क्या है चरण स्पर्श का रहस्य, जानिए यहां

punjabkesari.in Wednesday, Mar 17, 2021 - 11:48 AM (IST)

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‘अभिवादन’ शब्द का तात्पर्य है-श्रद्धा, सम्मान, स्नेह, स्वागत-सत्कार, नमस्कार इत्यादि। यह शब्द विनम्रता-शालीनता के प्रतीक के रूप में आदर सम्मान देने का सर्वोत्तम संबल है, जिसमें स्नेह, आत्मीयता, आदर आदि के सद्भाव समाहित हैं। अभिवादन की इसी उत्तमता को आंकते हुए कहा गया है-

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वद्र्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।

अर्थात अभिवादनशील तथा नित्य वृद्धजनों की सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल में सदैव वृद्धि होती है जो अभिवादनशील होगा उसमें विनम्रता, शालीनता, सभ्यता आदि सद्गुणों का होना स्वाभाविक है क्योंकि अभिवादन आत्मीयता का एक ऐसा संबल है जो स्नेह को प्रगाढ़ता प्रदान कर आदर एवं आत्मीयता की भावना उभारता है।

सामान्यता, संसार की अन्य जातियों में प्रत्येक आयु वर्ग के व्यक्तियों को एक समान रूप से ही अभिवादन किया जाता है। उनमें आशीर्वाद देने की परिपाटी देखने में नहीं आती है, जैसे-ईसाई लोग ‘गुड माॄनग’ के प्रत्युत्तर में ‘गुड माॄनग’  ही कहते हैं और जापानवासी एक-दूसरे के प्रति थोड़ा झुक कर शुभेच्छा व्यक्त करते हैं। किंतु, भारतीय संस्कृति में अभिवादन को मात्र औपचारिकता मानकर एक धर्मानुष्ठान माना गया है। हमारे शास्त्रों में अभिवादन की बहुत महत्ता बताई गई है। मनुस्मृति में कहा गया है कि अभिवादन करने का जिसका स्वभाव है और विद्या या अवस्था (आयु) में  बड़े पुरुषों का जो नित्य सेवन करता है, उसकी आयु, विद्या, यश और बल इन चारों की नित्य उन्नति होती रहती है।

भारतीय संस्कृति में मनीषियों ने अभिवादन करने के भी तरीके बताए हैं जो व्यक्ति और अवसर के अनुकूल किए जाते हैं। सर्वप्रथम देव-प्रतिमाओं के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए ‘साष्टांग प्रणाम’ बताया गया है जिसमें पृथ्वी पर गेट के बल लेटकर अपने समस्त अंगों को यथासंभव झुकाकर ईश्वर का आभार व्यक्त किया जाता है।

गुरु तथा अपनी अवस्था, विद्या एवं गुणों से श्रेष्ठ व्यक्तियों, राम-राम, हरिओम, जयहिंद आदि। आयु में छोटे व्यक्तियों को अभिवादन न करके वाणी द्वारा आशीर्वचन देना चाहिए और बहुत छोटी अवस्था वाले बालकों को मस्तक सूंघ कर उनके प्रति स्नेह प्रदर्शित करना चाहिए।

इस प्रकार अभिवादन या प्रणाम की विभिन्न क्रियाएं विकसित करने के पीछे मनीषियों की मूल भावना यह रही है कि व्यक्ति का-शारीरिक और मानसिक सब प्रकार से भला हो सके। यदि हम इन क्रियाओं का गहन अध्ययन चिंतन करें तो इनके न केवल धार्मिक एवं आध्यात्मिक वरन वैज्ञानिक महत्व भी दृष्टिगोचर होते हैं। क्रम से इन क्रियाओं की महत्ता पर विचार करते हैं।

आहिक सूत्रावली नामक ग्रंथ के अनुसार ‘छाती’, ‘सिर,’ नेत्र, मन, वचन, पैर, हाथ और घुटने, इन आठ अंगों द्वारा किए गए प्रणाम को साष्टांग प्रणाम कहते हैं। साष्टांग प्रणाम के द्वारा शरीर के सभी अंग पूर्णरूपेण झुक जाते हैं और हम स्वयं को परमात्मा के चरणों में समॢपत कर देते हैं। निश्चित रूप से परमपिता के प्रति आभार व्यक्त करने का इससे बेहतर कोई और तरीका हो ही नहीं सकता। इस क्रिया के करने से अहंकारादि समस्त मनोमालिन्य दूर होकर हृदय शुद्ध-पवित्र हो जाता है।

चरण स्पर्श एक ऐसी परम्परा है जो अन्य कहीं नजर नहीं आती। इस संबंध में मनुस्मृति में कहा गया है कि ‘वेद के स्वाध्याय के आरंभ और अंत में सदैव गुरु के दोनों चरण ग्रहण करने चाहिएं। बाएं हाथ से बाएं पैर तथा दाएं हाथ से दाएं पैर का स्पर्श करना चाहिए।’

इसी संबंध में ‘पैठीपसि कुल्लूकभीय’ ग्रंथ में भी कहा गया है कि अपने दोनों हाथों को ऊपर की ओर सीधा रखते हुए दाएं हाथ से दाएं पैर तथा बाएं हाथ से बाएं पैर का स्पर्शपूर्वक अभिवादन करना चाहिए।

चरण-स्पर्श के चार लाभ-आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि, मनु महाराज ने बताए ही हैं। दरअसल, जब हम अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति के समक्ष श्रद्धापूर्वक झुकते हैं तो उसमें प्रतिष्ठित ज्ञान और गुणों की तरंगें हमारे शरीर में प्रवाहित होने लगती हैं। यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जाता है जिसमें पहले से जले दीपक की बिना हानि हुए एक दूसरा दीपक प्रकाशित हो जाता है। शरीर के स्पर्श के द्वारा श्रेष्ठ और पूजनीय व्यक्ति को इन्हीं उत्तम तरंगों को ग्रहण किया जाता है।

दूसरा वैज्ञानिक पहलू यह है कि मानव-शरीर का बायां भाग ऋणात्मक और दायां भाग धनात्मक ऊर्जा से युक्त होता है। जब दो व्यक्ति आमने-सामने खड़े होते हैं तो स्वाभाविक रूप से शरीर के ऋणात्मक ऊर्जा वाले भाग के सामने धनात्मक ऊर्जा वाला भाग आ जाता है।

जब कोई व्यक्ति दोनों हाथों को घुमाकर दाएं हाथ से दाएं पैर और बाएं हाथ से बाएं पैर को स्पर्श करता है और चरण स्पर्श करवाने वाला व्यक्ति आशीर्वाद प्रदान करते हुए अपना हाथ दूसरे व्यक्ति के सिर पर रख देता है तब उन दोनों की समान ऊर्जाएं आपस में मिल जाती हैं और ऊर्जा वर्तुल बन जाता है। इस क्रिया से श्रेष्ठ व्यक्ति के गुण और ओज का प्रवाह दूसरे व्यक्ति में होने लगता है। प्राचीनकाल में गुरुजन इसी क्रिया के द्वारा शिष्यों में गुणों का आदान करते थे।

उपरोक्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि अभिवादन करने की क्रिया न केवल धार्मिक या आध्यात्मिक है अपितु पूर्णरूप वैज्ञानिक भी। ऋषि-मुनियों ने मनुष्य के हितार्थ ही उचित अभिवादन क्रिया का प्रावधान किया। आज भले ही अभिवादन करने की अनेक अनुचित और निरर्थक क्रियाएं विकसित हो गई हैं किंतु इनसे हमारी प्राचीन क्रियाओं का महत्व कम नहीं होता।

—पं. कमल राधाकृष्ण ‘श्रीमाली’


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Content Writer

Jyoti

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