26 जून 1975 को संविधान हारी और तानाशाही जीती थी - केंद्रीय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल

punjabkesari.in Friday, Jun 27, 2025 - 05:37 PM (IST)

National Desk : पचास साल पहले, 25 जून 1975 को भारत के लोकतांत्रिक इतिहास का सबसे काला दिन आया, जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तानाशाही रवैया अपनाते हुए राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की। यह फैसला भारत के संवैधानिक ढांचे पर एक गहरा और स्थायी दाग छोड़ गया। इसके बाद के 21 महीने ऐसे थे जिन्होंने भारतीयों की लोकतंत्र, सरकार और संविधान को देखने की सोच को पूरी तरह बदल दिया। उस दुर्भाग्यपूर्ण सुबह की स्थिति इस बात की गवाह बनी कि किस प्रकार सत्ता के लालच में लोकतंत्र की जननी शर्मसार हुई।

अदालती फैसले से घबराकर लिया गया आपातकाल का फैसला
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी को 1971 के लोकसभा चुनावों में चुनावी अनियमितताओं के लिए दोषी ठहराते हुए उन्हें अयोग्य करार दिया था। इस्तीफे के दबाव से घिरकर इंदिरा गांधी ने राष्ट्र को चौंकाते हुए राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को केवल साधारण कागज पर न कि आधिकारिक लेटरहेड पर और बिना केंद्रीय मंत्रिमंडल की सहमति के अनुच्छेद 352 के तहत “आंतरिक अशांति” का हवाला देते हुए आपातकाल लगाने की सिफारिश कर दी। इस निर्णय को 26 जून 1975 की सुबह 6 बजे मंत्रिमंडल की बैठक में सामने लाया गया।

यह निर्णय हर मायने में तानाशाही की शुरुआत था। नागरिकों को दिए गए संवैधानिक अधिकार रातोंरात छीन लिए गए। अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति, आंदोलन और संघ बनाने की स्वतंत्रता एक झटके में निलंबित कर दी गई। अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा समाप्त हो गई और सबसे दुखद बात यह रही कि नागरिकों को अनुच्छेद 32 के तहत न्यायालय जाने का अधिकार भी छीन लिया गया — जिसे डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने संविधान की "आत्मा और हृदय" कहा था। आपातकाल के पहले शिकार वे विपक्षी नेता बने जो सरकार को चुनौती देने का साहस रखते थे। हजारों लोगों को काले कानून जैसे MISA (आंतरिक सुरक्षा अधिनियम) और रक्षा भारत अधिनियम (DIR) के तहत जेल में डाल दिया गया। लेकिन जल्द ही, हर आम नागरिक ने इस काले दौर के अत्याचारों का अनुभव किया।

जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर अत्याचार
इस दौर में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पर जबरदस्त हमला हुआ। इंदिरा गांधी सरकार द्वारा आपातकाल के दौरान अपनाए गए तानाशाही उपाय आज भी देश की सामूहिक स्मृति में एक डरावने दौर के रूप में जीवित हैं। मेरे 92 वर्षीय दादा, जो अपने रोज़मर्रा के पशुपालन कार्य में लगे थे, एक दिन घायल हो गए और उन्हें बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां पता चला कि उस डॉक्टर पर नसबंदी लक्ष्यों को पूरा करने का दबाव था, जो संजय गांधी की जनसंख्या नियंत्रण नीतियों से प्रभावित था। डॉक्टर उन्हें जबरन नसबंदी के लिए मजबूर करना चाहता था। हालात की गंभीरता को समझते हुए मेरे दादा अस्पताल से भाग निकले और अपना इलाज अधूरा छोड़ दिया। उनकी जान तो बच गई, लेकिन यह घटना पूरे समुदाय पर मानसिक आघात बनकर छा गई। दुर्भाग्यवश, उनके जैसे लाखों लोगों को यह मौका नहीं मिला — 1975-77 के दौरान 1 करोड़ से अधिक लोगों की जबरन नसबंदी कर दी गई, जो भारत के लोकतंत्र के सबसे काले अध्यायों में गिना जाता है।


संजय गांधी का बढ़ता दबदबा और सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग
प्रशासनिक तंत्र का जिस तरह व्यक्तिगत लाभ के लिए दुरुपयोग हुआ, वह बेहद शर्मनाक था। एक प्रमुख उदाहरण 24 मार्च 1976 को संजय गांधी की बीकानेर यात्रा है, जब उन्होंने युवाओं की रैली को संबोधित किया। न तो उनके पास कोई संवैधानिक पद था और न ही वह राज्य अतिथि थे, फिर भी उनकी यात्रा में सरकारी संसाधनों की भारी तैनाती हुई। उस समय मैं डाक एवं तार विभाग में टेलीफोन ऑपरेटर था। मुझे यह देखकर विडंबना महसूस हुई कि प्रशासन को निर्देश दिए गए थे कि मंच के नीचे एक अस्थायी टेलीफोन कनेक्शन लगाया जाए — ऐसा इंतज़ाम आमतौर पर केवल प्रधानमंत्री की आधिकारिक यात्राओं के लिए होता था। यह घटना संजय गांधी के अनुचित प्रभाव को दर्शाती है और यह भी बताती है कि कैसे सरकार की मशीनरी को संविधान के नियमों को ताक पर रखकर व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया गया। जब आम नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे, उस समय इस तरह के भव्य आयोजन और उनमें जनता के पैसे का उपयोग संविधान का खुला उपहास था। ऐसे उदाहरण उस नैतिक पतन और निरंकुशता की प्रतीक हैं, जिसने उस दौर को परिभाषित किया।

संविधान में संशोधन: लोकतंत्र की रीढ़ पर वार
आपातकाल के दौरान किए गए संवैधानिक संशोधन लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ थे। 38वां संविधान संशोधन राष्ट्रपति द्वारा लगाए गए आपातकाल को अदालत की समीक्षा से बाहर कर देता था और राष्ट्रपति व राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति को बढ़ाता था। 10 अगस्त 1975 को लागू हुआ 39वां संशोधन प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव मामलों को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर देता था — ताकि इंदिरा गांधी को अदालत की जवाबदेही से बचाया जा सके। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया गया। इसका सबसे कुख्यात उदाहरण ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों के निलंबन को जायज़ ठहराया। सिर्फ एक जज — न्यायमूर्ति एच. आर. खन्ना — ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता के पक्ष में बहादुरी से असहमति दर्ज की, जिसके चलते उन्हें सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनने से वंचित कर दिया गया, जबकि वह वरिष्ठतम न्यायाधीश थे।

तानाशाही को और मज़बूती देने के लिए 42वां संविधान संशोधन पारित किया गया, जिसने लोकसभा का कार्यकाल 5 से 6 वर्षों तक बढ़ा दिया। साथ ही, प्रस्तावना में “समाजवादी”, “धर्मनिरपेक्ष” और “अखंडता” जैसे शब्द जोड़े गए। इस दौरान संसद को दरकिनार कर 48 अध्यादेश जारी किए गए, जो कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया का घोर अपमान था। बाद में गठित शाह आयोग ने जबरन हिरासत, अत्याचारपूर्ण नसबंदी, और संस्थागत दुरुपयोग की भयानक तस्वीर पेश की।

मीडिया की स्वतंत्रता का गला घोंटा गया
प्रेस, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, उसे भी बुरी तरह कुचल दिया गया। जो पत्रकार विपक्षी नेताओं के पक्ष में खबरें छापते थे, उन्हें जेल में डाल दिया गया। महात्मा गांधी द्वारा स्थापित नवजीवन प्रेस की मशीनें जब्त कर ली गईं — जो स्वतंत्रता संग्राम की विरासत पर सीधा हमला था। इतना ही नहीं, देश की चार प्रमुख समाचार एजेंसियों — प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया, समाचार भारती और हिंदुस्तान समाचार — को जबरन मिलाकर एक एजेंसी ‘समाचार’ बना दी गई। आपातकाल के पचास साल बाद, कांग्रेस की दोहरी नीति उजागर हो चुकी है। एक ओर वह ‘संविधान बचाओ यात्रा’ निकालती है, वहीं दूसरी ओर अपने नेताओं द्वारा संविधान के मज़ाक को नजरअंदाज़ करती है। 23 जुलाई 1985 को लोकसभा में राजीव गांधी का बयान — “आपातकाल में कुछ भी गलत नहीं था” — इस बात को दर्शाता है कि कांग्रेस के लिए सत्ता और परिवार सर्वोपरि हैं।

उस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिर्फ 25 वर्ष के थे, लेकिन उन्होंने साहस के साथ इस तानाशाही शासन का विरोध किया। उन्होंने पहचान छिपाकर भूमिगत बैठकें आयोजित कीं, और आपातकाल विरोधी साहित्य के प्रकाशन में मदद की। जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भूमिगत होना पड़ा, तब मोदी जी ने गुजरात लोक संघर्ष समिति के महासचिव के रूप में अथक कार्य किया और लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष किया।आपातकाल की विभीषिका को स्वीकारते हुए मोदी सरकार ने 11 जुलाई 2024 को एक राजपत्र अधिसूचना के ज़रिए 25 जून को संविधान हत्या दिवस के रूप में घोषित किया। यह दिन हमें उस दौर के विश्वासघात की याद दिलाता है और नागरिकों से लोकतंत्र के सजग प्रहरी बनने की अपील करता है।


भारत आज विकसित भारत 2047 की ओर बढ़ रहा है

हमारा संविधान पीढ़ियों की कुर्बानी, समझदारी, उम्मीद और आकांक्षाओं का प्रतीक है। आज जब भारत विकसित भारत @2047 की ओर बढ़ रहा है, तो हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम अपने संविधान की गरिमा की रक्षा करेंगे — और अतीत के काले अनुभवों से सीखते हुए एक मजबूत, विकसित और जीवंत लोकतंत्र का निर्माण करेंगे।


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Content Editor

Shubham Anand

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