मानो या न मानो: पत्तों के बिना पूजा अधूरी

punjabkesari.in Thursday, Apr 16, 2020 - 06:22 AM (IST)

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पत्तों पर ओस जमने लगती है तो वे सूरज की किरण पड़ते ही ऐसे चमकते हैं, जैसे किसी ने उन पर हीरे तराश कर रख दिए हों। दिन चढ़ते ही ये हीरे खो जाते हैं। हरे-उजले पत्तों पर खिंची पीली रेखाओं को देखो तो लगता है कि जैसे वृक्ष की छोटी-छोटी खाली गदेलियां हों। वृक्षों की शाखाओं को डुलाती हवा में पत्ते इस तरह हरहराते रहते हैं, जैसे तालियां बजा रहे हों। वे धरती पर पड़ती अपनी चंचल छाया से रोशनी को दिन भर नचाया करते हैं।

PunjabKesari Worship without leaves is incomplete

वृक्षों की पहचान उनके पत्तों से ही होती है। किसी वृक्ष पर पत्ते न हों तो यह बताना मुश्किल हो जाता है कि उसका नाम क्या है? अनेक वृक्ष तो लम्बी उम्र पाते हैं, पर उनकी शाखाओं पर पत्तों का जीवन कम ही होता है। पतझड़ के मौसम में पत्रहीन वृक्ष तपती धूप में ऐसे दिखाई देते हैं जैसे मन ही मन अपने आपसे पूछ रहे हों कि, ‘‘मैं कौन हूं और मेरा नाम क्या है?’’

उनका यह तप जल्दी ही उन पर रंग ले आता है। वर्षा आते ही वृक्ष की शाखाओं में बसी पत्तों की यादें जाग उठती हैं। हर वृक्ष अपना नाम बताने लगता है।

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जब कागज नहीं था, हमारे नाम पत्तों पर ही लिखे जाते थे।  हमारे शब्दों के लिए  सबसे पहले जगह पत्तों ने ही दी। हमने पत्तों पर लिख-लिख कर अपनी पोथियां बांचीं। अब तो हम समूचे वृक्ष को ही काटकर उसका कागज बना लेते हैं।

वृक्षों की 6 कोटियां मानी जाती हैं- जो वृक्ष बिना बौर आए फैलते हैं उन्हें वनस्पति, जो फलों के पक जाने पर नष्ट हो जाते हैं उन्हें औषधि, जिनमें पहले फूल आते हैं और फिर फल लगते हैं उन्हें द्रुम, जो आश्रय लेकर बढ़ते हैं उन्हें लता, जो धरती पर ही फैलते हैं उन्हें वीरुध और जिनकी छाल कठोर होती है वे वृक्ष त्वक्सार कहलाते हैं।

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जिस संसार में हम रहते हैं उसे भी एक वृक्ष के रूप में देखा जाता है जिसकी जड़ आसमान में हैं और वेदों की रिचाएं उसके पत्तों जैसी हैं।

पूजा पत्तों के बिना नहीं होती। भादों के महीनों में ऋषि पंचमी आती है, उस दिन कुलवधुएं चंदन से पान के पत्तों पर ऋषियों के नाम लिखती हैं।

ब्याह का मंडवा आम, पलाश, जामुन, गूलर, महुआ, बांस और बेरी के पत्तों तथा उनकी लकड़ियों के बिना कहां बनता है।

सुहागिन नारियां हरतालिका तीज पर शिव-पार्वती की पूजा करती हैं, निर्जला व्रत रखती हैं और बेल पत्ती खोजती फिरती हैं। बेलपत्र ही नहीं, धतूरा और अकौआ के पत्ते भी चाहिए।

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आम के पत्तों के बिना दीपावली के मंगल कलश का शृंगार कितना अधूरा लगता है। हम अपने घर के द्वारों का खालीपन दूर करने के लिए आम के पत्तों के वन्दनवार सजाते हैं।

देवताओं के भोग के लिए दोने और पत्तलें भी उन्हीं से बनती हैं। अगर पत्ते न हों तो जीवन और देवताओं का सौंदर्य ही खो जाए।

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पत्तों के बिना प्रकृति और परमेश्वर अधूरे हैं। पार्वती की तपस्या पत्तों की याद जैसी है वह शिव को पाने के लिए पत्ते खाती हैं।  फिर पत्ते खाना भी छोड़ देती हैं तो अपर्णा कहलाती हैं। पार्वती की तपस्या ग्रीष्म में बार-बार झुलसती हुई प्रकृति की ही तपस्या है, जिसे नश्वर पत्ते हर बार झर जाते हैं और प्रकृति अपनी देह की शाखाओं पर उनके हर बार पीक उठने का सपना देखती है।  तभी तो आम के वृक्ष पर हरी-हरी पत्तियों के बीच बौर के रूप में शिव प्रकट होते हैं, पार्वती का वरण करते हैं। हवा में हरहराते पत्तों की आवाज सुनो तो लगता है कि वे कोई कीर्तन कर रहे हैं।  कभी वे हौले से होंठों की तरह कांपते हैं जैसे कोई मंत्र बुदबुदा रहे हों और कभी इतने शांत और स्थिर दिखाई पड़ते हैं जैसे समाधि में लीन हों। उन्हें जब भी देखो वे कोई न कोई भजन कर रहे होते हैं।

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पत्तों को झरते हुए और मिटते हुए देखकर अपने क्षणभंगुर जीवन का एहसास होता है, तभी तो इन्हीं पत्तों को देखकर महात्मा कबीर गा उठते हैं, ‘‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूं किधर गिरेगा, लगा पवन का रेला।   उड़ जाएगा हंस अकेला, जग दरसन का मेला।’’

पत्ते झरते हैं और उड़-उड़ कर हमें चारों तरफ से घेर लेते हैं। वे हमारा पीछा करते हैं और कभी इतने शांत हो जाते हैं, जैसे आखिरी सांस ली हो। कभी-कभी लगता है कि वे जिस टहनी से झरते हैं, उसी में पीकते हैं। पत्तों में अपनी शाखा की स्मृति बसी होती है। रोशनी में झिलमिलाती पत्तियों को देखो तो वे समय की पलकों जैसी लगती हैं।

हमारे समय की पलकें धूल से भरती जा रही हैं।  राह के किनारे के पेड़ों और बगीचों में पत्तों पर धूल जमी रहती है। पत्तों की सांस लगातार रूंध रही है। गौर से देखो तो पत्तों पर दुख का रंग पीला होकर झलकता है। कोई पत्ता किसी एक कोने से पीला होने लगता है, जैसे इच्छा मृत्यु का वरण कर रहा हो और एक दिन पूरा पीला होकर झर जाता है। छाया का अर्थ तो पत्ते ही खोलते हैं। हम तरह-तरह की छायाएं भले ही रचते हों, अपने लिए छत्रछाया खोजते हों, पर हमारी रची हुई सारी छायाएं हमारा पीछा करती हैं, हमें बांधती हैं लेकिन पत्तों की शीतल छाया हमें सदा मुक्त करती है।  तपती दोपहर में राह चलते हुए वृक्ष की छाया ऐसे मिल जाती है जैसे हमारा कोई पुरखा हमें दुलार रहा हो।


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Niyati Bhandari

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