Shahid Diwas, 23 march: कुछ ऐसी थी शहीदों की वो आखिरी रात
punjabkesari.in Monday, Mar 23, 2020 - 09:11 AM (IST)
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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में शहीद-ए-आजम भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव का नाम आदरपूर्वक लिया जाता है, जो अंतिम सांस तक आजादी के लिए अंग्रेजों से टक्कर लेते रहे। 23 मार्च, 1931 के दिन भगत सिंह, राजगुरु तथा सुखदेव को लाहौर सैंट्रल जेल में फांसी के तख्ते पर झुलाया गया, तो पूरे देश में अंग्रेजों के प्रति रोष की लहर दौड़ गई। फांसी के तख्ते पर चढ़कर पहले तो तीनों ने फांसी के फंदे को चूमा और फिर अपने ही हाथों से उस फंदे को सहर्ष गले में डाल लिया। यह देखकर जेल के वार्डन ने कहा था, ‘‘इन युवकों के दिमाग बिगड़े हुए हैं, ये पागल हैं।’’
तब सुखदेव ने उसे यह गीत सुनाया : ‘‘इन बिगड़े दिमागों में घनी खुशबू के लच्छे हैं। हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं।’’
इसी के साथ तीनों क्रांतिकारी फांसी के फंदे पर झूल गए। ये तीनों अद्भुत क्रांतिकारी विचारधारा के अनुयायी थे। तभी तो फांसी लगने से कुछ क्षण पहले तक भगत सिंह एक मार्क्सवादी पुस्तक पढ़ रहे थे, सुखदेव कुछ गीत गुनगुना रहे थे एवं राजगुरु वेद मंत्रों का गान कर रहे थे। जीवन की मस्ती इन्हें डी.ए.वी. कालेज लाहौर में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार के स्नातक जयचंद विद्यालंकार के विचारों से प्राप्त हुई थी। ये तीनों ‘नौजवान भारत सभा’ के सक्रिय सदस्य तथा ‘हिंदुस्तान समाजवादी रिपब्लिकन आर्मी’ के अनोखे वीर थे।
तीनों की मित्रता इसलिए भी सुदृढ़ और मजबूत थी क्योंकि उनकी विचारधारा एक थी। राजगुरु ने वाराणसी में विद्याध्ययन करने के साथ-साथ संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। वहीं रहते हुए धर्मग्रंथों तथा वेदों का अध्ययन किया तथा साथ-साथ लघुसिद्धांत ‘कौमुदी’ जैसे क्लिष्ट ग्रंथ का अध्ययन किया। ‘कौमुदी’ इन्हें पूर्ण रूप से कंठस्थ थी और ये छत्रपति शिवाजी की छापामार युद्ध शैली के बहुत प्रशंसक थे। इसी प्रकार सुखदेव को खतरों से खेलने की आदत हो गई थी। उनकी स्मरणशक्ति अद्भुत थी।
भगत सिंह जन्म से ही स्वतंत्र विचारधारा के व्यक्ति थे। अपने पिता सरदार किशन सिंह तथा चाचा अजीत सिंह के स्वतंत्र विचार उनकी रग-रग में समाए हुए थे। उनकी पांच साल की उम्र रही होगी, वह अपने पिता के साथ जब खेत में गए तो वहां कुछ तिनके चुनकर जमीन में गाडऩे लगे।
पिता ने हंस कर पूछा, ‘‘पुत्र क्या कर रहे हो?’’
भगत सिंह ने उत्तर दिया, ‘‘मैं बंदूकें बो रहा हूं, इनसे बहुत सारी बंदूकें बन जाएंगी और इनका प्रयोग अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ किया जाएगा।’’
तीनों ही साथियों ने साइमन कमीशन का जमकर विरोध किया। पुलिस की बर्बरता से लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए तथा 17 नवम्बर, 1928 को उनका देहांत हो गया। भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और उनके साथियों ने लाला जी की मौत का बदला लेने की योजना बनाई। चंद्रशेखर आजाद और राजगुरु ने साथ मिलकर पुलिस अधीक्षक सांडर्स को 17 दिसम्बर, 1928 को गोली से उड़ा दिया।
इस घटना के तुरन्त बाद भगत सिंह वेश बदलकर कलकत्ता के लिए प्रस्थान कर गए। वहीं रहते हुए भगत सिंह ने बम बनाने की विधि सीखी। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का यह दृढ़ विश्वास था कि पराधीन भारत की बेडिय़ां अहिंसा की नीतियों से नहीं काटी जा सकतीं। इसी कारण भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को सैंट्रल असैंबली के अंदर बम फैंका।
साथ ही विजिटर्स गैलरी में खड़े होकर शांतिपूर्वक पर्चे बांटते रहे, जिन पर उन्होंने अपना उद्देश्य भारत माता की पूर्ण आजादी लिखा हुआ था तथा ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे भी लगाते रहे। उद्देश्य किसी की हत्या करना नहीं था बल्कि देश की जनता में जागृति उत्पन्न करना था। बम फैंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया।
बम फैंकने के अपराध में सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को 7 अक्तूबर, 1930 को फांसी की सजा सुना दी गई। इसका सर्वत्र विरोध होने के बावजूद 23 मार्च, 1931 को लाहौर जेल में भारत माता के तीनों सपूतों को फांसी दे दी गई और पुलिस ने उनकी लाशों को रात्रि के समय फिरोजपुर (पंजाब) में जला दिया। सारे देश में शोक की लहर दौड़ गई तथा इन शहीदों के बलिदान पर 23 मार्च को शोक दिवस के रूप में मनाया गया।
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के असीम देश प्रेम एवं बलिदान से नवयुवकों तथा क्रांतिकारियों में राष्ट्रीय चेतना का तीव्रता से संचार हुआ। इन वीरों ने क्रांतिकारी कार्यों और अपने बलिदान से अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ों को मूल रूप से हिलाने का वह काम किया, जिससे कुछ ही समय के उपरांत अंग्रेजों का विशाल साम्राज्य भूमिसात होता चला गया।