शहबाज के पास भारत के साथ संबंध मधुर बनाने का अच्छा मौका

punjabkesari.in Friday, Apr 29, 2022 - 03:35 PM (IST)

पाकिस्तानी की राजनीति का बाबा आदम ही निराला है। यहां सत्तासीन होना या सत्ताहीन होना दोनों की प्रक्रिया अजीबो-गरीब ही नहीं, बल्कि बड़ी अफसोसनाक और जरूरत से ज्यादा हैरतअंगेज भी होती है। पिछले दिनों जब इमरान खान के खिलाफ राष्ट्रीय असैंबली में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया, संवैधानिक और प्रजातांत्रिक मर्यादाओं की यह मांग थी कि वह नैशनल असैंबली में अविश्वास प्रस्ताव का सामना करते और यदि हार जाते तो सम्मान के साथ सत्ता छोड़ देते। जैसा कि भारत में 1978 में मोरारजी देसाई और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। 

यह विश्व की प्रजातांत्रिक प्रणाली का उच्चकोटि का आदर्श है जिसे इमरान ने मानने की बजाय घटिया किस्म के राजनीतिक हथकंडों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। उसकी ही पार्टी के डिप्टी स्पीकर ने अविश्वास प्रस्ताव को खारिज कर दिया और सुप्रीम कोर्ट के  फैसले से  पुन: प्रजातांत्रिक परंपरा कायम हुई।पाकिस्तान की पिछले 75 बरसों से यह राजनीति विडंबना रही है। 1951 में प्रधानमंत्री पीरजादा लियाकत अली खान की रावलपिंडी के नजदीक एक बाग में हत्या कर दी गई। इसी बाग में फिर 1996 में प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो को भी मार दिया गया।

इससे पहले प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को एक झूठे कत्ल केस में फंसाकर फांसी के फंदे पर लटका दिया गया। 1951 से 1958 तक पाकिस्तान में प्रधानमंत्री ताश के पत्तों की तरह उड़ते रहे।एक प्रधानमंत्री केवल 2 महीने ही रहा और आखिर अराजकता और अव्यवस्था फैलने से फौजी जरनैल अयूब खान प्रजातंत्र को पांव तले कुचल कर खुद शासक बन बैठा। उसके बाद याहिया खान, जिया-उल-हक, परवेज मुशर्रफ और वर्तमान में कमर जावेद बाजवा अप्रत्यक्ष रूप से सर्वोपरि हैं। पाकिस्तान में एक कहावत है कि यहां अल्ला,  अमरीका और आर्मी का ही बोलबाला है।

प्रो. दरबारी लाल
पूर्व डिप्टी स्पीकर, पंजाब विधानसभा
 


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