‘स्वर्ग जाने का मार्ग’ है एक ही चट्टान को काट कर बने मसरुरमंदिर में

Wednesday, Dec 06, 2017 - 01:16 PM (IST)

देवभूमि के नाम से विख्यात हिमाचल प्रदेश में लगभग 2 हजार मंदिर विद्यमान हैं। इनमें हिंदू धर्म के मान्यताप्राप्त शक्तिपीठ विश्व भर में विख्यात हैं, परंतु प्रदेश के कांगड़ा जिले में एक ऐसा विचित्र मंदिर है जो मात्र एक ही चट्टान को काट कर बनाया गया है।


भगवान शिव तथा श्रीराम चंद्र को समर्पित यह मंदिर लगभग 8वीं शताब्दी में निर्मित किया गया था तथा समुद्र तल से 2500 फुट की ऊंचाई पर एक ही चट्टान को काट कर बना देश का एकमात्र मंदिर माना जाता है। इस मंदिर की एक झलक देखने से ही स्पष्ट हो जाता है कि उन दिनों भी इस महान देश की भवन निर्माण कला तथा नक्काशी कितनी उच्च स्तरीय थी।

मंदिर कांगड़ा से 32 किलोमीटर तथा श्री ज्वाला जी से 34 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मसरुर मंदिर कोई एक मंदिर नहीं, बल्कि लगभग नौ मंदिरों का एक समूह है। यदि इतिहासकारों की मानें, तो ऐसे तथ्य भी सामने आ रहे हैं जिनके अनुसार यहां पहले 15 मंदिर विद्यमान थे, जो समय की गर्त के चलते नष्ट हुए अथवा किन्हीं प्राकृतिक कारणों से लुप्त हो गए।


किंवदंतियों में इन मंदिरों का संबंध पांडवों से जोड़ा जाता है। मान्यता के अनुसार इसी मंदिर के प्रांगण में स्थित जलाशय के जल से द्रौपदी ने भगवान शिव की अर्चना तथा जलाभिषेक किया था। कहते हैं कि इस मंदिर का इतना महत्व था कि जनसाधारण में यह प्रबल धारणा व्याप्त थी कि यहां पर पूजा तथा तपस्या करने से स्वर्ग प्राप्ति का द्वार खुलता है। यहां आज भी विशाल पत्थरों के बने दरवाजानुमा द्वार हैं, जिन्हें ‘स्वर्गद्वार’   के नाम से जाना जाता है। कुछ अन्य मान्यताओं के अनुसार, पांडव अपने स्वर्गारोहण से पहले इसी स्थान पर ठहरे थे, जिसके लिए यहां स्थित पत्थरनुमा दरवाजों को ‘स्वर्ग जाने का मार्ग’ भी कहा जाता है।

 


इन मंदिरों में नंदी तथा भगवान शिव को समर्पित अति आकर्षक मंदिर है, जिसमें नंदी की मूर्ति को मुख्य मंदिर की चट्टान को तराश कर बनाई गई मंदिर की छत के बाहर ही दक्षिण भारतीय शैली में स्थापित किया गया है। इसके साथ ही एक अन्य युग में वैष्णव मत के अनुयायियों द्वारा यहां श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीता माता की मूर्तियां भी स्थापित की गईं। इस मंदिर के ऊपरी भाग को, इसके नीचे वाले प्रांगण से एक सीढ़ीनुमा सुरंग से जोड़ा जाता है। 


ये मंदिर हिमाचल प्रदेश ही नहीं बल्कि उत्तर भारत के किसी अन्य धर्मस्थल से अलग ही नजर आते हैं। मंदिरों की रचना अद्भुत है। यहां की मूर्तिकला पर दक्षिण भारतीय वास्तुकला के नक्शों की छाप इन्हें और भी अद्भुत बना देती है। कुछ विद्वान इन मंदिरों की शैली में हिंद-चीन के देशों लाओस, कम्बोडिया के धर्मस्थलों की निर्माणकला की छाप देखते हुए, यहां छठी शताब्दी में बौद्ध भिक्षुओं के आगमन तथा ध्यान क्रियाओं की पुष्टि करते हैं।


मसरुर मंदिरों के निर्माण में प्रयुक्त की गई पिरामिड तकनीक के कारण ये मंदिर 1905 ई. के कांगड़ा के भीषण भूकंप में सुरक्षित रहे तथा ऊंचे पहाड़ों की चोटियों में बसे होने के कारण मध्यकालीन आक्रामक विदेशी विध्वंसकों के हमलों से भी सुरक्षित बचे रहे, परंतु यह भी एक सत्य है कि मंदिरों के गुबंदों तथा अन्य कुछ स्थानों पर समय का प्रभाव नजर आता है।        

Advertising