इंद्रियां शरीर से श्रेष्ठ

punjabkesari.in Tuesday, Mar 17, 2015 - 08:59 AM (IST)

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रयेभ्य: परं मन:।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:॥ 42॥

शब्दार्थ : इन्द्रियाणि—इन्द्रियों को; पराणि—श्रेष्ठ; आहु—कहा जाता है; इन्द्रियेभ्य:—इन्द्रियों से बढ़कर; परम्—श्रेष्ठ; मन:—मन; मनस:—मन की अपेक्षा; तु—भी; परा—श्रेष्ठ; बुद्धि:—बुद्धि; य:—जो; बुद्धे:—बुद्धि से भी; परत:—श्रेष्ठ; तु—किन्तु; स:—वह ।

अनुवाद : कर्मेन्द्रियां जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है ।
तात्पर्य : इन्द्रियां काम के कार्यकलापों के विभिन्न द्वार हैं । काम का निवास शरीर में है, किन्तु उसे इन्द्रिय रूपी झरोखे प्राप्त हैं । अत: कुल मिलाकर इन्द्रियां शरीर से श्रेष्ठ हैं । श्रेष्ठ चेतना या कृष्णभावनामृत होने पर ये द्वार काम में नहीं आते । कृष्णभावनामृत में आत्मा भगवान् के साथ सीधा संबंध स्थापित करता है, अत: यहां पर वर्णित शारीरिक कार्यों की श्रेष्ठता परमात्मा में आकर समाप्त हो जाती है । शारीरिक कर्म का अर्थ है इन्द्रियों के कार्य और इन इन्द्रियों के अवरोध का अर्थ है सारे शारीरिक कर्मों का अवरोध लेकिन मन सक्रिय रहता है, अत: शरीर के मौन तथा स्थिर रहने पर भी मन कार्य करता रहता है-यथा स्वप्र के समय मन कार्यशील रहता है ।

किन्तु मन के ऊपर भी बुद्धि की संकल्पशक्ति होती है और बुद्धि के भी ऊपर स्वयं आत्मा है । अत: यदि आत्मा प्रत्यक्ष रूप में परमात्मा में रत रहे तो अन्य सारे अधीनस्थ-यथा बुद्धि, मन तथा इन्द्रियां-स्वत: रत हो जाएंगे । कठोपनिषद् में एक ऐसा ही अंश है जिसमें कहा गया है कि इन्द्रिय विषय इन्द्रियों से श्रेष्ठ हैं और मन इन्द्रिय-विषयों से श्रेष्ठ है । अत: यदि मन भगवान् की सेवा में निरन्तर लगा रहता है तो इन इन्द्रियों के अन्यत्र रत होने की संभावना नहीं रह जाती । पर दृष्टवा निवर्तते-यदि मन भगवान की दिव्य सेवा में लगा रहे तो तुच्छ विषयों में उसके लग पाने की संभावना नहीं रह जाती । कठोपनिषद् में आत्मा को महान कहा गया है । अत: आत्मा इन्द्रिय विषयों, इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि-इन सबके ऊपर है । अत: सारी समस्या का हल यह है कि आत्मा के स्वरूप को प्रत्यक्ष समझा जाए । मनुष्य को चाहिए कि बुद्धि के द्वारा आत्मा की स्वाभाविक स्थिति को ढूंढे और फिर मन को निरंतर कृष्णभावनामृत में लगाए रखे । इससे सारी समस्या हल हो जाती है । सामान्यत: नवदीक्षित अध्यात्मवादी को इन्द्रिय विषयों से दूर रहने की सलाह दी जाती है ।

किन्तु इसके साथ-साथ मनुष्य को अपनी बुद्धि का उपयोग करके मन को सशक्त बनाना होता है । यद्यपि आत्मा बुद्धि, मन तथा इन्द्रियों का भी स्वामी है तो भी जब तक इसे कृष्ण की संगति द्वारा कृष्णभावनामृत में सुदृढ़ नहीं कर लिया जाता तब तक चलायमान मन के कारण नीचे गिरने की पूरी-पूरी संभावना बनी रहती है ।   


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