स्वामी प्रभुपाद: हरे कृष्ण मंत्र में छुपा है शुद्ध भक्त की प्राप्ति का राज
punjabkesari.in Monday, Sep 22, 2025 - 02:00 PM (IST)

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अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन :॥8.14॥
अनुवाद : हे अर्जुन ! जो अनन्य भाव से निरंतर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मैं सुलभ हूं क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है।
तात्पर्य : इस श्लोक में उन निष्काम भक्तों द्वारा प्राप्तव्य अन्तिम गन्तव्य का वर्णन है, जो भक्तियोग के द्वारा भगवान की सेवा करते हैं। इस श्लोक में शुद्ध भक्तियोग का वर्णन है, जिसमें ज्ञान, कर्म या हठ का मिश्रण नहीं होता। जैसा कि अनन्यचेता: शब्द से सूचित होता है, भक्तियोग में भक्त कृष्ण के अतिरिक्त और कोई इच्छा नहीं करता।
शुद्धभक्त न तो स्वर्गलोक जाना चाहता है, न ब्रह्मज्योति से तादात्म्य या मोक्ष या भवबन्धन से मुक्ति ही चाहता है। शुद्धभक्त किसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करता।
चैतन्यचरितामृत में शुद्धभक्त को निष्काम कहा गया है। उसे ही पूर्णशान्ति का लाभ होता है, उन्हें नहीं जो स्वार्थ में लगे रहते हैं। एक ओर जहां ज्ञानयोगी, कर्मयोगी या हठयोगी का अपना-अपना स्वार्थ रहता है, वहीं पूर्णभक्त में भगवान को प्रसन्न करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा नहीं होती। अत: भगवान कहते हैं कि जो एकनिष्ठ भाव से उनकी भक्ति में लगा रहता है, उसे वह सरलता से प्राप्त होते हैं।
शुद्धभक्त सदैव कृष्ण के विभिन्न रूपों में से किसी एक की भक्ति में लगा रहता है। कृष्ण के अनेक अंश, विस्तार तथा अवतार हैं, यथा, राम तथा नृसिंह और भक्त इनमें से किसी एक रूप को चुनकर उसकी प्रेमाभक्ति में मन को स्थिर कर सकता है। ऐसे भक्त को उन अनेक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता, जो अन्य योग के अभ्यासकर्ताओं को झेलनी पड़ती हैं। भक्तियोग अत्यन्त सरल, शुद्ध तथा सुगम है। इसका शुभारम्भ हरे कृष्ण जप से किया जा सकता है। भगवान सब पर कृपालु हैं, किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जो अनन्य भाव से उनकी सेवा करते हैं वे उनके ऊपर विशेष कृपालु होते हैं। भगवान ऐसे भक्तों की सहायता अनेक प्रकार से करते हैं।
शुद्धभक्त का सबसे बड़ा गुण यह है कि वह देश अथवा काल का विचार किए बिना अनन्य भाव से कृष्ण का ही चिन्तन करता रहता है। उसको किसी तरह का व्यवधान नहीं होना चाहिए। उसे कहीं भी और किसी भी समय अपना सेवा कार्य करते रहने में समर्थ होना चाहिए।
कुछ लोगों का कहना है कि भक्तों को वृन्दावन जैसे पवित्र स्थानों में या किसी पवित्र नगर में, जहां भगवान रह चुके हैं, रहना चाहिए, किन्तु शुद्धभक्त कहीं भी रहकर अपनी भक्ति से वृन्दावन जैसा वातावरण उत्पन्न कर सकता है। श्री अद्वैत ने भगवान चैतन्य से कहा था, ‘आप जहां भी हैं, हे प्रभु ! वहीं वृन्दावन है।’
शुद्धभक्त निरन्तर कृष्ण का ही स्मरण करता है और उन्हीं का ध्यान करता है। ये शुद्धभक्त के गुण हैं, जिनके लिए भगवान सहज सुलभ हैं। गीता समस्त योग पद्धतियों में से भक्तियोग की ही संस्तुति करती है।
शुद्धभक्त परमेश्वर की प्रेमाभक्ति में युक्त होता है और उन्हें कभी नहीं भूल पाता, जिससे भगवान उसे सरलता से प्राप्त हो जाते हैं। जिस प्रकार शुद्धभक्त क्षणभर के लिए भी भगवान को नहीं भुलाता, उसी प्रकार भगवान भी अपने शुद्धभक्त को क्षणभर के लिए भी नहीं भूलते।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे’- इस महामंत्र के कीर्तन की कृष्ण भावनाभावित विधि का यही सबसे बड़ा वरदान है।