्त किया और बाद में कूड़े में फैंक दिया। 
 
हालांकि नीतीश ने 18वीं शताब्दी के फ्रांसीसी सम्राट लुई 14वें की तर्ज पर खुद को राजसत्ता के समतुल्य समझते हुए रोष व्यक्त किया कि मोदी ने ऐसा कहकर बिहार का अपमान किया है, लेकिन यह बात सच नहीं। मोदी ने तो अपने श्रोताओं को केवल इस तथ्य का स्मरण कराया था कि नीतीश जार्ज फर्नांडीज से लेकर जीतन राम मांझी तक लंबे समय से अपने सहयोगियों के साथ विश्वासघात करते आए हैं। जिन लोगों के कंधों पर सवार होकर उन्होंने राजनीति में अपना कद ऊंचा किया, अपना स्वार्थ सिद्ध हो जाने के बाद उनकी अनदेखी करते हुए उन्हें कोई संकोच अथवा लाज महसूस नहीं हुई। 
 
वास्तव में नीतीश कुमार को जार्ज फर्नांडीज ने ही राजनीति में आगे बढ़ाया था और वही कभी उनके हीरो हुआ करते थे। लेकिन जो व्यवहार उन्होंने फर्नांडीज के साथ किया वह बिल्कुल ही अक्षम्य है। जब नीतीश जद (यू) के अध्यक्ष थे तो उन्होंने 2009 के चुनाव दौरान फर्नांडीज को लोकसभा के लिए टिकट देने से इंकार कर दिया था, हालांकि फर्नांडीज उस समय राजग के संयोजक थे। मजबूर होकर उन्हें बिहार की अपनी परम्परागत सीट  मुजफ्फरपुर से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लडऩा पड़ा। वह पराजित तो हो गए लेकिन नीतीश कुमार की विश्वासघात की प्रवृत्ति जगजाहिर हो गई। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं कि नीतीश कुमार के वर्तमान सहयोगी लालू प्रसाद उन पर कोई विश्वास करने को तैयार नहीं। 
 

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