School of Trees : IRS अधिकारी रोहित मेहरा की अनोखी पहल, जहां क्लासरूम नहीं… कुदरत बनती है गुरु

punjabkesari.in Saturday, Dec 13, 2025 - 01:20 PM (IST)

नेशनल डेस्क: जब IRS अधिकारी रोहित मेहरा पेड़ों की बात करते हैं, तो उनकी आवाज़ में किसी प्रोफेसर का गर्व नहीं, बल्कि एक जिज्ञासु बच्चे जैसी उत्सुकता होती है। वे खुद को पेड़ों का विशेषज्ञ नहीं, बल्कि एक सीखने वाला मानते हैं—और चाहते हैं कि बच्चे भी उनके साथ सीखें। यही सोच उनकी पत्नी गीतांजलि मेहरा के साथ मिलकर एक अनोखे प्रयोग की वजह बनी, जिसने आज “School of Trees (पेड़ों की पाठशाला)” का रूप ले लिया है। यह कोई पारंपरिक स्कूल नहीं है। न यहां ब्लैकबोर्ड है, न किताबें, न परीक्षा का डर। यह एक सोसाइटी गार्डन है, जहां हर शनिवार और रविवार कक्षा 2 से 10 तक के बच्चे पेड़ों को छूकर, देखकर और समझकर सीखते हैं।

75% अनुभव, 25% थ्योरी—बस इतना ही

इस पाठशाला का फार्मूला बेहद सरल है। दो घंटे की क्लास में 75 फीसदी समय प्रैक्टिकल गतिविधियों का और 25 फीसदी बुनियादी समझ का। मिट्टी, बीज, धूप, पत्ते और सवाल—यही पढ़ाई का पूरा सिलेबस है। रोहित मेहरा कहते हैं, “आप इंटरनेट पर ढूंढ लीजिए, बच्चों के लिए पेड़ों को इस तरह सिखाने वाला कोई और प्लेटफॉर्म नहीं मिलेगा।”

क्लासरूम जैसा कुछ नहीं दिखता

पहले ही सत्र में करीब 40 बच्चे पहुंच गए—उम्मीद से कहीं ज्यादा। सभी गार्डन में इकट्ठा हुए, थोड़े झिझके हुए लेकिन उत्सुक। शुरुआत एक सवाल से हुई— “इंसान और पेड़ में क्या फर्क है?” जवाब हर तरफ से आए—कुछ मासूम, कुछ मजेदार, कुछ हैरान कर देने वाले। इसके बाद बच्चे आसपास के पेड़ों की पहचान करने लगे, छोटे पौधों के नाम जाने, झाड़ियों, लताओं और बड़े पेड़ों के फर्क को समझा। कई बार रोहित मेहरा पढ़ाई को मजेदार बनाने के लिए पेड़ों की तुलना संगीत के सुरों से भी कर देते—ऊंचा, मध्यम और नीचा। वे कहते हैं, “क्लास शुरू होते ही बच्चों की आंखों में एक अलग चमक आ जाती है।”

सहजन के पत्ते और धूप को महसूस करते पत्ते

पहले दिन बच्चों को सहजन (मोरिंगा) का पौधा दिखाया गया। अगले ही दिन कई बच्चे घर से उसके पत्ते लेकर आए और बताने लगे कि घर में यह कैसे पकता है। मेहरा बताते हैं, “उनकी खुशी देखकर लगा जैसे उन्होंने खुद कुछ खोज लिया हो।” बच्चों ने अपनी आंखों से देखा कि पत्ते कैसे धूप की दिशा में घूमते हैं, रोशनी को पकड़ने के लिए खुद को कैसे ढालते हैं। यह सिर्फ जानकारी नहीं थी—यह सजीव अनुभव था। उन्हें बताया गया कि पेड़ हवा को कैसे महसूस करते हैं, जड़ें जीवन भर कैसे काम करती रहती हैं, पेड़ इंसानों की तरह अचानक क्यों नहीं मरते और कैसे एक पेड़ मरने के बाद भी कीड़ों, जानवरों और सूक्ष्म जीवों के लिए जीवन बन जाता है। मेहरा ने बच्चों से कहा, “मौत के बाद भी पेड़ देना बंद नहीं करता।”

छोटे सवाल, बड़ी समझ

इस पाठशाला में सवाल आसान होते हैं, लेकिन सोच को खोल देते हैं—
– सबसे बड़ा पत्ता किसका होता है?
– कौन सा पेड़ बिना बीज के होता है? (एक कक्षा 6 की बच्ची ने तुरंत जवाब दे दिया)
– पेड़ के अंदर पानी ऊपर से नीचे जाता है या नीचे से ऊपर?
– ज़मीन के पौधों को मिट्टी चाहिए, समुद्री पौधों को क्यों नहीं?

ये सवाल कहीं लिखे नहीं होते। ये बच्चों के चलने, छूने और देखने के साथ अपने आप निकल आते हैं।

हाथों से सीखना ही असली पढ़ाई

पेड़ों की पाठशाला की जान हैं गतिविधियां। बच्चे सीड बॉल बनाते हैं, धूप में पत्तों की हरकत देखते हैं, पेड़ों के नीचे रहने वाले जीवों के बारे में बात करते हैं। वे घर से खाली प्लास्टिक के गिलास लाते हैं, उनमें मिट्टी भरते हैं, बीज बोते हैं और रोज उन्हें उगते देखते हैं। रोहित मेहरा कहते हैं, “वह पौधा उनका अपना प्रतीक बन जाता है, और वे नतीजे भी देखते हैं।”

एक सोसाइटी से पूरे देश का सपना

फिलहाल यह पहल उनकी अपनी रेजिडेंशियल सोसाइटी तक सीमित है, लेकिन रुचि तेजी से बढ़ रही है। लोग फोन करके पूछ रहे हैं कि क्या उनके बच्चे भी एक दिन की क्लास अटेंड कर सकते हैं। एक बातचीत में रोहित मेहरा ने साफ कहा कि उनका सपना सिर्फ गार्डन तक सीमित नहीं है। “मेरा विज़न पूरे भारत के लिए है,” वे कहते हैं। संसाधनों की जरूरत जरूर है, लेकिन लोगों का भरोसा इस विचार को ताकत दे रहा है। उनका मानना है कि हर स्कूल को हफ्ते में कम से कम दो घंटे पेड़ों की शिक्षा देनी चाहिए। उनके शब्दों में, “औपचारिक पढ़ाई तो हम करते हैं, लेकिन असली शिक्षा यही है।” वे चाहते हैं कि होमवर्क के नाम पर बच्चे घर के बेकार सामान से गमले या पौधे बनाएं।

एक छोटी शुरुआत, बड़ा असर

रोहित मेहरा भविष्य में पर्यावरण से जुड़े लोगों को भी बच्चों से संवाद के लिए बुलाने की योजना बना रहे हैं। पेड़ों की पाठशाला कोई बड़ा संस्थान नहीं, न कोई फंडेड प्रोजेक्ट और न ही औपचारिक स्कूल। यह बस एक बगीचा है, कुछ बच्चे हैं और एक दंपती है, जो मानता है कि बच्चों को पेड़ों की पहचान भी उतनी ही जरूरी है, जितनी अक्षरों की। जब कोई बच्चा पहली बार किसी पेड़ को उसके नाम, पत्ते, बीज, रोशनी और उसके नीचे रहने वाले जीवों के साथ पहचानता है—तो उसके भीतर कुछ बदलता है।


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Content Editor

Anu Malhotra

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