सत्ता पक्ष और विपक्ष बनाम विकास योजनाएं

punjabkesari.in Saturday, Dec 09, 2017 - 02:16 AM (IST)

लोकतंत्र की खासियत है कि इसमें किसी भी राजनीतिक दल का सत्ताधारी होना या विपक्ष में बैठना मतदाताओं के वोट पर निर्भर है। आज जो सत्ता का आनंद ले रहा है वह अगले चुनाव में विपक्ष की भूमिका अदा करने को मजबूर हो सकता है। 

अब ऐसा क्यों होता है कि सत्ताधारी बनते ही विपक्ष बन चुके दल के सभी कामों को रोकने या बदलने का सिलसिला शुरू हो जाता है। यही नहीं सत्ता हाथ में आते ही जो विपक्ष के सांसद, विधायक हैं उनके क्षेत्र में विकास के कामों पर भी विराम लग जाता है। एक उदाहरण से बात समझ आ जाएगी। पश्चिम बंगाल में इस समय टी.एम.सी. सत्ताधारी है। 

इस दल ने प्रदेश के उन क्षेत्रों की अनदेखी शुरू कर दी जहां कांग्रेस या सी.पी.एम. के विधायक हैं। हुआ यह कि पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के फरक्का शहर से झारखंड जाने का अवसर मिला। यह देखकर बहुत ही अजीब-सा लगा कि फरक्का की सड़केंबहुत ही बदतर हालत में इसलिए हैं क्योंकि यहां सत्ताधारी दल का विधायक या सांसद नहीं है। अब देखिए जैसे ही फरक्का से झारखंड की सीमा शुरू हुई तो सड़क इतनी अच्छी थी कि सफर का मजा आने लगा। ऐसा लगा कि किसी पिछड़े राज्य से विकास की सीढ़ी चढ़ रहे राज्य में दाखिल हो गए। 

आखिर क्यों राजनीति में सत्ता में आते ही पिछले सत्ताधारी दल से जुड़े मतदाताओं को सौतेला व्यवहार झेलने के लिए मजबूर होना पड़ता है! यह रवैया राज्यों का ही नहीं, केन्द्र की सत्ताधारी सरकार का भी हो जाता है। मिसाल के तौर पर वर्तमान भाजपा सरकार सत्ता में आते ही कांग्रेस के सभी कदम गलत ठहराने में जुट गई। ऐसा माहौल बनना शुरूहो गया कि जैसे 67 वर्षों से देश का विकास कतई नहीं हुआ और अब जो दल सत्ता में है उसके द्वारा जो योजनाएं बनाई या चलाई जा रही हैं वे ही देश का विकास कर सकती हैं। 

ऐसा क्यों नहीं होता कि पिछले सत्ताधारी द्वारा शुरूकिए गए कार्यों को बन्द करने की बजाय उन्हें पूरा किया जाए। यदि उसमें कोई खोट दिखाई दे जिससे जनहित न होता हो तो उसमें सुधार किया जा सकता है। पर ऐसा नहीं होता और पहले शुरू किए गए कार्यों पर खर्च हुआ धन नाली में बह जाता है, मतलब जनता द्वारा दिए गए टैक्स का दुरुपयोग। दो दलों की विचारधारा, सोच और कार्यप्रणाली में अन्तर होना स्वाभाविक है लेकिन यह कहां की बुद्धिमता है कि परिवर्तन के नाम पर पिछली सरकार के सभी कामों को उल्टा-पुल्टा कर दिया जाए। राजनीतिक दलों को यह कब समझ में आएगा कि वे जो सरकारी खजाने को अपनी बपौती समझते हैं, वह देश के नागरिकों का है जो ईमानदारी से टैक्स देते हैं। 

राष्ट्रीय पोषण मिशन: अक्सर चरित्र निर्माण की बड़ी-बड़ी बातें सुनने को मिलती हैं किन्तु चरित्र तभी बन सकता है जब शरीर स्वस्थ रहे। ‘भूखे भजन न होए गोपाला’ की तरह जब तन संतुष्ट होगा तभी प्रभु सुमिरन में मन लग सकता है। हमारे देश में हृष्ट-पुष्ट तो सब बनना चाहते हैं लेकिन यह कैसे हो, इसके लिए ज्यादातर लोग साधनों के अभाव के कारण पौष्टिक खान-पान के बारे में सोचते ही नहीं हैं। इनके लिए पेट भरने को दो वक्त का खाना मिल जाए वही बहुत है। पुरानी कहावत है ‘धन खोए तो खोए स्वास्थ्य कभी न खोए’ क्योंकि धन चला गया तो उसे दोबारा कमाया जा सकता है लेकिन स्वास्थ्य बिगड़ गया तो इंसान का बहुत कुछ खो जाता है। अस्वस्थ व्यक्ति दूसरों पर निर्भर हो जाता है और धीरे-धीरे बोझ बनने लगता है। 

जहां तक पौष्टिक भोजन के बारे में सरकार की नीतियों का संबंध है इसके लिए छोटी-मोटी योजनाएं अक्सर बनती रही हैं जिनमें कम आयु के बच्चों और महिलाओं में बढ़ते कुपोषण को कम करने के लिए कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं। इसके बावजूद न तो कुपोषण कम हुआ और न ही उससे संबंधित समस्याओं का कोई दूरगामी हल निकल पाया। नतीजे के तौर पर हमारा देश विश्व में कुपोषित ही माना जाता है। कुपोषण बच्चों को मानसिक और शारीरिक रूप से निर्बल बनाता है। किसी देश में कुपोषित बच्चों का अधिक होना आर्थिक प्रगति के लिए बेहद खतरनाक है। यही नहीं, कुपोषण से सकल घरेलू उत्पाद में भी गिरावट आती है। 

वर्तमान सरकार ने 2017-18 बजट में राष्ट्रीय पोषण मिशन की शुरूआत की है और 3 साल के लिए 9046.17 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा है। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य बच्चों के स्वास्थ्य के लिए उचित पोषण के बारे में लोगों को जागरूक करना और स्वास्थ्य, कृषि, ग्रामीण विकास, पंचायती राज, जल एवं स्वच्छता और आंगनबाड़ी विभागों के साथ मिलकर कुपोषण को कम करना है। राष्ट्रीय पोषण मिशन का लक्ष्य छोटे बच्चों, महिलाओं एवं किशोरियों में ठिगनापन, अल्पपोषण, रक्ताल्पता को कम करना है। 

पोषण की कमी से होने वाले कुप्रभाव: मां के गर्भ में आने से लेकर शिशु के 2 वर्ष का होने तक यदि बच्चे को पर्याप्त पोषण न मिले तो उसे अनेक प्रकार के रोग होने का खतरा बना रहता है। कुपोषित गर्भवती मां एक कुपोषित बच्चे को ही जन्म देगी। यूनिसेफ  के मुताबिक भारत में 6 करोड़ से अधिक बच्चे कुपोषण का शिकार हो चुके हैं। अब देखने वाली बात यह है कि इस मिशन के जरिए कुपोषण पर अंकुश लगेगा या पहले की तरह लालफीताशाही और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाएगा। मिड-डे मील, टीकाकरण, गर्भावस्था से पहले और बाद की देखभाल और इसी तरह के कार्यक्रमों का सफल न होना इसका उदाहरण है। 

कुपोषण को लेकर योजनाएं तभी सफल हो सकती हैं जब लोगों के पास स्वयं अपनी सेहत का ध्यान रखने के लिए समुचित साधन हों और वह इस बारे में जागरूक हों। पौष्टिक भोजन बाजार में उपलब्ध हैं लेकिन उन तक पहुंच केवल सम्पन्न लोगों की ही होती है। यह एक सच्चाई है कि देहाती इलाकों में ज्यादातर स्कूलों में बच्चे केवल इसलिए जाते हैं क्योंकि उन्हें वहां मिड-डे मील के नाम पर पेटभर खाना मिलता है। पढ़ाई-लिखाई का उनके लिए ज्यादा महत्व नहीं होता क्योंकि वे गरीबी के कारण बचपन से ही मजदूरी करना सीख जाते हैं। पौष्टिक मिशन तभी सफल हो सकता है जब व्यक्ति इतना समर्थ हो कि वह पौष्टिक भोजन खरीद सके। इसके लिए इस बात पर ध्यान दिया जाना जरूरी है कि उसकी आमदनी कैसे बढ़े, बेरोजगारी कैसे दूर हो और वह गरीबी के चंगुल से किस प्रकार बाहर निकल सकता है।-पूरन चंद सरीन


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