Srimad Bhagavad Gita: सभी में स्वयं और स्वयं में सभी को देखना

punjabkesari.in Friday, May 03, 2024 - 07:26 AM (IST)

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Srimad Bhagavad Gita: अस्तित्व व्यक्त जैसे हमारा शरीर और अव्यक्त या आत्मा (स्व) का समन्वय है। हम अस्तित्व को या तो व्यक्त के माध्यम से या अव्यक्त के माध्यम से अनुभव कर सकते हैं। हम व्यक्त से परिचित हैं, जहां हम लोगों, स्थितियों और चीजों के बीच अंतर करते हैं क्योंकि हमारी इंद्रियां केवल व्यक्त को ही समझने में सक्षम हैं। हम व्यक्त के पीछे छुपे हुए अव्यक्त को मुश्किल से पहचान पाते हैं क्योंकि इसके लिए इंद्रियों से परे जाने की आवश्यकता होती है।

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उदाहरण के लिए, जब हम किसी व्यक्ति को देखते हैं तो हम सबसे पहले देखते हैं कि वह पुरुष है या महिला। इसके बाद हम देखते हैं कि उसका पोशाक और व्यवहार कैसा है, और वह कितना प्रभावशाली या धनी है। इसके बाद, हम उससे जुड़ी अच्छी और बुरी बातों को याद करते हैं। हमारा व्यवहार उन निर्णयों पर निर्भर करता है जो हम इन विभाजनों के आधार पर करते हैं।
इस संबंध में श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘‘सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थित रूप योग से युक्त आत्मा वाला तथा सब में समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है’’ (6.29)। यह पांचों इंद्रियों से परे जाने का मार्ग है। इसे रूपक के तौर पर देखें तो, यह एक कुआं खोदने जैसा है जहां इंद्रियां रेत, पत्थर और बजरी देखती हैं हालांकि खोदाई की शुरूआत में पानी नहीं होता, लेकिन हमेशा पानी प्रकट होता है।

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यह श्लोक व्यक्त को देखने की आदत को बदल कर अव्यक्त को महसूस करने की ओर इशारा करता है। यह बोध है कि प्रत्येक व्यक्ति या वस्तु (प्रकट) के पीछे वही अव्यक्त विद्यमान है जिसे श्रीकृष्ण ने ‘हर जगह एक समान देखना’ कहा था।

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यह एक पेड़ पर दो लटकने वाले फलों की तरह है जो यह महसूस करते हैं कि एक ही तना उन्हें खिलाता है और वे एक बड़े पेड़ का हिस्सा हैं फिर सब कुछ अव्यक्त के मंच पर खेला जाने वाला नाटक बन जाता है।

निश्चित रूप से, जैसा कि पहले श्रीकृष्ण ने संकेत दिया था, सभी प्राणियों में स्वयं को और सभी प्राणियों को स्वयं में देखने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है।  


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Content Writer

Niyati Bhandari

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