श्री कृष्ण ने अर्जुन को क्यों दिया गीता का उपदेश
punjabkesari.in Saturday, Mar 25, 2017 - 10:25 AM (IST)

निगम शास्त्र अत्यन्त अगाध हैं। शास्त्रों में कहीं घर्म, कहीं कर्म, कहीं सांख्यज्ञान एवं कहीं भगवद् भक्ति का विस्तृत रूप में उपदेश दिया गया है। इन सब व्यवस्थाओं में परस्पर क्या सम्बन्ध है, कब किस व्यवस्था को छोड़ कर दूसरी व्यवस्था स्वीकार करनी चाहिए, इस प्रकार के क्रम अधिकार तत्त्व ज्ञान का वर्णन इस शास्त्र में कहीं-कहीं देखा जाता है। किन्तु कलियुग में स्वल्प आयु और संकीर्णमेधा मनुष्य के लिये इन सब शास्त्रों का अध्ययन करना और विचार कर अधिकारानुसार अपने कर्तव्य का निर्धारण करना बड़ा मुश्किल है। इसलिए इन सभी व्यवस्थाओं या साधनाओं की एक संक्षिप्त एवं सरल मीमांसा की अत्यावश्यकता है।
द्वापार युग के अन्तिम चरण में मनुष्यों के वेदशास्त्र के यथार्थ तात्पर्य को न समझने के कारण ही किसी ने एक मात्र कर्म को, किसी ने योग को, किसी ने सांख्य ज्ञान को, किसी ने तर्क को और किसी ने अभेद ब्रह्मवाद को ही ग्रहण करने योग्य मत बतलाया। अचर्वित खाद्यों से जिस प्रकार बदहजमी हो जाती है, ठीक उसी प्रकार खण्ड-ज्ञानजनित इन मतों ने भारत भूमि में नानाविध उत्पात उपस्थित किए अर्थात यथार्थज्ञान के विषय में लोगों को भ्रमित किया।
कलियुग के आगमन से पहले ही जब उत्पात अत्यन्त प्रबल हो उठे तब, सत्यप्रतिज्ञ भगवान श्रीकृष्ण ही ने अपने सखा अर्जुन को लक्ष्यकर, जगत् कल्याण के एक मात्र उपाय स्वरूप, सर्ववेद सारार्थ मीमांसारूपी श्रीमद् भगवद् गीता का उपदेश दिया, इसलिए गीताशास्त्र सभी उपनिषदों के सिर के मुकुट के रूप में शोभायमान है।
सप्तम गोस्वामी, सच्चिदानन्द श्रील भक्ति विनोद ठाकुर
प्रस्तुति
श्री चैतन्य गौड़िया मठ की ओर से
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
bhakti.vichar.vishnu@gmail.com