Vijaya Ekadashi 2019: ज़िंदगी में कभी नहीं करना चाहते हार का सामना तो करें ये व्रत

punjabkesari.in Friday, Mar 01, 2019 - 04:08 PM (IST)

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हिंदू धर्म में एकादशी का बहुत महत्व होता है। पूरे साल में आने वाली हर एकादशी को पुण्य कामों और भक्ति के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। ये बात तो जानते ही हैं कि फाल्गुन मास शुरु हो चुका है। तो आज हम आपको फाल्गुन मास में पड़ने वाली कृष्ण पक्ष की एकादशी के बारे में बताएंगे जोकि कल यानि 2 मार्च 2019 को पड़ रही है और जिसे विजया एकादशी के नाम से जाना जाता है। जैसा कि इसके नाम से पता चल रहा है कि ये हर काम में विजय दिलाने वाली एकादशी है। शास्त्रों में बताया गया है कि इस व्रत को भगवान राम ने लंका पर विजय पाने से पहले रखा था। ऐसा माना जाता है कि जो कोई भी इस व्रत का सच्चे मन से पालन करता है, उसे हर काम में जीत मिलती है। तो आइए जानते हैं विजया एकादशी की कथा के बारे में, जिसको पढ़ने व सुनने से पुण्य की प्राप्ति होती है।   
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एक बार नारद जी ने ब्रह्मा जी से प्रश्न किया कि, "हे देवश्रेष्ठ! फाल्गुन महीने के कृष्ण पक्ष में पड़ने वाली विजया एकादशी की महिमा हमें सुनाएं।"

नारद जी की जिज्ञासा को देखते हुए ब्रह्मा जी ने कहा, नारद ये प्राचीन व्रत बड़ा पवित्र और हर तरह से पापों का नाश करने वाला माना जाता है। शास्त्रों के अनुसार ये व्रत हर काम विजय दिलाने वाला है और इस व्रत का पालन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र जी ने भी किया था। अपने पिताजी की आज्ञा का पालन करने के लिए रामजी ने चौदह वर्ष के लिए भाई लक्ष्मण और अपनी पत्नी सीता जी के साथ वन को गए, तब उन्होंने गोदावरी नदी के तट पर पंचवटी नाम के एक सुदंर वन में निवास किया। वहीं पर राक्षसराज रावण, देवी सीता को अपहरण करके लंका ले गया था। माता सीता के विरह में भगवान श्रीरामचंद्र जी अत्यंत विरह वियाकुल हो गए और वन-वन में सीता जी की खोज करने लगे। तभी पक्षीराज जटायु का भगवान राम से मिलन हुआ। जटायु ने सीता हरण की सारी घटना प्रभु श्रीराम जी को सुनाई तथा सीता हरण की सारी घटना बताकर भगवान श्रीराम जी की कृपा प्राप्त कर जटायु ने शरीर त्याग दिया और स्वर्ग लोक को चले गए। 
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समय बीतने पर भगवान राम सीता माता की खोज करते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर गए। वहां उन्होंने वानर राज सुग्रीव से मित्रता की। सुग्रीव ने भगवान श्रीराम की मदद करने के उद्देश्य से अपनी सारी वानर सेना इकट्ठी की और माता सीता जी का पता लगाने के लिए दसों दिशाओं में गए। तब हनुमान जी समुद्र को लांघ कर लंका में पहुंच गए। वहां उन्होंने अशोक वाटिका में सीता जी से भेंट की और जानकी जी को विश्वास दिलाने के लिए भगवान श्रीराम जी के द्वारा दी हुई निशानी के रूप में उन्हें अंगूठी समर्पित की। उसके पश्चात लंका दहन करके वे अपने भगवान राम के पास पहुंच कर सारा वृतांत सुनाया। हनुमान जी से सारी घटना सुनकर भगवान राम ने अपने मित्र सुग्रीव के साथ विचार-विमर्श करके सारी वानर सेना के साथ लंका जाने का निर्णय लिया और विशाल वानर सेना को लेकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ सागर तट पर पहुंचे। 
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उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि, हे सुमित्रानंदन! बड़े-बड़े भयानक जल जंतुओं, तिमि तिमिंगल व मगरमच्छों से पूर्ण इस भयंकर विशाल समुद्र को कैसे पार करें? 

लक्ष्मण ने कहा, हे पुरुषोत्तम! इस द्वीप में बकदालभ्य नाम के ऋषि रहते हैं। यहां से लगभग आधा योजन यानि दो कोस की दूरी पर ही उनका आश्रम है। वहीं हमें समुद्र पार जाने का रास्ता बता सकते हैं। 
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लक्ष्मण जी की बात सुनकर भगवान श्रीरामचंद्र बक दालभ्य ऋषि के आश्रम पर गए तथा वहां जाकर उन्होंने बड़े आदर के साथ महर्षि को प्रणाम किया। वे भगवान राम को देखकर पहचान गए कि ये साक्षात् भगवान ही हैं। फिर भी उन्होंने अपने भाव पर संयम रखा और उनसे पूछा कि हे राम! मेरी कुटिया पर आपका शुभागमन किस कारण हुआ और मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं, आज्ञा दीजिए। ऋषि की बात सुनकर भगवान राम ने कहा, हे ऋषिवर दुष्ट रावण को युद्ध में पराजित करके उसका वध करने के लिए मैं अपनी सैन्य वाहिनी लेकर समुद्र तट पर आया हूं। लेकिन में इस दुष्पार सुमद्र को कैसे पार करूं, उसके लिए आप कोई सुगम उपाय बताएं, इसी कारण मैं आपके पास आया हूं। 
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भगवान श्रीराम जी की बात सुनकर ऋषि बोले, हे भगवान मैं आपको सभी व्रतों में एक उत्तम व्रत के बारे में बताऊंगा। जिसका पालन करने से आपको अवश्य ही विजय प्राप्त होगी और जिससे आप लंका पर विजय प्राप्त करके आप विश्व में अपनी पवित्र कीर्ति स्थापित करेंगे। वह व्रत फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की विजया एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस व्रत का पालन करने से आपको समुद्र पार करने में कोई कठिनाई नहीं आएगी और आने वाले सभी विघ्नों का नाश हो जाएगा। दशमी के दिन सोना, चांदी, तांबा अथवा मिट्टी के एक घड़ा पानी से भरकर रखें। उस पर आम के पत्ते सजा दें। इसके बाद सुदंर एवं पवित्र स्थान पर एक वेदी की स्थापना करें। सात प्रकार के अनाज रखकर इस कलश को उस वेदी पर रखें और उस कलश के ऊपर सोने से बनी भगवान नारायण की प्रतिमा रखें। एकादशी के दिन तुलसी, गंध, पुष्प, माला, धूप, दीप तथा नैवेद्य आदि सामग्रियों द्वारा बड़ी श्रद्धा के साथ भगवान नारायण की पूजा करें और सारा दिन व सारी रात उसी प्रतिमा के सामने बैठकर श्रीनारायण नाम का जप करते हुए जागरण करें। द्वादशी के दिन सूर्योदय के बाद किसी पवित्र नदी अथवा जलाशय के पास जा करके कलश की यथाविधि पूजा करके किसी निष्ठावान सदाचार संपन्न ब्राह्मण को अन्न, वस्त्र व धन आदि द्रव्यों के साथ कलश को दान करें। इससे आपको अवश्य ही विजय लाभ होगी। भगवान श्रीरामचंद्रजी ने उन ऋषि के उपदेशानुसार एकादशी व्रत के पालन का आदर्श दिखाया और उसके फलस्वरूप लंका पर विजय पाई। 
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ब्रह्माजी ने नारद जी को कहा, हे प्रभु! जो व्यक्ति विधि-विधान के साथ इस व्रत का पालन करता है, वह इस लोक में और परलोक में सर्वत्र ही विजय प्राप्त कर सकता है। हे प्रभु यह व्रत विजय दिलाने के साथ-साथ व्रतकारी के सभी पापों को भी नाश कर देता है। इसलिए हर व्यक्ति को इस व्रत का पालन अवश्य करना चाहिए। 
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