रॉयल पैलेस का अस्तित्व खतरे में है और हमेशा रहेगा!

punjabkesari.in Monday, Jul 24, 2017 - 01:45 PM (IST)

मांडले हिल की तलहटी पर बना बर्मी राजशाही का अंतिम शाही महल ‘‘रॉयल पैलेस’’ आज, मांडले का एक प्रमुख प्रतीक और प्रमुख पर्यटन स्थल है। महल का निर्माण 1857 में राजा मिनडान (Mindon) के नए शाही राजधानी मांडले की स्थापना के हिस्से के रूप में शुरू किया, जो 1859 में तैयार हुआ। 413 हेक्टेयर में फैले महल परिसर की चारदीवारी वर्गाकार है जिसकी चारों दीवारें 2-2 किलोमीटर लम्बी है। चारदीवारी के बाहर हमेशा पानी से भरी रहने वाली 210 फीट चौड़ी और 15 फीट गहरी खाई है। खाई के ऊपर से महल परिसर में जाने के लिए 5 पूल बने हुए हैं। चारदीवारी की चारों दिशाओं में बराबर दूरी पर 3-3 द्वार हैं। ये 12 द्वार 12 राशियों का प्रतिनिधित्व करतें हैं। परिसर में सभी भवन पारम्परिक बर्मी शैली में एक मंजिल ऊंचे लकड़ी के बने हैं। वाॅच टाॅवर  परिसर की दक्षिण दिशा के मध्य में बना है। परिसर में ही राजघराने की टकसाल भी थी।


मांडले पैलेस देश के अंतिम दो राजाओं मिनडान और थिबा का प्राथमिक शाही निवास था। 28 नवंबर 1885 को तीसरे एंग्लो-बर्मा युद्ध के दौरान, बर्मा फील्ड फोर्स के सैनिकों ने महल में प्रवेश किया और महल व शाही परिवार पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों ने महल पर हमला कर यहां की कीमती कलाकृतियों को लूट लिया और शाही पुस्तकालय को जला दिया। यहां की कलाकृतियां आज भी लंदन के विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालयों में पड़ी हैं। अंग्रेजों ने इस महल का नाम भारत के तत्कालीन वायसराय के नाम पर फोर्ट डफरिन कर दिया और अपनी फौज को छावनी बना दिया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मित्र सेनाओं की ही लापरवाही भरी बमबारी से ज्यादातर महल परिसर जल कर नष्ट हो गया केवल शाही टकसाल और घड़ी टॉवर बचे रह गए।


इस प्रकार महल पर पहले अंग्रेजो का हमला कर उसे लूटना, राजाओं को बर्मा फील्ड फोर्स के द्वारा सिंहासन से हटाना और बाद में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महल का पूरी तरह से नष्ट होना। इन सभी घटनाक्रमों में महल परिसर की भौगोलिक स्थिति के वास्तुदोषों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।


राजाओं द्वारा महल के निर्माण के लिए जगह का चुनाव ही वास्तु सिद्धान्तों के विपरीत रहा क्योंकि परिसर के बाहर ईशान कोण में मण्डाले हिल की ऊंचाई है, जिसका फैलाव ईशान कोण से लेकर पूर्व दिशा में है। महल परिसर की पश्चिम दिशा में उत्तर से दक्षिण दिशा की ओर इरावडी (Irrawaddy) नदी बह रही है। महल परिसर के बाहर जमीन का ढ़लान नैऋत्य कोण एवं दक्षिण दिशा की ओर है जहां थोड़ी दूरी पर दो-तीन जगह नदी के पानी का भारी जमाव रहता है। इन्हीं वास्तुदोषों के कारण ही सामरिक दृष्टि से बने महल के अस्तित्व पर एक के बाद एक संकट आते गए और अंत में ध्वस्त हो गया। इस महल का 1989 में पुर्ननिर्माण लकड़ी के साथ-साथ कुछ आधुनिक सामग्रियों (सीमेंट, सरिये इत्यादि) से किया गया है। यह तय है कि वास्तु विपरीत भौगोलिक स्थिति के कारण इस महल का अस्तित्व खतरे में है और हमेशा रहेगा।  
 

वास्तुगुरू कुलदीप सलूजा
thenebula2001@gmail.com


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