Exclusive interview: ये फिल्म सिर्फ सस्पेंस नहीं, एक इमोशनल जर्नी है- जितेंद्र कुमार
punjabkesari.in Friday, Oct 10, 2025 - 03:11 PM (IST)

नई दिल्ली/टीम डिजिटल। कोटा फैक्ट्री’ के जीतू भैया और ‘पंचायत’ के सचिव जी इन किरदारों से अपनी मासूमियत और सादगी से दर्शकों का दिल जीत चुके अभिनेता जितेंद्र कुमार अब एक बिल्कुल अलग अवतार में नज़र आने वाले हैं। उनकी नई फिल्म ‘भागवत: चैप्टर वन – राक्षस’ एक सस्पेंस थ्रिलर है, जो इंसाफ, जुनून और पागलपन के बीच की पतली रेखा पर सवाल उठाती है। फिल्म में अरशद वारसी, जितेंद्र कुमार मुख्य भूमिका में नजर आएंगे। इस फिल्म को अक्षय शेरे ने डायरेक्ट किया है और यह फिल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म जी5 पर 17 अक्टूबर को रिलीज होगी। इस फिल्म के बारे में एक्टर जितेंद्र कुमार और डायरेक्टर अक्षय शेरे ने पंजाब केसरी, नवोदय टाइम्स, जगबाणी और हिंद समाचार से खास बातचीत की। पेश हैं मुख्य अंश...
जितेंद्र कुमार
सवाल: आपने अब तक सिंपल और मासूम किरदार निभाए हैं तो अब वो इस फिल्म से कैसे अलग है?
जवाब: बिलकुल, किरदार और कहानी दोनों ही इस फिल्म के खास पहलू हैं। जब मुझे इसका नैरेशन मिला तो लगा कि यह सिर्फ एक क्राइम थ्रिलर नहीं है, बल्कि जस्टिस और पावर जैसे गहरे मुद्दों को छूती है। फिल्म में वो ‘थिन लाइन’ है पैशन और पागलपन के बीच धागे भर का फर्क, जिसे हमने डायलॉग्स और परफॉर्मेंस में भी महसूस किया।
सवाल: आपने यूट्यूब, ओटीटी और फिल्मों हर जगह शानदार काम किया है। बतौर एक्टर, इन मीडियम्स में फर्क महसूस करते हैं?
जवाब: जब कैमरा “एक्शन” बोलता है तो फर्क मिट जाता है। चाहे फिल्म हो या वेब सीरीज़, किरदार की सच्चाई तक पहुंचना जरूरी होता है। हां, शुरू में सोचते हैं कि यह फिल्म थिएटर के लिए है या ओटीटी के लिए, पर एक्टिंग का प्रोसेस वही रहता है ईमानदारी से किरदार को जीना।
सावल: आपने अब तक ज्यादातर पॉजिटिव रोल किए हैं। लेकिन जब कोई ग्रे या नेगेटिव शेड वाला किरदार आता है, तो क्या उसे जस्टिफाई करना जरूरी होता है?
जवाब: हां, बहुत जरूरी होता है। चाहे वो हीरो हो या विलेन, अगर आप खुद उस किरदार को समझ नहीं पाए, तो दर्शक भी नहीं समझ पाएंगे। स्क्रिप्ट में ही वो सब लिखा होता है वो ऐसा क्यों कर रहा है। जब आप डायरेक्टर से बार-बार बात करते हैं, तो किरदार के इरादे साफ़ हो जाते हैं।
सवाल: आपके करियर का गेम चेंजर प्रोजेक्ट कौन सा रहा?
जवाब: साल 2020 मेरे लिए टर्निंग पॉइंट था। शुभ मंगल ज़्यादा सावधान के बाद पंचायत आई और फिर चमन बाहर। थिएटर से ओटीटी तक का वो कॉम्बिनेशन मेरे करियर का बूस्ट पॉइंट बना। इससे मेरी काफी रीच बढ़ी और लोगों ने प्यार दिया।
सवाल: क्या आपको लगता है कि आप टाइपकास्ट हो गए हैं मासूम, सिंपल कैरेक्टर तक सीमित?
जवाब: लोग सोचते हैं ऐसा लेकिन असल में डायरेक्टर्स उल्टा सोचते हैं उन्हें भी कुछ नया करवाना होता है। टाइप कास्टिंग तो हर एक्टर के साथ होती है लेकिन एक ही किरदार आपकी इमेज बदल सकता है। देखिए बॉबी देओल को ‘एनिमल’ ने उनकी परसेप्शन पूरी बदल दी।
सवाल: IIT से एक्टिंग की दुनिया तक का सफर कैसे शुरू हुआ?
जवाब: IIT में ड्रामा सोसाइटी से शुरुआत हुई। वहीं से एक्टिंग का कीड़ा लगा।एक्टिंग कोई क्लास से नहीं सीखी जाती, ये एक्सपीरियंस से आती है। जितना ज़्यादा आप जीते हैं, उतना ही ज़्यादा असली अभिनय करते हैं।
अक्षय शेरे
सवाल: ट्रेलर में लिखा है Inspired by True Events। कितना सच है इसमें, और ऑडियंस क्या उम्मीद रख सकती है?
जवाब: घटना असली है लेकिन हम उस इंसिडेंट की डिटेल्स नहीं बता सकते। हमारी कोशिश थी कि कहानी को रियलिटी के करीब रखा जाए बिना किसी सेंसेशन के। हमने उन लोगों की इज्जत बरकरार रखी है जिनसे ये घटना जुड़ी है। ये सिर्फ थ्रिलर नहीं है, ये आपको भीतर से झकझोरने वाली कहानी है।
सवाल: बतौर डायरेक्टर क्या आपको लगता है कि थिएटर और OTT की ऑडियंस अलग होती है?
जवाब: हां फर्क जरूर है। OTT पर दर्शक ज्यादा खुले दिमाग से कंटेंट स्वीकार करते हैं वहीं थिएटर में एंटरटेनमेंट का एक्सपेक्टेशन थोड़ा अलग होता है। लेकिन कहानी अगर सच्ची और इमोशनल हो तो वो हर प्लेटफॉर्म पर दिल को छूती है।
सवाल: OTT पर आए दिन कंटेंट को लेकर विवाद होते हैं। क्या आपको लगता है OTT पर सेंसरशिप होनी चाहिए?
जवाब: नहीं, मेरे हिसाब से सेंसरशिप कहीं नहीं होनी चाहिए। कला पर बंदिश लगाना मुझे फोर्स्ड फंडा लगता है। दर्शक पर भरोसा रखना चाहिए कि वो तय कर सकता है क्या देखना है और क्या नहीं।
सवाल: आपने अरशद वारसी के साथ काम किया है। सेट पर उनका अनुभव कैसा रहा?
जवाब: अरशद सर नेचुरल परफॉर्मर हैं। वो कैमरे की हर मूवमेंट समझते हैं। बिना रिहर्सल के वो ऐसा टेक देते हैं कि मैं खुद मॉनिटर देखकर चौंक जाता था। उनकी कैमरा सेंस और टाइमिंग ग़जब की है।
सवाल: आपने रामगोपाल वर्मा के साथ काम किया है। उनसे क्या सीखा?
जवाब: रामू जी एक इंस्टीट्यूट हैं। उनसे डायरेक्शन नहीं, सोचने का तरीका सीखा। उन्होंने सिखाया कि सिनेमा को कैसे देखना है। डायरेक्शन सीखा नहीं जाता समझा जाता है और वो समझ मुझे उन्हीं से मिली। उनसे ज्यादा हिंदी सिनेमा को मुझे नहीं लगता किसी ने बदला है और अपग्रेड किया है।