स्वार्थ से किए गए सौ कामों से बेहतर होता है बिना स्वार्थ से किए गया एक काम

punjabkesari.in Saturday, Feb 03, 2018 - 03:22 PM (IST)

पुराने समय की बात है एक नगर में एक जुआरी व नास्तिक व्यक्ति रहता था। उसमें बहुत सारे अवगुण थे। उसकी दोस्ती भी एेसे ही लोगों से थी, जिन्हें सभी बुरी आदतों थी। एक बार जुआरी ने ढेर सारा पैसा जीता। उस पैसे से उसने बहुत सारे सोने के जेवर खरीदे, पनवाड़ी से पान का बीड़ा बनवाया। दो फूलों के मालाएं खरीदीं और उसकी प्रेमिका जो कि एक वैश्या थी के घर की तरफ चल पड़ा। वो जल्दी से जल्दी उसके घर पहुंचना चाहता था इसलिए तेजी से दौड़ने लगा। अचानक उसका पैर एक नीची जगह पर पड़ा और वह गिर पड़ा। सिर में गहरी चोट आने के कारण वह बेसुध हो गया।

 

उसका सारा सामान जमीन पर बिखर गया। जब उसे होश आया तो उसे बहुत पछतावा हुआ कि एक वैश्या से मिलने के लिए वह क्यों इतना उतावला हो रहा था। उसके मन में वैराग्य का भाव आ गया। उसने जमीन पर बिखरा सारा सामान एकत्रित किया। मन में बहुत शुद्ध भाव से वह एक शिव मंदिर गया और वो सारा सामान शिवलिंग को अर्पित कर दिया। पूरे जीवन में उसने यही एक पुण्य का काम किया है। समय बीतने पर जब उसकी मौत हुई तो यमदूत उसे यमलोक ले गए। वहां उसे चित्रगुप्त के सामने पेश किया गया। चित्रगुप्त ने बोला सुन मानव तूने तो जीवनभर पाप ही किए हैं तुझे एक लंबे काल तक दुख भोगना पड़ेगा। 

 

तब उस जुआरी आदमी ने कहा- आपकी बात सच है भगवन जरूर ही मैं बहुत बड़ा पापी हूं। ये भी निश्चित है कि उन पापों की सजा मुझे भुगतनी पड़ेगी, लेकिन मैंने कभी तो कोई पुण्य का काम किया होगा। उस पर भी तो विचार कीजिए। चित्रगुप्त ने उसके जीवन का लेखा-जोखा देखा। फिर वे बोले तुमने मरने से पहले एक बार थोड़े से फूल और सुगंध भगवान शंकर को अर्पित किए थे। इसी कारण तुम कुछ देर स्वर्ग जाने के अधिकारी बन गए हो। तुम्हें तीन घड़ी के लिए स्वर्ग का सिंहासन मिलेगा। अब तुम बताओ पहले अपने पुण्य का फल चाहते हो या अपने पापों का। जुआरी बोला- हे देव नर्क में तो मुझे लंबे समय तक रहना है। पहले मुझे स्वर्ग का सुख भोगने के लिए भेज दीजिए। तब यमराज की आज्ञा से उस जुआरी व्यक्ति को स्वर्ग में भेज दिया गया। देवगुरु बृहस्पति ने इन्द्र को समझाया। 

 

तुम तीन घड़ी के लिए अपना यह सिंहासन इस जुआरी के लिए छोड़ दो। तीन घड़ी के बाद यहां आ जाना। इंद्र ने वैसा ही किया। इंद्र के जाते ही वह जुआरी स्वर्ग का राजा बन गया। उसने मन में विचार किया कि अब भगवान शंकर की शरण में जाने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। उसने खुलकर चीजों का दान किया। उसने इंद्र का ऐरावत महर्षिं अगस्त्य को दान दिया। उच्चैश्रवा नाम का घोड़ा विश्वामित्र को दे डाला। कामधेनु गाया महर्षि वशिष्ठ को दान कर दी। चिंतामणि रत्नमाला महर्षि मालव को भेंट कर दी। कल्प वृक्ष कौडिन्य मुनि को दान कर दिया। तीन घड़ी के बाद उसे वापस नर्क भेज दिया गया। जब इंद्र लौटकर आए तो सारी अमरावती ऐश्वर्य विहीन हो गई थी। वे बृहस्पतिजी को लेकर यमराज के पास पहुंचे और क्रोधित हुए। वे बोले उस जुआरी को राजा बनाकर आपने गलत काम किया।

 

उसने तो वहां की सारी बहुमूल्य वस्तुएं दान में दे डालीं। यह सुनकर धर्मराज ने उत्तर दिया- देवराज आप बूढ़े हो गए हैं, लेकिन अभी तक आपकी राज्य की विषय आसक्ति दूर नहीं हुई है। उस जुआरी का एक पुण्य सौ यज्ञों से भी अधिक महान है, क्योंकि उसके किसी पुण्य में कुछ पाने की इच्छा नहीं थी। अब आपके लिए यही ठीक होगा कि आप धन देकर और ऋषियों के चरण पकड़कर अपने रत्नादि वापस मांग लें। उस जुआरी का मन भी बदल गया उसने भगवान शंकर की खूब आराधना की। भगवान शिव की कृपा से उसे फिर से सुख भोगने का अवसर मिला। उस जुआरी ने अगले जन्म में दानव कुल में जन्म लिया। दानव कुल में जन्मा वह पूर्व जन्म का पापी जुआरी और कोई नहीं महादानी विरोचन का पुत्र बलि था, जो अपने पिता से भी बढ़कर दानी हुआ। भगवान विष्णु ने जब वामन के रूप में उससे तीन पग धरती दान में मांगी तो उसने अपना सब कुछ दान कर दिया था।

 

इस कहानी से यह शिक्षा मिलती है कि स्वार्थ से किए गए सौ कामों से बेहतर बिना स्वार्थ से किए गए एक काम का परिणाम होता है। जिंदगी का एक मात्र लक्ष्य भगवान की भक्ति है। किसी के भी जीवन को सुख या दुख से भरपूर, उस इंसान के अपने ही कर्म बनाते हैं।


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