गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाशोत्सव पर पढ़ें, उनकी जीवन झांकी

punjabkesari.in Saturday, Jan 16, 2016 - 08:35 AM (IST)

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का प्रकाश 1666 ई. में पटना साहिब में गोबिंद राय के नाम से श्री गुरु तेग बहादुर जी के घर माता गुजरी जी की कोख से हुआ। श्री गुरु तेग बहादुर जी उस समय सिखी के प्रचार के लिए देश का भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने अपने परिवार को पटना साहिब में ठहराया तथा स्वयं असम की ओर चले गए। गुरु जी जब ढाका (बंगलादेश) पहुंचे तो आप जी को श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाश की सूचना मिली। 
 
श्री गोबिंद राय की उम्र कम ही थी जब श्री गुरु तेग बहादुर जी ने श्री आनंदपुर साहिब आकर परिवार को वहां बुला लिया। तब औरंगजेब का जुल्म हदें पार कर चुका था। उसने देश भर में अपने सभी गवर्नरों को आदेश जारी कर दिया कि हिन्दुओं के मंदिर गिरा दें।  
 
कश्मीर का गवर्नर इफ्तिखार खान था जिसने बादशाह के आदेशों को लागू करने की ठान ली। कश्मीर में मंदिर गिरने लगे तथा हिन्दुओं को मुसलमान बनाया जाने लगा। जब अत्याचार बढ़ गए तो कश्मीरी पंडितों का एक 16 सदस्यीय शिष्टमंडल पंडित कृपा राम की अध्यक्षता में श्री आनंदपुर साहिब पहुंचा ताकि श्री गुरु तेग बहादुर जी से इस जुल्म के विरुद्ध फरियाद की जा सके। कश्मीरी पंडितों ने सारा हाल गुरु जी को बताया जिसे सुन कर गुरु जी गंभीर हो गए। उस समय बाल गोबिंद राय जी केवल 9 वर्ष के थे। जब उन्होंने पिता जी को गंभीर अवस्था में बैठे देखा तो उन्होंने इसका कारण जानना चाहा। 
 
श्री गुरु तेग बहादुर जी ने कहा कि इन लाचार पंडितों पर जुल्म हो रहा है जिस पर तभी अंकुश लग सकता है यदि कोई महाबली कुर्बानी दे। बाल गोबिंद राय जी ने तुरंत कहा कि पिता जी आपसे बड़ा महाबली और कौन हो सकता है। इस तरह हिन्दुस्तान में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने बाल उम्र में ही अपने पिता जी को दिल्ली की तरफ भेजा। औरंगजेब के आदेश पर श्री गुरु तेग बहादुर जी को शहीद कर दिया गया। 
 
गुरु जी की शहीदी उपरांत श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने सभी सिखों को शस्त्रधारण करने तथा बढिय़ा घोड़े रखने के लिए उसी तरह आदेश जारी कर दिया, जिस तरह श्री गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी के बाद श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने किया था। गुरु जी श्री आनंदपुर साहिब से कुछ समय के लिए हिमाचल प्रदेश चले गए तथा वहां पौंटा साहिब नामक नगर बसाया। यहीं पर गुरु जी ने काफी सारी बाणी की रचना की तथा भंगानी का युद्ध भी पौंटा साहिब के निकट ही लडऩा पड़ा। 
 
भंगानी का युद्ध गुरु जी का पहला युद्ध था, जिसमें उनकी अप्रशिक्षित सेना हिन्दुस्तान के बादशाह तथा बाईधार के राजाओं की सेनाओं से लड़ी तथा जीत हासिल की। इसके बाद गुरु जी दोबारा श्री आनंदपुर साहिब आ गए। 1669 ई. में बैसाखी वाले दिन गुरु जी ने खालसा पंथ की सृजना की तथा पांच प्यारों से स्वयं अमृत संचार करके अपना नाम गोबिंद राय से (गुरु) गोबिंद सिंह रखा। 
 
श्री आनंदपुर साहिब में रहते हुए पहाड़़ी राजाओं ने गुरु जी से लड़ाई जारी रखी पर जीत हमेशा गुरु जी की होती रही। 1704 ई. में जब गुरु जी ने श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ दिया तो मुगल सेनाओं ने पीछे से हमला कर दिया जिस कारण गुरु जी का सारा परिवार बिछड़ गया। चमकौर साहिब की एक कच्ची गली में गुरु जी ने अपने 40 सिंहों सहित 10 लाख मुगल सेना का सामना किया। 
 
यहां गुरु जी के दो बड़े साहिबजादे बाबा अजीत सिंह तथा बाबा जुझार सिंह शहीद हुए। गुरु जी के छोटे साहिबजादों बाबा जोरावर सिंह तथा बाबा फतेह सिंह जी को सरहिन्द के वजीर खान के आदेश से जिंदा ही दीवारों में चिनवा कर शहीद कर दिया गया। बाद में बाबा बंदा सिंह बहादुर ने नांदेड़ से पंजाब आकर साहिबजादों की शहीदी का बदला लिया। 
 
गुरु जी ने साबो की तलवंडी में श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का पुन: संपादन किया तथा अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी की बाणी को अलग-अलग रागों में दर्ज किया। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन से हमको यह बात प्रमुखता से पता चलती है कि आप जी की किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। पीर बुद्धू शाह जैसे मुसलमान फकीर आपके पक्के मुरीद थे। पीर जी ने गुरु जी की भंगानी के युद्ध में भी मदद की थी। 
 
गुरु जी की लड़ाई तो जुल्म से थी, न कि किसी विशेष व्यक्ति से। गुरु जी की बाणी में भी सच के लिए लडऩा तथा मजलूमों की रक्षा करने की शिक्षा मिलती है।  गुरु जी विनम्रता की मूर्त थे तथा इस बात के सख्त विरुद्ध थे कि कोई उनको रब का दर्जा दे। आप तो अपने आपको अकाल पुरख का दास कहलाकर खुश थे। 
 
1707 ई. के करीब आप महाराष्टर के नांदेड़ चले गए जहां आप जी ने माधो दास वैरागी को अमृत संचार कर बाबा बंदा सिंह बहादुर बनाया तथा जुल्म का सामना करने के लिए पंजाब की तरफ भेजा। नांदेड़ में 2 विश्वासघाती पठानों ने गुरु जी पर छुरे से वार कर दिया। गुरु जी ने अपनी तलवार से एक पठान को तो मौके पर ही मार दिया जबकि दूसरा सिखों के हाथों मारा गया। आप जी के जख्म काफी गहरे थे तथा 7 अक्तूबर 1708 ई. को ज्योति ज्योत समा गए तथा श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को गुरुगद्दी दे गए। 
 

-गुरप्रीत सिंह नियामियां 


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